जंग खाते अतीत की चमकदार पेंटिंग

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दुर्गेश सिंह, मुंबई

छुट्टी के दिन के इस कोरस को बॉलकनी में बैठकर चाय की चुस्कियों के बीच बिता देना आसान न होगा। क्योंकि कोरस में ब्रितानी  फौजों की कदमताल है, 1914 की बड़ी लड़ाई है, क्रांतियों की लावारिस लाशें हैं, फोटोफ्रेम में धूल खाती यादें है, लहलहाते हुए जख्म हैं और हरित क्रांति जैसी जवानी है। विलियम डगलस,  विन्सेंट डगलस और विवान डगलस का जीवन समग्रता में हिंदुस्तान की तीन पीढ़ियों को जीता है।

इतिहास की किताबें कई बार बोझिल होती हैं, लेकिन इस किस्सागोई में दस्तावेजी परतें एक के बाद एक  उघड़ती जाती है और आपको लगता है कि अच्छा अब क्या होगा?

मसलन ‘गर्मियों में बालों में लगाने के लिए रेड़ी का खुशबूदार तेल ‘रेरीना’ बाजार में आ गया था। प्रसव के बाद दुर्बलता दूर करने वाला सुखसंचारक-द्राक्षासव और गर्भाशय के रोगों की निश्चित दवा प्रदरारि बिकने लगी थी। 300 वर्ष पुराना और धरती के नीचे 400 फीट पर प्राप्त ताम्रपत्र पर लिखा ‘मंगलमुखी’ यंत्र उपलब्ध था, जो संतान होने की गारंटी देता था।लीवर कंपनी की रिस्टवॉच तीन रूपये में, अमेरिकन एयरगन व जिकमिक कैमरे भी उपलब्ध थे। प्रेमचंद की नई रचनाएं ‘कायाकल्प’, ‘प्रतिज्ञा’, ‘गबन’ और अन्य कहानियों के संग्रह घरों में आ गए  थे। उपन्यास का सूत्रधार विवान डगलस तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता है। 1925 में उसका पिता विली बंदरगाह के जरिए धंधा करने के लिए हिंदुस्तान आया। प्रियंवद इतिहास को यहां कुछ इस तरह उकेरते हैं- 1925  के उस हिंदुस्तान में, जब यहां 14 लाख 52  हजार 174  लोग भिखारी या गरीब थे, जब ब्रिटिश इंडिया के किसानों पर महाजनों का एक अरब नब्बे करोड़ पौंड का कुल कर्ज था, जब अठावन करोड़ से ज्याद लोगों ने रेल के डिब्बे में सफर किया था और जब अकेले हैदराबाद के निजाम के पास दो सौ मिलियन डालर का सोना जमा था, उसी समय विन्सेंट हिंदुस्तान आया। विवान अपनी मां के कंठ से गालिब की शायरी सुनते हुए बड़ा हुआ लेकिन वह शायर नहीं बना। मय्यत कमिटी  के  दफ्तर की जर्जर इमारत सा उसका जीवन बीतते प्यानो के साथ जवान होता जाता है। उसके पिता के मौसी के साथ संबंधों के बारे में उसने कई बार जानने की कोशिश की लेकिन मां का हाथ पकड़ते ही उसे मौन की भाषा समझ में आ जाती थी। जादुई  किस्से की तरह बीता विवान का बचपन फैंटेसाइज करता है लेकिन हॉस्टल लाइफ से निकलने के बाद का रक्तपात विचलित कर देता है। यहीं अमीना के सवाल-जवाब जरूर बीच में बैरियर की तरह आते हैं, लगता है कि कहानी में इस प्रसंग के बिना भी निरंतरता बनी रह सकती थी। विवान  डगलस अपने प्रेम प्रसंगों या यूं कहें सेक्स प्रसंगों को 72 साल की उम्र में जिस बेबाक तरीके से बताता है वह कुछ लोगों को अखर सकता है लेकिन उनका जिक्र किया जाना नैचुरल और स्पांटेनियस था। पानी में डूबी नाव की कील चोरी करते हुए विवान को कतई नहीं लगता कि वह कुछ गलत कर रहा है। लेकिन उसके मन के इस खालीपन को इस कथन से समझा जा सकता है ‘हम शायद जीवन भर उनकी प्रतीक्षा करते हैं, जिनके लिए हम जानते हैं कि वे कभी नहीं मिलेंगे। ये प्रतीक्षाएं कभी खत्म नहीं होतीं इसलिए ये धीरे-धीरे हमारे अंदर ही रहने लगती हैं, उसी तरह, जैसे हमारे अंदर हमारा एकांत रहता है’।   

उपन्यास- छुट्टी के दिन का कोरस

लेखक- प्रियंवद

प्रकाशन- भारतीय ज्ञानपीठ

मूल्य- 250 (साजिल्द)

पृष्ठ संख्या- 285

1 COMMENT

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