‘क्या से क्या हो गईं कैथर कला की औरतें’

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अरुण नारायण //
‘हर तरह के यथास्थितिवाद और पितृसत्ता से विद्रोह बिहार की महिलाओं की खास
पहचान रही है। यह हमारी विरासत रही है। महिलाओं की बेहतरी के लिए अलग-अलग दौर
में यहां कई तरह के आंदोलन चले। उनके मूल में हर समय सामंती मूल्य जड़ जमाए रहे
, जिसको आजादी के पहले महिलाएं झेलतीं थीं। लेकिन सतर का दशक  आते-आते ये
पुरातन मूल्य तिरोहित होने लगे जब किसान आंदोलन की एक नई लहर भोजपुर से शुरू
हुई।’’ ये बातें भाकपा माले की महिला इकाई ऐपपा की मीना तिवारी ने कहीं।   ‘
बिहार का सौ साल स्त्री परिप्रेक्ष्य में’ के नाम से केंद्रित दो दिवसीय
सेमिनार में  बिहार सहित देशभर के कई विद्वान एवं राजनीतिक प्रतिनिधियों ने
संबोधित किया।  साऊथ एशिया वीमेन इन मीडिया (स्वाम)  स्त्रीकाल का प्रकाशन
करने वाली संस्था  डी मार्जिनलाइज्ड , ऐन इंस्टिट्युट  फार आल्टरनेटिव
रॆसेर्चेज एंड मीडिया स्टडीज ( एम् आई आ आर एम् एस ) तथा स्त्री अध्ययन केंद्र
, पटना वि वि के संयुक्त प्रयत्नों से यह आयोजन संपन्न हुआ, जिसे समर्थित किया
था ऑक्सफैम ने।

मीना तिवारी ने अपने संबोधन में बिहार में हुए महिला आंदोलनों के ठोस अनुभवों
को संक्षिप्त किंतु तार्किक नजरिए से बयां किया। उन्होंने कहा कि बिहार में
यदपि स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में भी किसान आंदोलन चले लेकिन 70के
दषक में आरंभ हुए भोजपुर किसान आंदोलन में किसान और महिलाएं संगठित ताकत के रूप
में उभरती हैं। यह आंदोलन जाति,वर्ग और लिंग-इन तीनों सवालों को एड्रेस करता
है। यहां गरीब महिलाएं मजदूरी वृद्धि की मांग करतीं हैं तो तो ताकतवर सामंत और
पुलिस सामने आती है। इन्हीं स्थितियों को लक्ष्य करते गोरख पांडे ने ‘क्या से
क्या हो गईं कैथर कला की औरतें’ जैसी स्त्री संवेदना की तरल कविताएं लिखीं।
मीना तिवारी ने 74 में हुए बिहार आंदोलन की चर्चा की। कहा कि ये दोनों ही
आंदोलन अपने भीतर औरतों  के सवाल को एक राजनीतिक प्रश्न बनाती हैं। यही वह दौर
है जब विभिन्न क्षेत्रों से ढेर सारे स्त्री संगठन अस्तित्व में आते हैं और 88
में ‘रास्ट्रीय महिला सम्मेलन की मेजबानी पटना से होती है। लेकिन अस्सी के दशक
में ही शिलापूजन और बाबरी मस्जिद के विरोध में भी महिला संगठन आते हैं जो देश
में नफरत फैलाने की भावना को बुलंद करते हैं। आगे इसका चरम हमें रूपमती सती
प्रकरण और साहवाणों प्रकरण में दिखलाई देता है। इन्हीं सब चिंताओं से जूझने की
कोशिस 92 में हुए दक्षिण विरोधी कन्वेंशन में हमें दिखलाई पड़ता है। मीना तिवारी
ने माना कि सत्ता में बैठे लोग स्त्री के मामले में हर तरह का यथास्थितिवाद
टिकाए रखने के लिए काम करते हैं। लक्ष्मण रेखा की बात आज नई नहीं हो रही। यह
इसलिए बनाई गई ताकि कोई सीता निर्णय न ले। उन्होंने स्पष्ट कहा कि यह जो
बाध्यता बन गई है उसे बिहार की औरतों ने लगातार तोड़ा है। सीमा रेखा की यह
रस्साकसी तब तक चलेगी जब तक यह रेखा पुरूषों के निर्धारित मानक तक नहीं पहंुच
जाती।
बिहार के राजनीतिक क्षितिज की चर्चा करते हुए मीना तिवारी ने कहा कि यहां
महिलाओं को वोट का अधिकार तो मिल गया लेकिन हकीकत यह है कि उन्हें बूथ तक जाने
नहीं दिया जाता था। दो-चार जातीं भी थीं तो उन्हें बता दिया जाता था कि उन्हें
कहां वोट डालना है। 1952 में चार प्रतिशत महिलाएं वोट करती थीं। 89 से पहले तक
उनका यह प्रतिषत 43 तक आया। 89 में उनकी यह भागीदारी 50 प्रतिषत दर्ज की गई। यह
सब एक दिन में यूं ही नहीं हो गया आई पी एफ ने एक मुहिम की चलाई, ‘बूथ लूटेरों
होशियार’ महिलाआंे के बीच कैंपेन चलाए गए। इसकी एक बड़ी कीमत चुकायी गरीब
महिलाओं ने तब जाकर सतह पर इतनी बड़ी उनकी भागीदारी दर्ज हुई। मीना ने 2006 के
चुनाव में महिलाओं की 50 प्रतिषत हुई सुनिष्चित भागीदारी को सराहनीय बतलाया
लेकिन यह भी इतिला की कि वे रबर स्टांप न बनें और अपनी भूमिका निभाएं।

