जात ,धर्म और उम्र से ऊपर है प्रेम

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(मटुक नाध चौधरी)

‘प्रेम के प्रकार’ शीर्षक लेख में मैंने प्रेम के दो मुख्य भेद बताये हैं- प्राकृतिक और सामाजिक। जाति और धर्म प्राकृतिक चीज नहीं है, सामाजिक है। इसलिए केवल सामाजिक प्रेम जाति और धर्म को मानेगा जबकि प्राकृतिक प्रेम स्वभाववश इनकी बंदिशों का उल्लंघन करेगा। प्राकृतिक प्रेम की अपनी जाति होती है जो जन्म के आधार पर नहीं स्वभाव के मेल के आधार पर तय होती है। जन्म के आधार पर जो जाति समाज में प्रचलित है, वह भ्रामक है, वास्तविक जाति नहीं। उसका उपयोग समाज के धूर्त लोग अपने स्वार्थ के लिए और राजनेता वोट के लिए करते हैं। जाति शोषण का एक महत्वपूर्ण औजार है, इसलिए शोषक वर्ग इसे हर हालत में बचाकर रखना चाहता है। प्राकृतिक प्रेम ही इसको नेस्त नाबूद कर सकता है।

धर्म क्या है ? जो हिन्दू घर में पैदा हो गया, वह हिन्दू और जो मुस्लिम घर में जन्मा, वह मुस्लिम ! समाज में यही धर्म का अर्थ है न ? धर्म इतना सस्ता नहीं है भाई कि वह जन्म लेते ही मिल जाय। इतना सस्ता होता तो पूरी धरती धार्मिक हो गयी रहती ! धर्म फोकट में मिलने वाली चीज नहीं है। इसे अर्जित करना पड़ता है। धर्म का चुनाव होता है। जो साधना पद्धति या जीवन शैली जिसके स्वभाव के अनुकूल होगी, वही उसका धर्म होगा। धर्म का अर्थ है स्वभाव में जीना। धर्म का जन्म से कोई संबंध नहीं है। एक हिन्दू नवजातक को मुसलमान के यहाँ रख दीजिए और मुसलमान बच्चे को हिन्दू के यहाँ, हिन्दू मुसलमान हो जायेगा और मुसलमान हिन्दू। जन्म से धर्म का नाता होता तो हिन्दू हिन्दू रहता और मुसलमान मुसलमान; चाहे उसे जिस घर में पालिये।

सामाजिक प्रेम विवाह के अधीन है और विवाह धर्म और जाति के अधीन। गुलामी की अनेक परतों के बीच  पलने के कारण सामाजिक प्रेम मनुष्य के आत्मिक विकास में सहायक नहीं होता। उसमें साथी के प्रति अधिकार का भाव प्रधान होता है, समर्पण का नहीं। यहाँ समर्पण का सही अर्थ समझ लेना जरूरी है। साधारण बोलचाल में हम जिसे समर्पण कहते हैं वह वास्तव में पति अथवा पत्नी से समर्पण करवाने की युक्ति मात्र है। वास्तविक समर्पण एक दुर्लभ घटना है। हृदय की मुक्त अवस्था में ऐसी दिव्य घटना घटती है। सामाजिक प्रेम का मतलब होता है- बच्चा पैदा करना, पढ़ाना-लिखाना और परिवार को चलाना। इसके लिए दूसरे का गला काटना पड़े तो काट लेना। अपने बच्चे और परिवार की रक्षा के लिए दूसरों के बच्चों और परिवार का नुकसान भी करना पड़े तो आराम से करना।

