प्रकाश झा का आरक्षण (फिल्म समीक्षा)

प्रकाश झा द्वारा निर्देशित फिल्म आरक्षण फिल्मी तौर तरीको में एक कमजोर कहानी और प्रस्तुति है , लेकिन जिन मुद्दों को छू कर इस फिल्म को प्रदर्शित किया गया है वे इस फिल्म की ताकत हैं। देश में आरक्षण की आग फैली थी जिसमें पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपनी रोटी सेकी । यह फिल्म भी आरक्षण के विरोध और समर्थन में अवसरवादियों पर एक करारा चोट है जिसके कारण यह फिल्म बिहार और उत्तर प्रदेश के साथ अन्य राज्यों में भी विवादों से घिर गई  । आज इस देश में विवाद से बड़ा कोई प्रचार- तंत्र नहीं है। इसलिए फिल्म चलेगी ही नहीं , दौड़ेगी।

फिल्म आरक्षण वास्तव में शिक्षा के व्यापारीकरण पर चोट है। शिक्षा के नाम पर जो लूट की संस्कृति चल रही है उसे उजागर किया गया है। साथ ही यह भी दिखाया गया है कि वर्तमान राजनीति इस लूट का हिस्सेदार है। नेता और शिक्षा माफिया के बीच के रिश्ते  को दिखाया गया है।

अमिताभ बच्चन (प्रभाकर आनंद)  एक बड़े शिक्षा संस्थान के प्राचार्य की भूमिका में हैं जो अमीर – गरीब. जात – पात  की सीमा से उपर उठकर ज्ञान की ज्योति फैलाने में लगे हैं। अचानक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ युवाओं के बीच आरक्षण एक बड़ा मुद्दा बन कर आता है। सामाजिक तश्वीर हिलने लगती है और यहीं से शुरु होती है फिल्म के विवाद की कहानी।

सैफ अली खान (दीपक कुमार) एक रिसर्च स्कॉलर है और दलित जाति से है जिसे अमिताभ की बेटी दीपिका पादुकोन (पूरवी)  प्यार करती है। दलित होने के कारण वह  इंटरव्यू में अपमान झेलता है और बाद में एक मजबूत आरक्षण समर्थक बन कर उभरता है और इसी तर्ज पर एक छात्र (सुशांत)  आरक्षण विरोध की आवाज बुलंद कर रहा होता है। दोनों पक्षों के दिल के भड़ास एक दूसरे पर निकलते हैं। दोनों अपने गुरु अमिताभ बच्चन से पूछते हैं कि आप आरक्षण समर्थक हो या विरोधी। गुरु का जवाब होता है- मैं न तो आरक्षण का समर्थक हूं न विरोधी। मैं तो सिर्फ उस तबके को जानता हूं जिनका संसाधन के अभाव में विकास ठहर गया है, जिनकी प्रतिभा दब गई है। चाहे वह किसी जाति का हो। मनोज बाजपेयी (मिथलेश सिंह)  एक प्रोफेसर है और शिक्षा जगत का माफिया बनकर उभरता है और राजनीतिक तिकड़म से अमिताभ को सड़क पर खड़ा कर देता है और उसकी प्रचार्य की कुर्सी पर खुद काबिज हो जाता है।

बाद में एक सच्चे गुरु का रास्ता सब को दिखता है। अमिताभ तबेले में बच्चों को अपने उसी सिद्धांत और विश्वास के साथ पढ़ाता रहता है। शिक्षा की इस नई लहर में आरक्षण विरोधी और समर्थक दोनों एक हो जाते हैं। वहीं मनोज बाजपेयी के  के  कोचिंग क्लासेज के नाम से अपना एक विशाल साम्राज्य खड़ा कर लेता है। गुरु के तबेले की क्लास धूम मचाने लगती है, बच्चे सफलता पर सफलता हासिल कर रहे होते हैं। के के कोचिंग का बाजार पिट जाता है और बदले की भावना से तबेले की जमीन पर बुल्डोजर चलवाने के ऑडर मनोज वाजपेयी कोर्ट से ले आता है। लेकिन कोर्ट के ऑडर को लेकर निकली पुलिस के सामने गुरु के साथ आम जनता उठ खड़ी होती है । पुलिस किसी कार्यवाई से इंकार कर देती है। आखिरी क्षण में हेमा मालिनी सच्चाई के इस जंग में विजय का पैगाम लाती है ।

जिस तरह से आरक्षण का मुद्दा आज खामोश हो गया है , उसी तरह फिल्म पर इसके दर्शकों की प्रतिक्रिया भी बहुत मुखर नहीं है। इसके बावजूद फिल्म के नाम  ‘आरक्षण’ और इससे उपजे सवाल में लोगों का आकर्षण बरकरार है। अमिताभ और मनोज वाजपेयी ने लाजवाब अभिनय किया है। फिल्म का निर्देशन कमजोर दिखता है। संवाद की कमजोरी हर जगह दिखती है जबकि पूरी फिल्म संवाद पर ही चल रही होती है क्योंकि दृश्यों के हिसाब से यह कम बजट की फिल्म मालूम पड़ती है। लेकिन बड़े कलाकारों को बड़े पैसे दिए गए होंगे। कुल मिला कर आरक्षण बिकाऊ है।

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