अखबार का वो पन्ना..!!

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याद है मुझे, जब बचपन में सबसे पहले खेल-पेज को खोल के क्रिकेट की ताज़ा-तरीन ख़बरों को पढ़ता था. फिर सिनेमा, हीरो-हिरोईन की गप-शप जैसी खबरें पढ़ के घर के बुजुर्गों को अखब़ार सौंप देता था. फिर माँ सामान की बढ़ी कीमतों और सर्राफा बाज़ार में सोने-चांदी के भाव देख कर एक जाने पहचाने अंदाज़ में या तो गुस्सा या कभी-कभी ख़ुशी व्यक्त करती थी. पिताजी मुख्य-पृष्ठ को पढ़ के स्थानीय समाचारों में खो जाते थे. उनके वेतनमान में वृद्धि हुई या नहीं.. कौन सा नेता चिंदी चोर है ..वो थोड़ा समझदार है ..नगरपालिका के अधिकारी भ्रष्ट हैं ..नेता और पुलिस की मिलीभगत है…बाज़ार के एक व्यवसायी की हत्या हुई ..सदर-अस्पताल की हालत नाज़ुक है ..गरीबी काट रहा है कोई राष्ट्रपति पुरस्कार विजेता..और ना जाने क्या क्या. और छोटे शहरों में तो किसी महाशय कि अगर गाय भी खो जाए तो एक ख़बर बन जाती थी. और उस ख़बर कि ख़बर तब तक ली जाती जब तक वो गाय मिल ना जाये. वैसे हर आयु वर्ग की अलग-अलग पसंद थी. अपने पसंद की खबरों को खींच- खींच कर पढ़ा जाता. वैसे सारे पन्नों को ऊंगलियों के बीच घुमाया जाता था…मगर सिर्फ ये देखने के लिए कि पेपर वाले ने अख़बार के सारे पन्नें (अतिरिक्तांक के साथ) दिए हैं या नहीं. अखबार को पढ़ने से पहले उसके सारे पन्नों को एक बार गिन लेना परिवार के हर सदस्य की आदत थी. और अगर किसी दिन कोई पृष्ठ गायब पाया गया, तो ये बात दिन भर की खबर बन गयी और अगले दिन अखबार वाले की शामत की वजह भी.

तड़के फर्श पर फेंका हुआ अखबार, दिन भर सबको मनोरंजीत करता, सबके हाथो से होता कभी टेबल तो कभी बिस्तर, कभी पड़ोसियों और मेहमानों के हाथों में, कभी छत पर और कभी सोफे पर फिकता-फिकाता अंत में एक कोने में लगे हुए अपने पुराने अंको के ढेर पर रख दिया जाता. फिर तारीख पर तारीख…तारीख पर तारीख…तारीख पर तारीख…! सुबह में चकचाकता सा जीवंत अखबार फर्श से उठ कर दिन भर की सिलवटें समेटता अपने पिछले अंको के अर्श पर चुपचाप रख दिया जाता.

