आम आदमी क्या करे, अंधी है सरकार

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 चंदन कुमार मिश्र

हिन्दी साहित्य में एक बहुत ही मशहूर छंद रहा है दोहा। दो पंक्तियों में कुछ कहने के लिए यह भक्तिकालीन युग में काफी इस्तेमाल में लाया गया। कुछ लोगों का तो मानना है कि अब इसमें कोई शक्ति शेष बची ही नहीं या यूं कहें कि इसकी सारी शक्ति निचोड़ ली गयी। फिर भी आज दोहे लिखे जा रहे हैं। पहले के कवियों को धर्म, भक्ति, राजा के गुणगान और स्त्री के रूप श्रृंगार के अलावा और कोई विषय शायद ही मिलते थे। जब राजा महाराजा कवियों को सोने की मुद्राएं दे रहे हों तो भला उन्हें और समस्याएं कहां से दिखतीं। कबीर के दोहों को सब लोगों ने सुना है। दोहा इस अर्थ में भी खास है कि इसका सहज प्रवाह और तुकांत होने का गुण लोगों को आसानी से अपनी ओर खींचता था और शायद है भी। जब कोई छंद लय में बंधा हुआ हो तो उसे दुहराना या याद रखना सरल हो जाता है। जैसे हम अक्सर शेर याद रखते हैं और उनका इस्तेमाल अलग-अलग जगहों पे करते हैं ठीक वैसे ही दोहों को भी याद रखा जा सकता है। मुक्तक काव्य में दोहे अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

     आज नयी कविता का यानि अतुकांत कविता का समय है। कुछ पारंपरिक छंदों का प्रयोग अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। उन छंदों की सीढ़ियों पर चढकर ही आधुनिक हिन्दी भाषा और साहित्य अपने वर्तमान रूप में हमारे सामने हैं।

     दोहों को सुनते-सुनते इस खास शैली में कुछ कहने की आदत मेरे अंदर भी धीरे धीरे पैदा हो गयी। यहां मैं कुछ दोहों को रख रहा हूं जिनकी रचना मैंने हिन्दी में की है।

 चोरी चोरों के यहाँ, लुटते कैसे लोग ?

ऐसा फैला देश में, अब चोरी का रोग ॥

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 मैंने देखा है नहीं, जिसके जैसा फ्रॉड ।

आगे जो शैतान से, कहते उसको गॉड ॥

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 भूखों पर पड़ती नहीं, जिसकी कभी निगाह ।

कैसी ये करतूत है, वाह वाह अल्लाह ॥

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 करते क्या हो दोस्तों, उससे तुम फ़रियाद ।

आती है ये पुलिस जब, घर लुटने के बाद ॥

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 बिना काम के सुन रहे, धर्मों के उपदेश ।

रोटी कपड़ा के लिए, तरस रहा जब देश ॥8॥

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 आओ बतलाएं तुम्हें, सब धर्मों का मर्म ।

धर्म-धर्म जपते रहो, करते रहो अधर्म ॥

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 स्वयं बैठ कर स्वर्ग में, करते नर्क प्रदान ।

कहलाते परमात्मा, कहलाते भगवान ॥

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 टिकट बेच कर स्वर्ग के, पैसे रहे समेट ।

अलग-अलग भगवान के, अलग-अलग हैं रेट ॥

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 धर्मों के इतिहास में, लूटे गये गरीब ।

भगवानों की लूट से, बनता गया नसीब ॥

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 जब चढ़ता विश्वास का, सबके ऊपर भूत ।

तर्क करेगा कौन फ़िर, मांगे कौन सबूत ? ॥

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 कठिन बहुत पहचानना, घूमे पहन नक़ाब ।

अब शर्बत की ग्लास में, बिकने लगी शराब ॥

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 सुबह-सुबह जब हाथ में, आता है अखबार ।

दिखता पहले पेज़ पर, केवल भ्रष्टाचार ॥

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 नमक छिड़क कर जख़्म पर, होता आज इलाज ।

रोगी होगा एक दिन, पूरा देश समाज ॥

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 ए.सी. रूम में रात भर, मना जीत का जश्न

मंत्री से क्यों पूछते, अब विकास का प्रश्न?

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 मुझको ही क्यों ना मिले, अब जनता का वोट ।

जेब-जेब में जब गिरा, हो सौ-सौ का नोट ॥18॥

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 नेताजी को क्या पता, क्या रोटी का भाव ?

घुसा नदी में जब नहीं, एक बार भी नाव ॥

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 ज़िस्म बेचने को जहाँ, औरत है मज़बूर ।

बरस रहा है देश में, क्या अल्ला का नूर ॥

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 इतना ही है देश में, धर्मों का इतिहास ।

रोटी खायें साधुजन, कर्षक केवल घास ॥

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 लाखों की जानें गईं, कारण रीति-रिवाज ।

जब-जब निकली देश में, प्रेमी की आवाज ॥

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 गली-गली में फैलती, क्यूं नफ़रत की आग ।

डरे-डरे से फूल हैं, डरे-डरे से बाग ॥

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 न्यायालय में हम गये, आज देखने न्याय ।

सजा मिली निर्दोष को, दोषी को गुड बॉय ॥

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 हर ऑफिस में हो रहा, हर पल अत्याचार ।

आम आदमी क्या करे, अंधी है सरकार ॥

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 होता रोज तबाह है, जाने क्यों इंसान।

इंसानों की भीड़ में, ढूंढ रहा पहचान॥

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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