जो साहसिक कदम उठायेगा, भविष्य उसका है

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मेरे लेख ‘किरण का किराया प्रकरण’ में एक फेसबुक फ्रेंड श्री सरोज कुमार ने वह पढ़ लिया जो उनके दिमाग में तो था, लेकिन लेख में नहीं ! वे सोनिया भक्त मालूम पड़ते हैं। इसलिए किरण की प्रशंसा उन्हें अखड़ गयी !  उनके मानस में सोनिया विराजमान थी। उन्हें लगा सोनिया के सामने कोई दूसरी औरत कैसे प्रशंसनीय हो सकती है ? उनके दिमाग में एक रासायनिक परिवर्तन हुआ। उसकी वजह से उन्हें दिखने लगा कि मैं किरण को सोनिया से श्रेष्ठ साबित कर रहा हूँ। यद्यपि मेरे मन के किसी कोने में सोनिया नहीं थी, न उनका नाम लिया था, न तुलना की थी। फिर भी उन्हें ऐसा ही दिखा, तो मैं अंदर ही अंदर मुस्कुराया और उन्हें जवाब दिया- 

                       “मैंने किरण की तुलना सोनिया से नहीं की है, क्योंकि दोनों में बड़ा फर्क है. पहला फर्क तो यह है कि सोनिया को राजनीति विरासत में मिली है, जबकि किरण अपने बल पर खड़ी है. सोनिया भ्रष्टतम सरकार की मालकिन है, जबकि किरण उसे चुनौती देने वाली बहुसंख्यक जनता की ताक़त. स्वार्थान्ध लोग नेताओं के भजन में मगन रहते हैं. कांग्रेस को जो जन समर्थन प्राप्त है, उसमें उस दल के सभी नेताओं का योगदान है. लेकिन आपने इसका सारा श्रेय सोनिया को दे दिया है. आपसे भी बड़े एक चाटुकार थे, जिन्होंने कहा था इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा. अगर समय रहते सरकार नहीं चेती तो आप याद रखियेगा सत्ता कांग्रेस के “हाथ” से निकल जाएगी.”

  इस जवाब से वे और अधिक विचलित हो गये। इस बार अपने लिए चाटुकार शब्द उन्हें अखड़ गया। थोड़ा तिलमिलाये और पुनः सोनिया के गुणगान में लीन हो गये ! फेसबुक पर उन्होंने विस्तृत टिप्पणी की है। इस लेख की जननी उनकी टिप्पणी ही है।

बन्धुवर सवाल यह नहीं है कि सोनिया बड़ी या किरण बड़ी। सवाल यह है कि सरकार लोकपाल बिल लाना चाहती है या नहीं ? सरकार के रवैये को देखकर स्पष्ट है कि लोकपाल विधेयक तब तक नहीं लाया जायेगा जब तक वह पूरी तरह मजबूर नहीं कर दी जायेगी। सरकार क्यों नहीं लाना चाहती है ? कारण साफ है- इसके कानून बनने से प्रधानमंत्री समेत अनेक मंत्रियों के जेल जाने की प्रबल संभावना बन जायेगी। जनता भी बड़ी पगली है ! जिस डाल पर सरकार बैठी है, उसी को काटने कह रही है। यह भी कह रही है कि अगर नहीं काटोगे तो मैं तुम्हारा पत्ता काट दूँगी। सरकार को इस पगली का डर भी है, न जाने कब गद्दी से धकेल दे ! तो उसे फुसलाना पड़ता है, बहलाना पड़ता है, तरह तरह के जाल रचकर उसमें उलझाना पड़ता है। अन्ना, किरण, अरविन्द के भ्रष्टाचार की कहानी तैयार करना उनकी जाल-रचना है। लेकिन पगली जनता का साफ कहना है- अगर ये आंदोलनकारी भ्रष्टाचारी हैं, तो सरकार इन्हें सजा क्यों नहीं देती ? किन्तु सजा देने में भय है, जनता के खिसिया जाने का। इसलिए आतंक नहीं, छल का सहारा लिया जा रहा है। छल क्या है ? जनता में यह भ्रम फैलाना कि अगर ये भी भ्रष्ट हैं तो ये कैसे भ्रष्टाचार का विरोध कर सकते हैं ? परन्तु जनता को पता है कि भ्रष्टाचार का विरोध करने का हक भ्रष्टाचारियों को भी है। इसलिए असली मुद्दे से लोगों का ध्यान बँटाने की चेष्टा न कीजिए, उलटा पड़ेगा।