हम स्कूली बच्चे शनिचरी आधे बेले को किसी तरह काट कर इतवार का मज़ा खेल कूद कर लेते थे. और समय कब कट जाता पता ही नहीं चलता था. इतवार के अखबार को पढ़ने का समय किसके पास था. वैसे इतवार के अंक का कोई महत्व था भी तो बस इतना की वो जल्दी से एक सप्ताह पुराना हो और उसपर छपे हीरो-हीरोइन या भगवन जी की तस्वीरों से पटे किसी पन्ने को कॉपी-किताब की ज़िल्द बनायी जाए. पर रूकिये जरा..!! हम बच्चे थे ! उस इतवारी अखब़ार का परिवार के बड़े बुजुर्गों में बहुत मान था. अगर किसी इतवार अखबार ना आ पाए तो पूरा दिन कैसे कटेगा? किसी और दिन घर में मिले ना मिले..दफ्तर में तो मिल जाएगा.पर इतवार के दिन तो दफ्तर नहीं होता.उस दिन अखबार ना आना बहुत पहाड़ गिरने के बराबर था. बुज़ुर्ग चाय की अनंत-अनवरत चुस्कियों के साथ पन्नों को ऊंगलियों में फंसा कर पहले अपनी मनपसंद पृष्ठों में छपी खबरों को चाव से पढ़ते थे. फिर जिन पृष्ठों को रोज़ समय या अरुचि के चलते बेकार समझ कर छोड़ दिया जाता था, उनकी बारी आती थी. सबसे पहले सम्पादकीय..फिर देश-विदेश..फिर खेल..! बच्चों के घर में हीरोइनों की तस्वीरों पर नज़र जाती भी थी तो थोड़ी दिखावटी तौबा होती थी. पर ख़बरों के अम्बार में एकाध नज़र उधर भी डालना संभव हो जाता था. अगर बीच में कोई आ भी जाए तो उनकी फूहड़ तस्वीरों पर, उनके पहनावे पर एक देशी गाली दी जाती थी. समय को अखबार के सहारे काट लिया जाता. और सच में अगर किसी इतवार समय काटना मुश्किल हो जाये तो बारी आती थी “आर्थिकी ” की. आम दिनों का सबसे ऊबाऊ पेज जहाँ अजीब से भारी-भरकम शब्दों का पुलिंदा होता था.मुद्रा-स्फीति, सकल घरेलु उत्पाद, क्रय शक्ति, विनिमय दर.. आदि-आदि. सभी इन शब्दों का अर्थ समझने की कोशिश करते पर अखबार का ये पन्ना इतवार को पिताजी को अक्सर नींद का तोहफा दे जाता था. देश की अर्थव्यवस्था के विभिन्न आयाम एक तिलिस्म थे. ठीक अगला पन्ना होता था स्टॉक – एक्सचेंज पर शेयरों के ऊपर-निचे जाते भावों का. जिसमें एक लम्बी चौड़ी सारिणी में अंकों की भरमार होती. महीन अक्षरों की वो छपाई अखबार के उस पन्ने को इतना अनाकर्षक और मूल्यहीन बना देती थी की पढ़ना या एक नज़र डालना तो दूर, पुराने होने पर भी कोई उसके बने ठोंगे में झाल-मूढ़ी खाना पसंद नहीं करता था. हम भी पेपर के उस पन्ने का इस्तेमाल कहीं नहीं करते थे. ना किताब की ज़िल्द लगाने में, ना कागज़ के खिलौने बनाने में.

वैसे, ऐसा भी नहीं था की उस पन्नें को पसंद करने वाले लोग नहीं थे. मोहल्ले के लालाजी का छोटा बेटा..झुन्नालाल. उसके बारे में सुना था कि वो सड़क पर भी अखबार के उसी पन्ने को लेकर घुमा करता था और घंटो उसमें खोया रहता था. रोज़ सुबह नदी किनारे से टहल के वापिस आते समय उसके हाथ में एक अखबार होता था.लोग उससे ज्यादा बात करना पसंद नहीं करते थे. मेरे बड़े भाई के दोस्त उसका मजाक बनाते थे. कहते थे कि उसके पास मोहल्ले के मच्छरों से सम्बंधित आंकड़े भी होंगे. हमेशा आंकड़ों कि बात करता था.उसके हमउम्र लड़के उससे बचते फिरते थे. शादी ब्याह का मजमा लगा हो, या सरस्वती पूजा का पांडाल या फिर शाम को पान की गुमटी पर लड़कों का मजमा लगा हो, लोग उसको आते देख कन्नी काट लेते. कभी-कभी कुछ बिगड़ैल आवारा से लड़के उसकी चुहल-चिढ़ भी ले लेते. देश की बेरोजगारी का आंकड़ा, देश की गरीबी का आंकड़ा, देश की विकास दर कितनी है, और जाने क्या क्या पूछ कर उसकी हसी लगाते.