सौ वर्षों  के बिहार में स्त्रियों के विकास का क्या ट्रेंड  रहा है? इन वर्षों
में क्या रही है इनकी विकास, विनाश या संक्रमणकालीन स्थितियां, परिस्थितियां?
मिथकों, परंपरा एवं आधुनिकता ने उनके साथ किस तरह का सलूक किया है? राजनीति,
समाज और मीडिया के मोर्चे पर क्या हैं उनके यथार्थ-इन सवालों पर पटना के ए एन
सिन्हा संस्थान में ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों से आए लगभग दो दर्जन वक्ताओं ने
दो दिनों के चार सत्रों में अपनी चिंताएं साझा की।  पहले सत्र ‘राजनीति और
स्त्रियाँ : भागीदारी के सवाल ’ पर आधारपत्र बिहार की वरिष्ठ पत्रकार निवेदिता
ने पढ़ा। रमणिका गुप्ता की अघ्यक्षता में संपन्न हुए इस सवाल को जमीनी नारीवादी
ऐनी राजा, किरण घई, प्रेमकुमार मणि, मीना तिवारी, रामपरी और सुशीला सहाय ने अलग-
अलग धरातल पर विश्लेषित किया। ऐनी राजा ने कहा कि दिल्ली गैंग रैप के बाद
स्त्रियों पर जितनी चर्चाएं हो रही हैं वे उनके सेक्सुअल हिंसा तक ही सीमित है।
उन्होंने कहा कि स्त्रियों के प्रोटेक्शन और संरक्षण के जो रास्ते हैं वे सभी
यथास्थितिवाद की गर्क में हैं। उन्होंने कहा कि दिल्ली गैंप रैप पर मोमबती
जलाना अच्छी बात है लेकिन देश के दूसरे हिस्सों में बलात्कार की ढेरों घटनाएं
हो रही हैं उस पर चुप्पी खतरनाक है। उन्होंने मीडिया के वर्गीय ढांचे की चर्चा
करते हुए सवाल उठाए कि हम किस मीडिया की बात कर रहे हैं और कौन-सी स्त्री
हमारी चिंताओं में है आखिर हम किस परिवर्तन के वाहक हैं? उन्होंने कहा कि सरकार
ने राशन में भी बी पी एल और ए पी एल का विभाजन कर दिया और अब वह राशन भी खत्म
करने पर आमादा है। उन्होंने कहा कि महिलाओं को दूसरे किस्म का जो दर्जा है उससे
तभी मुक्ति मिलेगी जब समाज, राजनीति और लोगों की सोच बदलेगी। भाजपा के विधान
पार्षद किरण घई ने माना कि अतीतकालीन बिहार में पर्दाप्रथा और रूढ़िवादिता
स्त्रियों के विकास में मुख्य अवरोधक  रहे। उन्होंने कहा कि आजादी के आंदोलन
से लेकर ‘बिहार आंदोलन’ तक में स्त्रियों ने हिस्सा लिया लेकिन सत्ता की
हिस्सेदारी में उनकी अनदेखी हुई। राजनीतिक दलों की स्त्री विषयक एप्रोच की
चर्चा करते हुए श्रीमति घई ने कहा कि जिन दलों में स्त्री समानता की बात कही जाती
है वहां भी उनकी घोर उपेक्षा होती है। उन्होंने कहा कि भाजपा में संगठन के स्तर
पर 21 प्रतिशत महिला आरक्षण है, लेकिन यह टिकट देने के स्तर पर नहीं है। बिहार
में पंचायत स्तर पर महिलाओं की हो रही हिस्सेदारी की चर्चा करते हुए उन्होंने
कहा कि यह महिला लिडरशीप के लिए नर्सरी बन जाएगी। आने वाले सालों में इसका ठोस
प्रभाव समाज पर दिखेगा। हालांकि उन्होंने आशंका भी दुहराई कि क्या उन महिलाओं
को उनके घर में ही यह दावा करने दिया जाएगा क्या? उन्होंने मुखिया पति के रूप
में बिहार में आए ट्रेंड को घातक बतलाया। स्त्रिायों की गुणवतापूर्ण भागीदारी
सुनिश्चित हो इसके लिए उन्होंने दलगत घेरेबंदी से उपर उठकर व्यापक संघर्ष की
रणनीति बनाने की बात कही।

