चलो कही दूर चले (कविता)

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संजय राय की तीन कविताएं

1

चलो कही दूर चले
सागर की लहरों से खेले
हवाओ से बाते करे
और मोतियो को चुने
चलो बालू के किले बनाये
और मिटटी की हाथियों से रौदे
आओ शेख चिल्ली की तरह सपने देखे
सपनो के जाल में उगलिया पिरोये
आओ बरसाती पानी में कागज की नाव चलाये
और आवारा मेघों को कोसे

2

भूख कितनी गंदी होती है
जब ये पेट से नीचे उतरती है
और जिस्म से गरीबी का सौदा करती है
और जब ये पेट से ऊपर चढती है
गुनाहों से दोस्ती करती है
ये जब कभी रुक रुक के मचलती है
सांसो से मौत का सौदा करती है
उन्हें क्या पता भूख का कहर कैसा
माँ बच्चे को बेचने आई अब ये रहम कैसा
ये तिजारत है भूख का कोई अफसाना नही
तम्हे तो शौक है उपवास रखने का
मुझे मालूम है भरम कैसा

3

आओ अपना माथा पथरो पे फोड़े
अपने लहू का रंग देखे
आओ भूख के साथ खेले
और आतो की सिसकिया सुने
आओ रोए चिलाये और बेबसी में
अपने नाखूनों से अपना चेहरा खरोचे
किसी गैर के भूख की सोचे
और अपने उदार में नागफनी सीचे
आओ बदनसीबी के गीत गाये
और मदमाते सावन की फिजाओ को कोसे
आओ नरक में चले और नरक ही भोगे

***

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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