नेताजी का बड़ा लड़का कहता:- ” झुन्नालाल! तेरी शादी के बाद अपनी बीवी को अगर इतना डाटा देगा, तो देश की छोड़, तेरे परिवार की विकास-दर शुन्य हो जाएगी.” लोगों कि मानें तो उसे शेयरों में बहुत रुचि थी. शायद शेयर खरीदता बेचता भी था.एक दम जुआरी कहते थे सब. लोग तो यहाँ तक कह गए कि अपने बाप कि गाढ़ी कमाई को वो शेयरों में लूटा चूका है और जो कुछ बचा खुचा है वो भी लूटा देगा. एक कहानी और उड़ाई गयी कि अपने बेटे कि इस जुआकश आदत से लालाजी को दिल का दौरा पड़ा और वो स्वर्ग सिधार गए. आर्थिकी का वो पन्ना एक हत्यारा भी बन गया. सच चाहे जो भी हो, लालाजी प्राकृतिक मृत्यु का शिकार हुए हों या अपने बेटे की अजीबोगरीब आदत का. एक बात तो सच थी की आर्थिकी के पन्ने में लोगों की रुचि नहीं थी. समाज अपने डर हमेशा छुपता है.अपनी कमजोरियों को हमेशा कोई न कोई कहानी गढ़ कर, कोई अन्धविश्वास बना कर ढांपना चाहता है. कम जानकारी के आभाव में शेयर को जुआ बनाने की कहानी खूब गढ़ी जाती. उसमें निवेश करने के तौर-तरीके कि चर्चा करने वाला इन्सान वैसे आज भी दिवालियेपन का राही माना जाता है.

करीबन 90 के दशक के उतरार्ध में सभी समाचारपत्रों में रंगीन स्याही का उपयोग शुरू किया गया. कंप्यूटर के चलन के बाद अचानक कुछ सकारात्मक परिवर्तन आने शुरू हुए. अखबारों के मुख्य पृष्ठ और अंतिम पृष्ठ को रंगीन तस्वीरों से सजाना शुरू किया गया. फिर फ़िल्मी पन्नो और अतिरिक्तांको को भी चटक रंगों से रंगने का दौर चला. इलेक्ट्रोनिक मिडिया के कदम रखते ही..प्रिंट मिडिया ने अपनी साख बचने के लिए रंगों का सहारा लिया. हम भी बेहद खुश थे.क्यूँ कि केबल टीवी कि चाल महानगरों और हमारे जैसे छोटे शहरों के बीच कहीं धीमी हो गयी थी. ‘आजतक’ जैसे समाचार-चैनल हम तक आये नहीं थे. इधर परिवर्तन के उस दौर में अखबार का हर पन्ना धीरे धीरे रंगीन होता चला जा रहा था. ब्लैक-एंड-व्हाइट टीवी में क्रिकेट देखने वाले हम बच्चो को अखबार से ही मालूम चला कि भारतीय टीम कि जर्सी का रंग आसमानी है. रंगों को धीरे- धीरे हर पन्ने में ख़ेपा जाने लगा.और अखबार के हर दूसरे पन्ने कि तरह आर्थिकी का वो पन्ना भी रंगीन हो गया. उस पन्नें में भी देश की अर्थव्यवस्था की दशा-दिशा समझाने के लिए रंग-बिरंगे दंड और वृत्त-ग्राफ नजर आने लगे. सेंसेक्स वाले पन्ने पर भी दलाल स्ट्रीट का रंगीन फोटो छपने लगा. अखबार की मांग में अचानक वृद्धि भी हुई. इस वृद्धि का अंदाज़ा हम इसी बात से लगा सकते हैं कि पहली बार हमारे पड़ोसी शर्मा जी ने अखबार खरीदना शुरू किया. ये रंगों की महिमा ही थी. वर्ना शर्मा जी जब तक रोज़ हमारे घर से अखबार मांग कर ना पढ़ें, उनको रात में नींद नहीं आती थी. दिन भर में चार बार अपने छोटू को हमारे घर अखबार मांगने के लिए दौडाते. मांग कर पेपर पढ़ना जूए से भी बुरी लत है. शर्मा जी इस बात के जीते जागते उदाहरण थे. इस बात पर उनका अंदाज़-ए-बचाव भी दमदार था .कहते थे :- ” जो होना था वो हो गया..अख़बार में वही लिखा होगा जो हो चूका है .उसके लिए पैसे देने कि क्या जरूरत है. आपने पढ़ लिया तो आपकी लागत वसूल हो गयी. अब अगर मैं पढ़ लेता हूँ तो मेरी बचत की बचत और आपके हाथों एक कल्याण भी हुआ. आपने देश का एक रुपया बचाया “. वैसे हमारे मोहल्ले में शर्मा जी जैसे और भी लोग थे.एक बार जब अखबार घर से निकला तो इन सभी के हाथो से होता शाम तक ही अपने असली मालिक तक पहुँच पाता. हमारा अखबार महाभारत की पांचाली कि तरह था जिसे अपने असली पति अर्जुन के अलावा बाकी पांडवों कि भी सेवा करनी पड़ती थी. सबों के हाथ से होता हमारा ‘पांचाल’ शाम तक अपनी काया खो देता था. पन्नो की दशा चूसे हुए गन्ने की तरह हो जाती थी. उनपर छपी ख़बरों को खूब निचोड़ लिया जाता था. जब हमारा अखबार घर लौटता तो हर पन्ने पर लोगो की पढ़ाई के निशान नज़र आते थे…सिलवटें ही सिलवटें..! पर आर्थिकी के उस पन्ने की कहानी जस की तस होती. वो पन्ना हर घर से घूम के आने के बाद भी अनछुआ, अनपढ़ा सा रह जाता.एक दम नए की तरह. मानो एक ऐसी नवविवाहिता हो जो सोलह श्रींगार करके भी अपने प्रियतम का मन नहीं मोह पा रही हो. देश का एक रुपया बचाने वाले शर्मा जी भी अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में रुपये की कीमत में एकदम रुचि नहीं रखते थे. गहनों में रुचि रखने वाली मेरी माँ को भी सर्राफा बाज़ार से ज्यादा सोने की की अहमियत नहीं मालूम थी.l छोटे शहरों में लोग समय बिताने के बहाने ढूंढते हैं. इसलिए वहाँ उस पन्ने को ना पढने का कारण बस रुचि और जानकारी की कमी हो सकती है.पर वही लोग जब पढाई, और फिर रोटी की जुगाड़ में एक छोटे से शहर से निकल कर महानगरों की टोह लेते हैं तो बहाना बदल जाता है.