 जो अपराधु भगत कर करई

   राम  रोष  पावक सो जरई

यहाँ ‘भगत’ का अर्थ सीधी सरल निरीह जनता से है। उसके साथ जो धोखा करेगा, वह राम की क्रोधाग्नि में धू धू कर जल उठेगा।

अगर सोनिया जी आपकी नजर में बहुत त्यागी हैं , उन्हें सत्ता का लोभ नहीं है, तो उनसे कहिए लोकपाल लाये। लोकपाल लाने से ज्यादा से ज्यादा यही होगा न कि वह सत्ता च्युत हो जायेंगी। लेकिन इससे आपके द्वारा बतायी गयी उनके त्याग की कहानी सच प्रमाणित हो जायेगी ! अगर सोनिया चतुर होतीं तो लोकपाल लाकर जनता का विश्वास जीत लेतीं। भ्रष्टाचारियों को होशियारी से हाशिये पर भेजकर अपनी पार्टी के केन्द्र में सदाचारियों को ले आतीं। सच्चाई तो यह है कि वास्तव में कोई भी पार्टी जन लोकपाल नहीं चाहती। भाजपा इसलिए राजी है, क्येांकि वह सत्ता में नहीं है और आंदेालन का सारा लाभ लेना चाहती है। सत्ता में लौटने का सुनहला अवसर उसे दिख रहा है। यह स्वाभाविक है कि उसे लाभ मिल जाय, क्योंकि आंदोलनकारी न तो पार्टी बना रहे हैं और न चुनाव लड़ रहे हैं। तो फायदा किसको होगा ? स्वभावतः उसको होगा जो जनलोकपाल का समर्थन करेगा। सोनिया डायनेमिक होतीं तो स्वयं आगे बढ़कर इसे स्वीकार कर लेतीं और पुनः अपने बल पर अगले चुनाव में सत्ता में पहुँच जातीं। लेकिन ऐसा न कर कांग्रेस यह प्रमाणित करने में लगी है कि अन्ना-आंदोलन के पीछे आरएसएस और भाजपा का हाथ है ! क्या ऐसा सिद्ध कर वह अपनी सत्ता बचा पायेगी ? क्या यही समस्या का हल है ? परन्तु दुर्भाग्य है कि राजनेतागण मीडियॉकर होते हैं। उनमें वैसी प्रतिभा और दूरदर्शिता नहीं होती। वे उस मार्ग पर चल पड़ते हैं जिसमें न उनका भला है और न जनता का।

  बिहार में कांग्रेस की चाटुकारिता ही थी जिसके चलते लालूजी की पालकी लंबे समय तक वह अपने कंधे पर ढोती रही। ऐसे मौके कई बार आये जब कांग्रेस बिहार का नेतृत्व अपने हाथ में ले सकती थी, लेकिन ऐसी सूझ बूझ मनोनीत नेताओं के पास कहाँ ! लालू राज का फायदा नीतीशजी ने उठाया। थोड़ा बहुत काम कर और उससे ज्यादा विज्ञापन कर विरोधी दलों की रीढ़ तोड़ दी। बिहार विधानसभा में कांग्रेस की सदस्य संख्या मात्र चार रह गयी है। कई कारण हैं। एक कारण यह भी है कि कांग्रेस में जनतांत्रिक प्रणाली से प्रदेश अध्यक्ष नहीं चुना जाता। वहाँ प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत होते हैं जिसका आधार कांग्रेस नेतृत्व की चाटुकारिता ही होता है। और शुरू हो जाता है हर तरह के पद के लिए चाटुकारिता का सिलसिला ।

