रेखा : शोख हसीना के विरह गीत

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पहले शोख फिर सेक्स बम से अभिनय की बढ़त बनाने वाली रेखा की शोहरत एक संजीदा अभिनेत्री के सफ़र में बदल जाएगी यह भला किसे मालूम था? सावन भादो से शुरुआत करने वाली रेखा ने जब चार दशक पहले सेल्यूलाइड की दुनिया में सर्राटा भरा था तो लोग कहते थे कि उसे शऊर नहीं. न अभिनय का न जीने का. लेकिन वह तब की तारीख थी. अब की तारीख में रेखा की कैफ़ियत बदल गई है. अभिनय का शऊर और अपने जादू का जलवा तो वह कई बरसों से जता ही रही थीं, जीने की ललक और उसे करीने से कलफ़ देने का शऊर भी उन्हें अब आ ही गया है.

वह जब तब इस की कैफ़ियत और उस की तफ़सील देती, बांचती और परोसती ही रहती हैं. कई बार तो मुझे लगता है कि काश कि मैं औरत होता. और कि औरत हो कर भी मैं रेखा होता. सचमुच उन से बड़ा रश्क होता है. रश्क होता है उन के जीवन जीने के ढंग से, उन के प्यार करने और उस पर कुर्बान हो जाने के रंग से. उन के उस ज़ज़्बात और खयालात और उन के अंदाज़ से. इतना कि आज भी, ‘रेखा ओ रेखा, जब से तुम्हें देखा, खाना-पीना, सोना दुश्वार हो गया, मैं आदमी था काम का बेकार हो गया.’ टूट कर गाने को दिल करता है. मैं ने बहुतेरी कहानियां और उपन्यास लिखे हैं. पर दो चीज़ों पर लिखने की हसरत बार-बार बेकरार करती है. एक तो बुद्ध को ले कर एक उपन्यास लिखने की. दूसरे रेखा की बायोग्राफी या उन के जीवन पर एक वृहद उपन्यास लिखने की. आप कहेंगे कि क्या तुक है? बुद्ध और रेखा? दोनों दो द्वीप. कोई ओर छोर नहीं.

पर सच मानिए जितना मैं ने बुद्ध और रेखा को जाना है, दोनों मुझे बहुत पास-पास दिखते हैं. दोनों की यातना में काफी साम्य है. यह प्यार भी एक तपस्या है. बतर्ज़ ये भोग भी एक तपस्या है तुम त्याग के मारे क्या जानो!  दोनों की दृष्टि आनंद की ओर है. दोनों ही जो घर फूंके आपना, चले हमारे साथ वाले हैं. खैर यह द्वैत-अद्वैत, दुविधा-असुविधा मेरी अपनी है. मुझे ही भोगने-भुगतने दीजिए. आप तो यहां रेखा, हमारी-अपनी रेखा पर गौर कीजिए. सोचिए और देखिए कि वह इस सदी के सो काल्ड महानायक से कैसे तो टूट कर प्यार करती हैं. टूट कर चूर-चूर हो जाती हैं पर शायद टूटती नहीं. और कि जुड़ी रहती हैं. प्यार के उस अटूट डोर से बंधी जुडी सिहरती- सकुचाती- ललचाती और कि अपने प्यार को जताती मुस्कुराती रहती हैं. उस अकेली, प्यार करती महिला का दुख और सुख निहारने में जाने कितनी आंखें बिछ-बिछ जाती हैं. बहुत सारे सिने समारोह इस के गवाह हैं. चैनलों के कैमरे सायास अमिताभ बच्चन और रेखा पर डोलते ही रहते है. अमिताभ तो अभिनेता बन जाते हैं और ऐसे व्यवहार करते हैं, ऐसे पेश आते हैं गोया रेखा वहां अनुपस्थित हैं या फिर वह उन्हें जानते ही नहीं. बतर्ज़ मतलब निकल गया तो पहचानते नहीं. वो जा रहे हैं ऐसे हमें जानते नहीं.

