याद आती है…(कविता)

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// संजय राय //

याद आती है वो धधकती हुई
आखो की जवाला
अग्नि पथ पे बिखरे हुआ अंगारे
याद है वो जलना जलाना
खोयी हुई धुंध भरी शामो को
छुप छुप के रोना रुलाना
दूर दूर सैर को निकले दो कदम
कदमो का आहट
शांत नदी का किनारा
रौद्र समुन्द्र का गर्जन
उद्वेलित समुन्द्र की लहरे
फटती हुई छाती
पिघला हुआ दर्द
सारे बंधनों से मुक्त हो जाओ

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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