बनारसी साड़ी बनाने वाले हाथों ने अपनी ही तीन बेटियों को रेत डाला

वाराणसी के चौबेपुर के कमौली गांव का रहने वाला अहमद हुसैन एक बुनकर था। अपनी उंगलियों के हुनर से बनारसी साड़ी तैयार करता था, भूख और गरीबी से तंग आकर अपनी तीन बेटियों की गला रेत कर उसने हत्या कर दी। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में जहां पूंजी निवार्ध गति से बह रही है एक बुनकर बाप तंगहाली से परेशान होकर अपनी तीन बेटियों को हलाक कर देता है, निसंदेह सभ्य समाज के मुंह पर एक जोरदार तमाचा है। महात्मा गांधी ने चरखा के सहारे ब्रितानिया हुकूमत को जबरदस्त चुनौती दी थी, और उसके इकोनौमी को शांतिपूर्ण तरीके से हासिये पर ढकेल दिया था। गांधी के उसी देश में चरखा और करघा पर काम करने वाला एक बुनकर अपनी ही बेटियों के खून से हाथ रंगने पर मजबूर हो गया, क्या यह ग्लोबलाइजेशन या मुक्त व्यापार के तंत्र पर सवाल खड़ा नहीं करता?

बनारसी साड़ी की धमक दुनियाभर में रही है। शादी-विवाह के मौके पर बनारसी साड़ी में लिपटी हुई दुल्हन के रूप और रंग में और भी निखार आ जाता है। साथ ही बनारसी साड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रतीक है। अहमद हुसैन अपनी सधी हुई उंगलियों से करघे पर बनारसी साड़ी बनाता था। उसकी बनाई हुई साड़ी न जाने कितनी दुल्हनें पहने होंगी। इस धंधे में सुकून भी था और अच्छी आमदनी भी। अपनी पत्नी सितारा और तीन बेटियां सोनी (13), गजला (8), व मरजीना (6) के साथ उसके जिंदगी के लम्हे ठीक से गुजर रहे थे। दो साल पहले बनारसी साड़ी का धंधा मंदी की चपेट में आया और देखते-देखते हजारों बुनकर बेकार हो गये। करघे की आवाज मंदी में घुट गई और इसके साथ ही अहमद हुसैन और उसके परिवार की जिंदगी पर भी गरीब के काले बादल मडराने लगे। उसका पूरा परिवार आर्थिक तंगी का शिकार हो गया। जैसा कि हुनरमंद बुनकरों के साथ होता है, अहमद हुसैन को बुनकरी के अलावा और कुछ नहीं आता था। उसे यही तालीम दी गई थी कि उंगलियों में हुनर पैदा करो, जिंदगी आसान हो जाएगी। अपने काम में वह माहिर था। पारंपरिक पद्धति से उसने बनारसी साड़ी बुनने की कला सीखी थी और इसी के भरोसे वह अपने जीवन को बनाने संवारने का भरोसा रखता था। लेकिन उसे पता नहीं था कि महात्मा गांधी के इस देश में बुनकरों के लिए उल्टा बयार बहने वाला है।

धंधा बंद हो सकता है, लेकिन पेट की आग तो आग ही है। इस आग को शांत करने के लिए रोटी चाहिये। अपने परिवार के वास्ते रोटी का जुगाड़ करने के लिए अहमद कर्णघंटा की एक किताब की दुकान पर काम करने लगा। उसे महीने में 24 सौ रुपये मिलते थे, जो पांच सदस्यीय परिवार के लिए काफी कम थे। बदहवासी की हालत में अहमद अक्सर अपने पड़ोसियों से कहा करता था कि यदि उसकी वित्तीय स्थिति ठीक नहीं हुई तो वह अपने परिवार का खात्मा कर देगा। बढ़ती महंगाई और आर्थिक तंगी के कारण अहमद मनोवैज्ञानिक रूप से टूटता जा रहा था, और इन परेशानियों अंत उसे अपने परिवार के खात्मे के रूप में दिखाई दे रहा था। अंतत: उसने अपने परिवार को हमेशा के लिए समाप्त करने का निर्णय ले ही लिया और इस निर्णय की भनक घटना को अंजाम देने तक किसी को नहीं लगी।