पर रेखा? वह तो अंग-अंग से, रोम-रोम से अपनी उपस्थिति जताती, अपना प्यार छलकाती अपने पूरे वज़ूद, अपने पूरे रौ में रहती हैं. एक सिने समारोह का वह नज़ारा भूले नहीं भूलता कि ऐश्वर्या, अभिषेक बच्चन और अमिताभ बच्चन एक साथ आगे की पंक्ति में बैठे हुए थे. रेखा अचानक आईं और उन की ओर बढ़ चलीं. किसी दुस्साहसी प्रेमिका की तरह. गोया वह कोई वास्तविक दृश्य न हो कर फ़िल्मी दृश्य हो. वह आ कर ऐश्वर्या से गले लगीं, अभिषेक से गले लगीं और अभी अमिताभ की बारी आने ही वाली थी कि वह उठ कर ऐसे भाग चले जैसे वहां कोई सुनामी आ चली हो. कैमरों ने एक-एक स्टेप उन का कैद किया.चैनलों ने बार-बार इस दृश्य को दिखाया, पत्रिकाओं ने छापा. अब रेखा के प्यार के इस चटक रंग को आप किसी टेसू के फूल में वैसे ही तो घोल कर भूल नहीं ही जाएंगे? शोखियों मे तो घोलेंगे ही प्यार के फूल के इस शबाब को. जो हो रेखा के इस प्यार की इबारत को बांचना अभिभूत करता है.

याद कीजिए उन दिनों को. जब दो अनजाने फ़िल्म रिलीज़ हुई थी और अमिताभ जया को भुला कर रेखा के रंग में रंग गए थे. इतना कि तब चर्चा चली थी कि अमिताभ रेखा की शादी हो गई. खैर शादी हुई ऋषि कपूर और नीतू सिंह की. रेखा-अमिताभ भी आए. रेखा के माथे पर सिंदूर, पांव में बिछिया पर लोगों ने न सिर्फ़ गौर किया बल्कि अखबारों में ऋषि- नीतू की शादी की जगह रेखा-अमिताभ की फोटो छपी. जिस में रेखा के माथे पर लगे सिंदूर की शोखी कुछ ज़्यादा ही शुरूर में थी. खैर रेखा ने इस के पहले भी प्यार किए थे. अच्छे-बुरे. बाद में भी किए. पर वो सौतन की बेटी में उन्हीं पर फ़िल्माया एक गाना है – हम भूल गए रे हर बात मगर तेरा प्‍यार नहीं भूले. झूले तो कई बाहों में मगर तेरा साथ नहीं भूले. के शब्दों का ही जो सहारा लें तो कहें कि वह अमिताभ बच्चन को, उन के साथ को अभी तक नहीं भूली है, आगे भी खैर क्या भूलेंगी? और अब तो उड़ती सी खबर आए भी कुछ दिन हो चले हैं कि वह अमिताभ बच्चन के साथ किसी फ़िल्म में उन की पत्नी की भूमिका में आ रही हैं. खुदा खैर करे. और कि वह फ़िल्म आए ही आए.

अब लगभग विधवा जीवन [हालां कि उन के जीवन व्यवहार में यह वैधव्य कहीं दीखता नहीं, माथे पर चटक सिंदूर मय मंगलसूत्र के अभी भी खिलता है.] जी रही रेखा, हालां कि मुकेश अग्रवाल से उन के ही फ़ार्म हाऊस में हुए प्रेम फिर शादी और फिर मुकेश की आत्म हत्या प्रसंग को एक क्षणिक सुनामी मान भूल जाया जाए तो भी रेखा ने दरअसल जैसे ढेरों रद्दी फ़िल्मों में काम किया, कमोवेश उसी अनुपात में इधर-उधर मुंह भी खूब मारा. जिस की कोई मुकम्मल फ़ेहरिस्त नहीं बनती. ठीक वैसे ही जैसे उन्हों ने गिनती की कुछ श्रेष्‍ठ फ़िल्में कीं कुछेक फ़िल्मों में सर्वश्रेष्‍ठ अभिनय किया. कमोबेश इसी अनुपात में सर्वश्रेष्‍ठ प्रेम भी उन्हों ने किया और डंके की चोट पर किया. किरन कुमार, विनोद मेहरा, राज बब्बर, जितेंद्र, राजेश खन्ना, विनोद खन्ना, धर्मेंद्र, शैलेंद्र सिंह, अमिताभ बच्चन और संजय दत्त, फ़ारूख अब्दुल्ला जैसे उन के प्रेम प्रसंग के तमाम बेहतरीन पड़ाव हैं. ठीक वैसे ही दो अंजाने, खूबसूरत, घर, उमराव जान, उत्सव और इज़ाज़त उन की बुलंद अभिनय यात्रा के उतने ही महत्वपूर्ण बिंदु हैं. बहुत ही महत्वपूर्ण.