प्राकृतिक प्रेम वसुधा को ही कुटुम्ब मानता है- वसुधैव कुटुम्बकम्। प्राकृतिक प्रेम एक ऐसा बीज है, जिसकी ठीक से देख रेख और लालन पालन हो तो वह ऐसा विशाल वृक्ष बनेगा जिसकी फुनगियाँ आकाश से बातें करेंगी, जिसके फूलों की खुशबू हवा में चारों तरफ फैलेगी। जैसे हवा न हिन्दू होती है, न मुसलमान; वैसे ही प्राकृतिक प्रेम किसी धर्म या जाति का नहीं होता। लेकिन सामाजिक प्रेम इन बंधनों में जकड़े होने के कारण प्रेम कहलाने के लायक भी नहीं रह जाता। प्राकृतिक प्रेम का अपना एक समाज हो सकता है। वह समाज एक ऐसे विशाल परिवार की तरह होगा जिसमें सभी प्रेम से आनंदपूर्वक रहेंगे लेकिन कोई किसी पर अपना अधिकार नहीं जमायेगा। इस कल्पना को साकार किया था ओशो ने अमेरिका के ‘रजनीशपुरम’ में। इस पर दूसरा प्रयोग ओशो की प्रतिभासम्पन्न, ओजस्वी और सृजनशील शिष्या माँ आनन्द शीला भारत में ‘प्रेमपुरम्’  की स्थापना के द्वारा करना चाहती हंै। अगर यह प्रयोग शुरू होता है तो इसमें हमारा भी जीवन लगेगा। इस प्रयोग के द्वारा समाज के सामने नजीर प्रस्तुत की जा सकती है कि देखो यह भी एक परिवार है जो प्रेमपूर्ण है; जहाँ न ईष्र्या है, न द्वेष, न कलह, न झगड़ा, न झंझट। केवल प्रेम है, सहयोग है, मैत्री है, आनंद है, अहोभाव है ! रही उम्र की बात। एक खास अवस्था में मानव शरीर में सेक्स का उदय होता है, धीरे धीरे बढ़ता है, चरम सीमा तक जाता है, फिर ढलान शुरू होती है, सेक्स की शक्ति घटने लगती है। घटते घटते सेक्स क्षमता जीरो पर आ जाती है। चूँकि सामाजिक प्रेम के केन्द्र में सेक्स होता है और ढलती उम्र में सेक्स क्षमता क्षीण हो जाती है;  

इसलिए इस प्रेम को जीनेवाले लोग अधिक उम्र में प्रेम की घटना देख अचंभे में पड़ जाते हैं ! वे सोचते हैं यह कैसे हो सकता है ? अगर ऐसा हो गया है तो टिकने वाला नहीं है, क्योंकि वृद्ध आखिर सेक्स की यात्रा कब तब कर पायेगा ? जब कुछ समझ में नहीं आता तब आदमी लाचार होकर यह सोचने लगता है कि किसी अन्य लोभ-लाभ में ऐसा प्रेम चल रहा होगा। वे ऐसा इसलिए भी सोच पाते हैं कि विवाह का आधार भी तो लोभ-लाभ ही है ! दहेज जैसी घृणित चीज सामाजिक प्रेम में बड़प्पन का मानदंड है !

सामाजिक प्रेम जीने वालों की बड़ी विडंबना यह है कि वे जीते तो हैं सेक्स में, किन्तु उसी से घृणा भी करते हैं और उसकी भत्र्सना भी करते हैं ! भाषण और लेखन में हमेशा वासनाहीन प्यार की वकालत करते हैं ! इसके ठीक उलट प्राकृतिक प्रेम वाले वासना की महिमा को स्वीकार करते हैं। उसका सारा रस निचोड़ते हैं और छककर पान करते हैं। उसकी कभी निंदा नहीं करते। वासना की गहराई में डूबने से उसकी सीमा भी उनके सामने प्रकट होने लगती है। इसलिए उच्चतर आनंद की तलाश में वे अपनी वासना को ब्रह्मचर्य में रूपांतरित करने की चेष्टा करते हैं और उनमें से कुछ सफल भी होते हैं। वासना को दबाकर जो ब्रह्मचर्य उपलब्ध किया जाता है, वह अनेक मानसिक रोगों को जन्म दे देता है। अहंकार, क्रोध, जलन आदि उसकी बीमारियाँ हैं। 

सेक्स का संबंध शरीर से है, लेकिन प्रेम का संबंध शरीर से ज्यादा मन से है, भाव से है। इसलिए भावपूर्ण प्रेम उम्र का अतिक्रमण कर जाता है। वह उम्र को नहीं मानता। जो प्रेम उम्र को न माने समझिये भाव का है। प्रेम की यात्रा भाव से भी आगे बढ़ती है। कहते हैं, यह आत्मा तक पहुँचती है और जन्म जन्मांतर तक चल सकती है। वहाँ तक यात्रा करना बहुत रोमांचक हो सकता है। जो लोग सेक्स को ही प्रेम समझते हैं, उनका कहना ठीक है कि बुढ़ापे में प्रेम दुखदायी हो जाता है। इसलिए सामाजिक प्रेम करने वालों को उम्र का बंधन स्वीकार लेना चाहिए। लेकिन जो प्रेम को इससे अलग भी कुछ समझते हैं, उनके लिए प्रेम सदा सुखदायी है। इसलिए प्राकृतिक प्रेम में उम्र का कोई बंधन नहीं होता। वहाँ हर उम्र प्यार की उम्र होती है। हर मौसम प्यार का मौसम होता है।