अपनी बेटियों को मौत की नींद सुलाने के लिए उसने बकरा हलाल करने वाले एक बड़े से चाकू का इस्तेमाल किया। सूत और धागे पर चलने वाली उंगलियों ने चाकू पकड़ लिया और वही चाकू एक के बाद एक तीन बेटियों की गर्दन रेतती चली गई। मंगलवार की सुबह को उसने सबसे पहले बड़ी बेटी सोनी (13) का गला रेतना शुरु किया। वह चीखी चिल्लाई लेकिन पक्का इरादा कर चुका अहमद उसे मजबूती से अपनी गिरफ्त में पकड़े रहा, और तब तक उसका गला रेतता रहा, जब तक उसके दम नहीं निकल गये। इसके बाद गजाला (8) और मरजीना (6) के मुंह में उसने कपड़ा ठुस दिया ताकि वे दोनों चीख चिल्ला न सके। और फिर दोनों का गला रेत डाला। वे ठीक से चीख भी नहीं सकी। बाद में उसने अपनी पत्नी सितारा को भी मारने की कोशिश की, लेकिन वह किसी तरह से बच गई। अहमद को अपने किये पर कोई अफसोस नहीं है। उसका सपाट चेहरा और लोगों को घूरती हुई आंखें अनगिनत सवाल पेश कर रही हैं, जिनका सटीक जवाब शायद किसी के पास नहीं है।

इंस्पेक्टर रामायण सिंह रुटीन तरीके से कहते हैं, “प्रारंभिक जांच से पता चलता है कि गरीबी ने अहमद को अपनी बेटियों की हत्या करने के लिए बाध्य किया। वह अपने आप को परिवार का भरण पोषण करने में सक्षम नहीं पा रहा था।” पुलिस के समक्ष बड़ी बेबाकी से अहमद ने अपने गुनाह कबूल कर लिये हैं। अहमद को गिरफ्तार करके तीनों शवों को पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया गया है। इस गुनाह के लिए अहमद को सजा मिलेगी, जरूर मिलेगी, और मिलनी भी चाहिये। लेकिन क्या उन परिस्थितियों को खात्मा करने की पहल होगी जिन्होंने अहमद को अपने ही औलादों का कातिल बना दिया? अपनी मासूम बेटियों को बेरहमी से हलाक करने के कारण हम थोड़ी देर के लिए भावावेश में आकर अहमद को लानत मलानत भेज सकते हैं, लेकिन क्या हम इस सच्चाई से रू-ब-रू होने की हिम्मत दिखा सकता हैं कि चमकते हुये भारत की जो तस्वीर हमें दिखाई जा रही है, उसकी नींव में अहमद जैसे हुनरमंद बुनकर कराह रहे हैं ? बनारसी साड़ी बनाते हुये अहमद के जेहन में भी यह ख्याल जरूर आया होगा कि एक दिन उसकी बेटियां भी इन्हीं बनारसी साड़ी में अपने पिया के साथ विदा होंगी। कानून मैकेनिक्ल तरीके से अहमद की प्रोसेसिंग करेगा, उस पर अपनी ही बेटियों की हत्या के दफा चलाए जाएंगे, जेल भेजा जाएगा, मुमकिन है उसे फांसी भी हो जाये। और यह भी संभव है कि सजा के पहले अहमद को अपनी गलती का अहसास हो, और रोने के लिए उसे कंधे भी नसीब न हो। लेकिन असल सवाल है चमकते हुये भारत के नीचे फैली हुई व्यापाक गरीबी कैसे दूर होगी? अभी किसानों के सामूहिक आत्महत्या का सिलसिला थोड़ा थमा है, लेकिन बुनकर अहमद का यह कदम उन तमाम संगठनों पर प्रश्नचिन्ह लगाता है जो भारत के उत्थान में दिन रात एक करने का दावा करते हैं। सवाल यह है कि अहमद ने अहमद ने अपनी बेटियों को क्यों मार डाला ? जवाब है गरीबी के कारण। जिस देश में एक बुनकर बाप अपनी तीन-तीन बेटियों को गरीब के कारण मार डालता है, वह देश महान कैसे हो सकता है?

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