दरअसल 1975 से 1985 तक का समय रेखा के लिए बड़ा महत्वपूर्ण है. इसी बीच वह अपने प्रेम प्रसंग के सब से महत्वपूर्ण पड़ाव अमिताभ बच्चन से जुड़ीं और लगभग उन की हमसफ़र बन गईं. इन्हीं दस सालों में उन्हों ने खूबसूरत, उमराव जान, उत्सव जैसी फ़िल्मों में काम किया और अपनी चुलबुली छवि को चूर किया. चूर उन के सपने भी हुए. सिलसिला आई और अमित जिन्हें वह बाद में ‘वो’ तक कहने लगी थीं, पहनने मंगलसूत्र भी लगी थीं, का संग साथ छूट गया. सहारा बने संजय दत्त. इन्हीं दिनों मुजफ़्फ़र अली की उमराव जान आ कर उन्हें जान दे गई थी. क्यों कि तब तक व्यावसायिक सिनेमा में नंबर वन की पोज़ीशन उन से पंगा लेने लगी थी. लेकिन उमराव जान की सादगी ने उन की शान बढ़ा दी थी. तभी एक रोज़ उन की संजय दत्त से शादी की खबर आ गई. दिल्ली के एक सांध्य दैनिक ने सब से पहले यह खबर न सिर्फ़ उछाल कर छापी बल्कि पहले पेज़ पर बैनर बना कर छापी थी मय फोटो के.

मुझे याद है तब प्रसिद्ध फ़िल्म पत्रकार अरविंद कुमार [फ़िल्मी पत्रिका माधुरी के संस्थापक संपादक जो तब सर्वोत्तम रीडर्स डाइजेस्ट के संस्थापक संपादक थे और मैं उन का सहयोगी था तब.] इस खबर से बड़ा उदास हो गए थे. इस लिए नहीं कि रेखा ने अपने से 12-14 बरस छोटे संजय दत्त से शादी कर ली थी. बल्कि इस लिए कि एक अभिनेत्री जो अब अभिनय के शिखर को छू रही थी, शादी के बाद से सेल्यूलाइड की दुनिया को सैल्यूट कर जाएगी. हुआ भी यही. खैर तब की ठुकराई रेखा को फिर व्यापारी मुकेश अग्रवाल की छांव मिली. जो अंतत: मृगतृष्‍णा ही साबित हुई. हालां कि उन्हीं दिनों सारिका जब बिन व्याह के ही कमल हासन के बच्ची की मां बनीं तब रेखा को कुछ लोगों ने कुरेदा तो वह अपने को रोक नहीं पाईं और धैर्य खो रहे लोगों को धीरज बंधाया,’ घबराइए नहीं बिन ब्याही मां नहीं बनूंगी.’ और अपना कहा वह दुर्भाग्य से ब्याह के बाद भी निभा नहीं सकीं. शायद मातृत्व सुख उन के नसीब में नहीं था. वह रेखा जो अपनी ही खिंची-गढ़ी रेखाओं से आडे़- तिरछे, तिर्यक, समानांतर-वक्र करती काटती रही हैं.

खैर, आप सत्तर के दशक की शुरुआत वाली उन की उन फ़िल्मों की याद कीजिए जिन में वह नवीन निश्चल, विश्वजीत, किरन कुमार, रणधीर कपूर, विनोद मेहरा, और फिर जितेंद्र और धर्मेंद्र के साथ हीरोइन रही हैं. जिन में वह महज़ शो-पीस वाली, हीरो के गले से लिपट कर नाच कूद बस गाने गाती होती हैं. खिलंदडी, शोखी और चुलबुलाहट में तर, अभिनय की ऐसी-तैसी करती होती हैं. सावन भादो से ले कर अनोखी अदा, किस्मत तक की उन की फ़िल्मी यात्रा [अभिनय यात्रा नहीं] भी दरअसल दूसरे, तीसरे दर्ज़े की फ़िल्मों में देह दिखाऊ यात्रा भी है. भले ही वह मैक्सी ही क्यों न पहने हों, या साडी ही सही उन के कुल्हे मटकने ही होते थे. भारी-भारी नितंब और स्तन ‘दिखने’ ही ‘दिखने’ होते थे. तब रेखा थुलथुल होती जा रही थीं. बाद में वह न सिर्फ़ वज़न कम करने में लग गईं बल्कि योगा पर भाषण भी भाखने लगीं.