“वक़्त नहीं है”! वक़्त होता भी नहीं शायद. महानगरों की भागदौड़ में आर्थिकी का एक पन्ना क्या, पूरा का पूरा अखबार ही जनजीवन से अलग सा होता जाता है. हाँ ! कभी कभी रेड लाइट पर खड़े खड़े अखबार बेचते किसी बच्चे के हाथ में पड़े-पड़े कुछ नजर आ जाता हो.पर किसी सुनामी या आतंकवादी हमले कि घटनाओं के अलावा कभी इतना आकर्षित नहीं करता की एक प्रति खरीद ली जाए. अभी हाल में ही गुलाम अली की एक कव्वाली सुन रहा था..उसके एक कलाम को सुन मुझे उस पन्ने का दुःख याद आ गया.

“मेरे दामन में काटो के सिवा और कुछ भी नहीं..! आप फूलों के खरीदार नजर आते हैं.!!. हश्र में कौन गवाही देगा मेरी..! सब तुम्हारे ही तरफदार नज़र आते हैं…!! ”

और बाद में दक्षिण भारत कि टोह लेने के चक्कर में कभी हिंदी अखबारों से ज्यादा पाला नहीं पड़ा. कभी-कभी किसी जगह नज़र पड़ गयी तो पाता हूँ की अब आर्थिकी का वो पन्ना व्यावसायिक बन गया है. जी हाँ!!!! कुछ इकोनोमिक-टाइम्स जैसे विशेष समाचारपत्रों को छोड़ दें तो अब समाचार-पत्रों में ” आर्थिकी ” नाम का उपयोग विरले ही होता है. उसे “व्यावसायिक ” पन्ने के नाम से प्रकाशित किया जाता है…बिजनेस पेज..! किसी भी भाषा में “”शब्दों “” के उपयोग से लिखने या बोलने वाले व्यक्ति की मनोभावना और मानसिकता का पता चलता है. अगर अर्थव्यवस्था का पर्याय व्यवसाय को माना जा रहा है तो मामला बिगड़ रहा है. और शायद इसीलिए हमारे व्यवसाय ने आर्थिकी की कमर तोड़ दी है. समय के साथ व्यवसाय बढ़ा है, अर्थव्यवस्था कमज़ोर हुई है.गरीब और गरीब हो रहे हैं, अमीरों की अमीरी बढ़ी है.और सुना है की मेरे मोहल्ले का झुन्नालाल अभी पास के किसी जिले में शिक्षा अधिकारी है. साथ ही में गरीब बच्चों के लिए एक मुफ्तिया स्कूल चलाता है. अखबार का वो पन्ना अभी भी उसके हाथ में रहता है. लोग उसे अभी भी पागल कहते हैं.शर्मा जी ने फिर से अखबार लेना बंद कर दिया है.केबल का कनेक्सन जो ले रखा है.

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