आपको चाटुकारिता शब्द से परहेज है, लेकिन कर्म से नहीं ! सोनिया के अनावश्यक और अवांछित गुणगान को दूसरा नाम आप क्या देंगे ? चाटुकारिता में अभ्यस्त होने के कारण ही वह नहीं दिखती। आपको लगता होगा मैं और चाटुकार ! यह कैसे हो सकता है ? लेकिन अपने को ठीक ठीक समझने के लिए अपने से भिन्न व्यक्ति को समझना पड़ता है। जब तक हम अपने से विपरीत से परिचित नहीं होते, तब तक अपने से परिचित नहीं हो पाते हैं। मनुष्य का दुर्भाग्य है कि अपने से इतना अधिक मोहासक्त हो जाता है कि दूसरों को समझने की क्षमता ही खो बैठता है। जो चाटुकार नहीं है, उनका रहना-सहना, उनका जीना जब तक नजदीक से नहीं देख लिया जाय, तब तक पता ही नहीं चलेगा कि हम क्या हैं ? 

अपने को तो छोड़िए, राजनीति में रत लगभग सबकी यही नियति है। चाटुकारिता राजनीति का प्रवेश द्वार है। इसी दरवाजे से सभी राजनीति में प्रवेश करते हैं। सत्ता की राजनीति का अनिवार्य अंग है चाटुकारिता। कितनी विवशता है आदमी की कि अपने बल पर कोई पद नहीं पा सकता, किसी की कृपा से पाता है। कृपा पाने के लिए जो जो करना पड़ता है, वही तो चाटुकारिता है। जब जनता के हित की राजनीति शुरू होगी, तब यह अप्रासंगिक हो जायेगी। जनता की सेवा के लिए किसी की चाटुकारिता की जरूरत नहीं। चाटुकारिता तो अपने भोग के लिए की जाती है। कोई पद पाना चाहे, पैसा कमाना चाहे तो चाटुकारिता की जरूरत पड़ती है। यह किसी एक दल की बात नहीं है। सभी दलों की कमोबेश एक ही कहानी है। जो इस प्रदूषित राजनीति को बदलने की दिशा में साहसिक कदम उठायेगा, भविष्य उसका है। परिस्थिति की नजाकत को जो समझेगा, वही बाजी मारेगा।

इसलिए सोनिया का कीर्तन छोड़कर जनता के दुख दर्द को समझिए। यह दुर्भाग्य है कि आपका नेता कौन हो, इसका चुनाव सोनिया करे। यह काम जनता को करने दीजिए। जनता अपनी सहज बुद्धि से वास्तविक नेता को तुरत पहचान लेती है। लेकिन सत्ता का खेल खेलनेवालों के बीच कोई वास्तविक नेता हो ही नहीं, तो वह हाथ पर हाथ धरकर टुकुर टुकुर ताकती रहती है। इंतजार करती है। ज्यों ही कोई उसके हित की बात करता नजर आता है, उसके पीछे हो लेती है। उन्हें श्रद्धा-सुमनों से लाद देती है। देश के पूर्व सैनिक अन्ना ने अपना प्यार दिखाया नहीं कि जनता उनके पीछे दौड़ पड़ी। जो अन्ना कर सकते हैं, वह आप भी कर सकते थे, कांग्रेस कर सकती थी, कोई भी पार्टी कर सकती है, लेकिन जनता से प्यार बड़ा कठिन है। भोगवादियों को वह नसीब नहीं होता। स्वार्थ के धुएँ में जनता का दुख दर्द ढँक जाता है।

 भाग्यशाली हैं वे जो जनता के सच्चे हितैषी हैं। अभागे हैं वे जो जनता को बरगलाने के लिए तरह तरह के जाल रचते हैं और अंत में खुद उसी जाल में फँस जाते हैं !

1 COMMENT

  1. सभी पार्टियों या नेताओं की आलोचना करने की आदत होनी चाहिए, अगर कहीं कुछ गलत लगे…लेकिन किरण या अन्ना के साथ होना भी सही नहीं लगता…लोकपाल बिल बेकार-सा हो जाएगा…फिर भी ठीक है…

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