वही रेखा इस के बाद के दौर में अमिताभ बच्चन, जितेंद्र, विनोद खन्ना, शशि कपूर आदि की फ़ेवरिट हिरोइन होते-होते हेमा मालिनी से नंबर वन की पोज़ीशन छीन बैठती हैं. तो लोगों को अचरज होने लगता है. कि अरे ये तो वही रेखा हैं. वह जब जुदाई में जीतेंद्र के साथ बारिश में भीग कर जादू चलाती हुई गाती हैं, ‘मार गई मुझे तेरी जुदाई, डस गई ये तनहाई’ तो सीटियां बजवाती हैं और उसी फ़िल्म में फिर वृद्धा की भूमिका कर वह लोगों से आंसू भी बहवा लेती हैं. बाद में तो जीतेंद्र के साथ ढेरों फ़िल्मों में वह जवानी और बुढ़ापे दोनों की भूमिका में आईं. अमिताभ बच्चन जब नंबर वन हुए तो उन की लगभग हर तीसरी फ़िल्म की हिरोइन रेखा ही हुईं. मुकद्दर का सिकंदर बनीं, वह ही सलामे इश्क मेरी जां ज़रा कुबूल कर ले गाती रहीं. नटवरलाल में परदेसिया ये सच है पिया, सब कहते हैं मैं ने तेरा दिल ले लिया भी वही गा रही थीं. लेकिन सच यह भी है कि अगर सिलसिला जो इन दोनों की अब तक की अंतिम फ़िल्म है, को छोड़ दें तो अमिताभ के साथ की गई रेखा की फ़िल्मों में रेखा की कोई यादगार या महत्‍वपूर्ण भूमिका याद नहीं आती.

हां, आलाप की याद आती है. शायद इस लिए भी कि अमिताभ की फ़िल्मों में हिरोइन के हिस्से कुछ बचता ही नहीं रहा है. [हालां कि अमिताभ अभिनीत ज़ंज़ीर, अभिमान, शोले और की एक नज़र भी जोड लें में, जया उन की हिरोइन हैं और अपनी उपस्थिति भी दर्ज़ कराती हैं, तो शायद इस लिए भी कि वह पहले से स्थापित और कि बड़ी हिरोइन हैं] तो सिलसिला में अमिताभ के बावजूद रेखा ने अभिनय की रेखाएं गढ़ीं तो सिर्फ़ इस लिए कि यहां विरह उन के हिस्से न था तो भी विरहिणी की सी आकुलता को उन्हें जीना था. जया और संजीव कुमार की उपस्थिति ने उसे और सघन बनाया. ‘नीला आसमां खो गया’ गा के उसे हेर लेना चाहती हैं. ‘कुडी फंसे ना लंबुआ’ के दिनों को फिर से फिरा लेना चाहती हैं. क्यों कि वह विरहिणी हैं पर हिरनियों सी कुलांच भी भरना जानती है. तो यह त्रासद संयोग और उस चरित्र की बुनावट को रेखा से भी सुंदर कोई बीन भी सकता था भला?

दरअसल मुझे लगता है कि रेखा विरह की ही नायिका हैं. जहां-जहां और जब-जब विरह उन के हिस्से आया है, विरहिणी को जिस कोमलता से वह ‘बेस’ देती हैं उन के समय की नायिकाओं में उन के मानिंद कोई और नहीं दीखती. विरहिणी की अकुलाहट की सघनता को घनत्व देने वाली नायिकाएं तो हैं.पर उसे सहजता भरी सादगी भी देने वाली? और उस सहजता में भी चुलबुलापन चुआने वाली? मेरी मंशा यहां त्रषिकेश मुखर्जी की दो फ़िल्मों ‘खूबसूरत’ और ‘आलाप’ की याद दिलाने की है. ‘खूबसूरत’ जब आई तो लोग यकायक चकित हो चले कि क्या यह वही खिलंदड़, थुलथुल [नमक हराम में भी यह रूप था रेखा का.] देह दिखाती, इतराती फिरने वाली रेखा है? ‘खूबसूरत’ तो समूची फ़िल्म ही खूबसूरत थी. पर रेखा? रेखा के तो कैरियर का बदलाव ही इसी फ़िल्म से हुआ जो बाद में कलयुग, उत्सव, उमराव जान और इज़ाज़त में जा पहुंचा.

फिर आई मुज़फ़्फ़र अली की उमराव जान. उमराव जान में उन के हीरो थे फ़ारूख शेख और राज बब्बर. पर जैसे खूबसूरत फ़िल्म रेखा के ही इर्द-गिर्द घूमती थी, उमराव जान में केंद्रीय भूमिका ही उन्हीं की थी. पर जिस लयबद्धता में उमराव जान को उन्हों ने अपने आप में उतारा, जिया और जीवन दिया कोई दूसरी अभिनेत्री उसे वह रंग शायद न दे पाती. उन की विरहिणी का यही शोला ‘उत्सव’ में आ कर भड़क जाता है. मन क्यों बहका रे बहका आधी रात को गीत में तो जैसे वह कलेजा काढ़ लेती हैं.शशि कपूर की गिरीश कर्नाड निर्देशित उत्सव हालां कि अपने कुछ उत्तेजक दृश्यों के लिए ज़्यादा जानी गई. और रेखा के बोल्ड सीन के आगे उन का अभिनय लोगों की आंखों में कम ही समा पाया. पर दरअसल रेखा के अभिनय का बारीक रेशा हमें उत्सव में ही मिलता है. अभिनय की जो बेला रेखा ने उत्सव में महकाई है वह हिंदी फ़िल्मों में विरल ही है.