  सामाजिक प्रेम की सबसे बड़ी चिंता किसी भी तरह समाज चलाने की होती है। इसमें प्राकृतिक प्रेम उसे सबसे बड़ा खतरा नजर आता है ! इसलिए प्राकृतिक प्रेम का विरोध किया जाता है और उसे हर तरह से कुचलने की चेष्टा की जाती है। आप पूछते हैं राजीव मणिजी कि प्राकृतिक प्रेम घर-समाज के बीच कैसे तालमेल बैठायेगा ? मैं कहना चाहता हूँ कि समाज के साथ तालमेल बैठाने की जरूरत क्या है ? फायदा क्या होगा ? यह समाज तो भ्रष्ट है, इसके साथ ऐसे प्रेम का तालमेल कैसे बैठेगा ? क्या जीवन किसी तरह तालमेल बैठाकर घिसट घिसट कर जीने के लिए है ? जीवन तो रूपांतरण के लिए है। जो प्रेम रूपांतरण में सहायक हो, सिर्फ वही वरेण्य है। इस तरह के प्रेम के सहारे अपना जीवन रूपांतरित करते हुए समाज का निर्माण करना है। नया समाज ज्यों-ज्यों बनने लगेगा, त्यों-त्यों वर्तमान समाज अपने आप विदा होने लगेगा। इसे ध्वस्त करने की सलाह नहीं दे रहा हूँ , क्योंकि नया जब आता है तो पुराना अपने आप विदा होने लगता है। उसे अलग से विदा करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए नये समाज के निर्माण के लिए चिंतन और प्रयास करने की बात कह रहा हूँ । एक ऐसा समाज जो व्यक्तियों के प्रेम को फैलने के लिए पूरा आकाश उपलब्ध कराये। जिस समाज में अधिकांश व्यक्ति प्रेमपूर्ण होंगे, वही स्वस्थ, सुंदर और शिष्ट समाज हो सकता है।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

4 COMMENTS

  1. अच्छा लगा। कई बातों से सहमत लेकिन ओशो व्यक्तिवादी हैं और उनका कहना सिर्फ़ व्यक्ति के लिए है। और उनकी व्याख्या ही यहाँ दिख रही है।

  2. aap ka aalekh aacha hai, sir-ye bajar bad ka yug hai,jo log prem seela ke jawani se karte hai,natural prem ka paribhasa bhul gaye hai,unehe kya kahege.sukhad hai hamare desh me -maa-baap,bhai-bahan,beta-beti,phua-phufa,chacha-chachi,dada-dadi,nana-nani jise sabad sunai dete hai, sir/maidam-likhna chahunga -‘bazar me khoye hue apnatva ka itna dhundhla aalok-ki pahchana hi nahi jata hai her more per tumhara chehra……….|

  3. sab shahi hai lekin maryada tod kar to paribhasa nahi gadhi ja sakti. umra ki bandis w pariwarik jimewariyo se to nahi bhaga ja sakta. bandhan todne ke bad kiya kuch bach jata hai.

  4. matuk ji aapne ‘prem ke prakar’ sirsak me prem ke jo do bhed bataye hain usase mai itafak nahi rakhta. prakirtik prem aur samajik prem ke aapke paribhasa ko mai apne anusar aur bhartiya parmpara ke anusar galat maanta hun.
    jahan tak prakirtik prem ki bat hai to wo janwaro tak hi simit rahana chahiye. kuyki janwar apne prem ka chunav sambandho ke aadhar par nahi balki sahi aur swastha sathi ke aadhar par karte hai taki samagam kar sake aur bacche paida kar saken, chahe unme khoon ka samband hi kyu na ho. halaki janwar bhi apne samaj ke anusar samajik prem karte hain, lekin unka prem parivartanseel hota hai.
    manusya ek baudhik prani hai. manusya ke liye samajik prem hi sahi aur uchit hai. manusya ne jo apna samaj banaya hai usme sambando ki kafi mahatta hai. aur sambando ke aadhar par hi wah apne prem ko abhivyakt karta hai. ek aadarsa samaj ko chalane ke liye samajik prem ki kafi mahatta hai. samasya tab paida hoti hai jab manusya apni prakirti ke samajik bandisho ko tod kar jeev jagat ke prakirtik chunav ke anusar karya karna chahata hai.
    aap ek vidwan aadmi hain. vartman me manusya me prakirtik prem ke chalte kya problem paida ho rahi hain. isase wakif honge.

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