स्वामी निगमानंद की मौत और भारत की बदबूदार दमघोंटू व्यवस्था

1
15

अन्ना हजारे लोकपाल बिल को लेकर जंतर मंतर पर अनशन करते हैं तो एक लहर क्रिएट हो जाती है, बाबा रामदेव दिल्ली के रामलीला मैदान में अपने समर्थकों के साथ काला धन को लेकर अनशन करते हैं तो पूरे तामझाम के साथ पल पल की खबरें राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। लेकिन स्वामी निगमानंद हरिद्वार में कुंभ क्षेत्र को खनन मुक्त कराने गंगा को बचाने के लिए लंबे उपवास के बाद प्राण त्याग देते हैं तब जाकर उनकी तरफ सरकार और मीडिया का ध्यान जाता है। वो भी इसलिये कि उनकी मौत देहरादून के उसी अस्पताल में होती है, जिसमें बाबा रामदेव भरती रहते हैं। सवाल उठता है कि समय रहते स्वाम निगमानंद की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया? सरकार और मीडिया हाई प्रोफाइल आंदोलनकारियों और बाबाओं को तवज्जों तो देती है लेकिन स्वामी निगमानंद जैसे लोगों को पूरी तरह से उपेक्षित करती है। स्वामी निगमानंद 116 दिन तक अनशन पर बैठे रहे, उनकी हालत बिगड़ती रही, लेकिन पूरा सिस्टम चुप रहा। यह असंवेदनशीलता की परकाष्ठा नहीं तो और क्या है ? डेमोक्रेसी हर किसी को चिखने और चिल्लाने की इजाजत देती है। डेमोक्रेसी में जो जितना ज्यादा चिखता है चिल्लाता उसकी मार्केटिंग वैल्यू उसी अनुपात में बढ़ती है। डेमोक्रेटिक तंत्र को झकझोझड़ने के लिए हो हल्ला जरूरी है, यह बात भारतीय डेमोक्रेटित तंत्र पर पूरी तरह से लागू होती है। यही वजह है कि अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सरीखे लोगों का आंदोलन तो परवान चढ़ जाता है लेकिन स्वामी निगमानंद जैसे लोगों को अपने प्राणों तक की आहुति देनी पड़ती है क्योंकि स्वामी निगमानंद के साथ उनलोगों की फौज नहीं होती है, जो हर स्तर पर मैन्युपुलेट करने में दक्ष होते हैं।
भारत में आंदोलन एक बेहतर धंधा का रूप लेता जा रहा है। चाहे अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जैसे लोग डेमोक्रेटिक आंदोलनों का धंधा करने के गुर अच्छी तरह से जानते हैं। अपार लोकप्रियता और प्रसिद्धि पर कब्जा करने के लिए मीडिया का कुशल इस्तेमाल भी कर ले जाते हैं और सरकार के साथ भी आंख मिचौली का खेल बेहतर तरीके से खेल लेते हैं, जबकि स्वामी निगमानंद इस मामले में अनाड़ी साबित होते हैं और अनाड़ीपन की कीमत उन्हें अपने प्राण देकर चुकानी पड़ती है। स्वामी निगमा नंद की मौत से यह स्पष्ट हो गया है कि अब भारत में गांधी का हथियार भोथरा हो गया है। प्रशासन से लेकर नीति-निर्धारण में शामिल तमाम लोगों के ऊपर अनशन के हथियार का कोई असर नही पड़ता है। प्रशासनिक अधिकारियों और नीति- निर्धारकों की चमड़ी अब अंग्रेजों से ज्यादा मोटी हो गई है। स्वामी निगमानंद की मौत पूरी व्यवस्था को सवालों के घेरे में खड़ी करती है। अब भारत में किसी भी मुद्दे को लेकर अनशन पर बैठने से पहले यह जरूरी है कि आप पहले अपना प्रोफाइल मजबूत कर लें। चंडालचकौड़ी की एक अच्छी खासी टीम आपके साथ होनी चाहिये जो विभिन्न स्तर पर लोगों को मैन्युप्युलेट करने में माहिर हो। नहीं तो आपकी आवाज नकारखाने में तूती की आवाज साबित होगी, जैसा कि स्वामी निगमानंद के साथ हुआ।

अपनी टीम के साथ जंतर मंतर पर अन्ना हजारे के बैठने के साथ मीडिया द्वारा उन्हें दूसरा गांधी करार दे दिया जाता है। अन्ना की टीम में शामिल मीडिया मैनजमेंट के उस्ताद रातो रात अन्ना हजारे को स्टार आंदोलनकारी बना देते हैं, और इसके साथ ही सरकार भी अन्ना के आंदोलन को लेकर हरकत में आ जाती है। अन्ना के मनपसंद लोगों को सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के रुप में जगह मिल जाता है और लोगों के बीच यह भ्रम पैदा किया जाता है कि आंदोलन सफल रहा। भगवा रंग के कारण बाबा रामदेव के मामले में दाव थोड़ा उलटा बैठता है। दमन की नीति पर चलते हुये सरकार आधी रात को रामलीला मैदान को पुलिस छावनी में तब्दील कर देती है और बाबा रामदेव जनानी वस्त्र में भगाने की असफल कोशिश करते हैं। इसके बाद बाबा रामदेव के अनशन को तुड़वाने के लिए विपक्षी राजनीतिज्ञों के साथ-साथ देश के तथाकथित धार्मिक गुरुओं का तांता लग जाता है। स्वामी निगमानंद के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं होता। सीधी सी बात है स्वामी निगमानंद डेमोक्रेटिक तंतुओं से खेलने में दक्ष नहीं थे। न तो उन्हें अन्ना हजारे और बाबा रामदेव की तरह प्रेस कांफ्रेंस करना आता था और न ही उनकी टीम में ऐसे लोग थे एक सुर से हल्ला मचाते। स्वामी निगमानंद अपनी मांग को लेकर शांतिपूर्वक उपहास पर बैठे थे, यही वजह है कि उनकी सुध किसी ने नही लिया। अब तो यहां तक कहा जा रहा है. कि स्वामी निगमानंद को जहर देकर मारा गया है। यदि यह सच है तो यह कहने और समझने में कोई संकोच नहीं होना चाहिये कि भारत की व्यवस्था पूरी तरह से सड़ चुकी है, और अब तो इसमें से दम घोंटने वाला बदबू निकल रही है।

1 COMMENT

  1. आलोक जी,
    इस आलेख में बहुत सारी अशुद्धियाँ हैं। कम से कम दस-पंद्रह जगह अक्षर या शब्द गलत लिखे गए हैं। इसपर ध्यान दीजिए।

    अब बात स्वामी निगमानन्द के मौत की। गाँधी का हथियार भोथरा नहीं है। उनको इस्तेमाल करनेवाले गाँधी के रास्ते पर चलते ही नहीं हैं। स्वामी की मौत हुई है भाजपाई राज्य में, यह बात ध्यान देने लायक है। वहाँ संघ और भाजपा क्यों नहीं गए? सब के सब कालेपानी की सजा के लायक हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here