इस के कुछ ही समय बाद आई खून भरी मांग भी तहलका मचा गई थी. और लोगों ने रेखा में बदले की आग ढूंढने की कोशिश की और उस में सफलता भी पा ली. पर अगर आंख भर जो आप ‘खून भरी मांग’ की रेखा को देखें, रेखा की आंखों को देखें तो वहां विरहिणी की ही आंखें, हिरनी ही की आंखें आप को दिखेंगी. मुझे तो रेखा की आंखें दरअसल विरह में डूबी नहीं, बल्कि विरह में बऊराई, विरह में नहाई दीखती हैं. अब यह तो निर्देशक पर मुनसर करता है कि वह उन से क्या करवाता है? आप याद कीजिए मल्टीस्टारर फ़िल्म नागिन की. जिस में रेखा भी हैं. नागिन के दंश में डूबी उन की आंखों में मादकता का महुआ और विरह का विरवा एक साथ वेधता है. तो लोग घायल भी होते हैं और पागल भी. फिर तेरे इश्क का मुझ पे हुआ ये असर है गाना सोने पर सुहागा का काम कर जाता है. होने को इस फ़िल्म में रीना राय, योगिता बाली आदि अभिनेत्रियां भी हैं पर वह, वह कमाल नहीं दिखा पातीं जो रेखा कर गुज़रती हैं.

नहीं, करने को तो उन्हों ने विनोद पांडेय की एक घटिया सी फ़िल्म एक नया रिश्ता राजकिरण के साथ की. पर विनोद पांडेय उन की विरहिणी आंखों को न तो बांच पाए, न व्यौरा दे पाए. जब कि रेखा अपनी शुरुआती फ़िल्म धर्मा तक में- जिस में नवीन निश्चल हीरो हैं, अपनी आंखों का खूब इस्तेमाल किया है. इस फ़िल्म में एक कौव्वाली है, ‘इशारों को अगर समझो, राज़ को राज़ रहने दो. है तो प्राण और बिंदू के हिस्से पर विषय रेखा ही हैं और तिस पर इस में उन की आंखों का ब्‍यौरा बांचना व्याकुल कर जाता है. यहां तक कि कई फिसड्डी फ़िल्मों जैसे कि ‘माटी मांगे खून’ जिस में कि शत्रुघ्‍न सिन्‍हा उन के हीरो हैं या फिर ‘किला’ जिस में दिलीप कुमार उन के हीरो हैं, जैसी बहुतेरी फ़िल्में हैं, जहां उन की आंखों, बौराई आंखों का अच्छा ट्रीटमेंट है. खास कर गुलाम अली द्वारा गाए गीत ‘ये दिल, ये पागल दिल मेरा’ फ़िल्माया भले शत्रु पर गया है पर फ़ोकस रेखा और उन की आंखों पर ही है.

मैं जो बार-बार रेखा की आंखों में विरह की लौ बार-बार जला-जला दिखा रहा हूं तो आप कतई संभ्रम में न पड़ें कि रेखा की आंखें विरह का ही विरवा बांधे रहती हैं हमेशा. ऐसा भी नहीं है. उन की आंखों में मस्ती भी है और मादकता भी भरपूर. तभी तो मुज़फ़्फ़र अली को उमराव जान में शहरयार से रेखा की आंखों की खातिर एक पूरी गज़ल ही कहलवानी पड़ी, ‘इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं.’ बात भी सच है. और यह शम्मअ-ए फ़रोज़ा किसी आंधी से डरने वाली भी नहीं है. यकीन न हो तो किसी अमिताभ बच्चन-वच्चन से नहीं, शहरयार से पूछ लीजिए. आमीन!

साभार: sarokarnama.blogspot.in

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अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

1 COMMENT

  1. ‘अमिताभ की फ़िल्मों में हिरोइन के हिस्से कुछ बचता ही नहीं रहा है’

    यह तो कहानी और निर्देशक पर ही निर्भर करता है।
    लम्बा लेख ता, लेकिन पढा।

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