प्रेमकुमार मणि ने मौजूदा बिहार की राजनीति में बिहार की महिलाओं की निराशाजनक
उपस्थिति से संदर्भित आंकड़े दिए। बतलाया कि 75 सदस्यों वाली बिहार विधन परिषद
में महिलाओं की संख्या 4 है, 243 सदस्यों वाली विधन सभा में उनकी संख्या 33,
16 सदस्यों वाली राज्यसभा में उनकी उपस्थिति नगण्य है जबकि 40 सदस्यों वाली
लोकसभा में उनकी संख्या 5 है जिसमें 4 विधवा स्त्रियां हैं। श्री मणि ने कहा
कि सामाजिक पिछड़ेपन को दूर किए बिना लोकतंत्र स्थापित नहीं हो सकता। मणि ने
यूरोपीय समाज का जिक्र करते हुए कुछ दृष्टांतों के सहारे बतलाया कि जिस तरह   आधुनिक राष्ट्र मानते हैं वहां के समाज में भी लैंगिक असमानता कई वर्षों के
संघर्ष के बाद दूर हुई।

रामपरी ने कहा कि आजादी की लड़ाई में बिहार से मेनका देवी, स्वरूप देवी, हुंकारी
देवी आदि कई महिलाओं ने शहादत दिया लेकिन समाज में उनकी स्थिति उपेक्षा की ही
रही। भ्रूण हत्या, डायन और दहेज उत्पीड़न की घटनाएं कानूनी प्रावधनों के बाद भी
जारी रही। उन्होंने इस सब का मूल कारण बिहार में सामंती अवशेष व सरकार की
जनविरोध्ी प्रवृति को बतलाया। उन्होंने माना कि जब तक 33 प्रतिशत आरक्षण लागू
नहीं होगा तब तक पुरूषवादी वर्चस्व खत्म नहीं होगा।

सुशीला सहाय ने कहा यह सघर्ष में महिलाओं के शामिल होने का ही परिणाम था कि
उन्हें वोट का अधिकार मिला। संविधन ने हर पहलू से स्त्रियों को अधिकार
सुनिश्चित किए। लेकिन परिवार से लेकर जीवन के तमाम क्षेत्रों में पुरूषवादी
मानसिकता ने कहीं परंपरा के नाम पर तो कहीं नैतिकता को हवाला देकर स्त्रिायों
को दबाया। सरकार ने स्त्रियों के लिए सामाजिक सुरक्षा को कुछ चारे जरूर डाले
लेकिन वह भी भ्रष्ट्राचार की भेंट चढ़ गया। कर्पूरी ठाकुर ने महिलाओं के लिए 3
प्रतिशत आरक्षण किया जिसे लालू प्रसाद की सरकार ने बाद के दिनों में पिछले वर्ग
की महिलाओं के लिए कर दिया। आर्थिक आजादी ही महिलाओं को सशक्त कर सकती है इसके
लिए व्यापक गोलबंदी के साथ आंदोलन ही एक रास्ता दिखता है।

दलित एवं स्त्री विमर्शकार रमणिका गुप्ता ने भारतीय समाज की सेक्स विषयक
एप्रोच की चर्चा करते हुए कहा कि बिहार में आदिवासी इलाके भी हैं लेकिन
मुख्यधारारा का जो बिहारी समाज है वह उससे भिन्न है। इसका संकट गहरा है इसने
विक्टोरियन एज की नैतिकता का अपनाया इसलिए इसके स्टेंडर भी डबल हो गए। यहां पर
सबसे ज्यादा संकट मघ्यवर्ग की स्त्रिायांे के पल्ले आया। निम्न वर्ग की
स्त्रिायां इनसे भिन्न थीं। वह अपना विवाह स्वयं कर सकती थीं, पति से संबंध्
विच्छेद कर सकती थीं। पवित्राता एवं शुचिता की बनी-बनायी घेराबंदी नहीं थी उनके
सामने। एक छात्रा के यह पूछे जाने पर कि महिलाओं का आरक्षण क्यों? रमणिका जी ने
कहा कि समाज ने आपके साथ जाति और लिंग के आधर पर दोयम दर्जा बना रखा है। आप
सक्षम तो हैं, अवसर नहीं दिया जाता। कोई बीमार हो जाए तो उसको अलग से भोजन दिया
जाता है। आरक्षण इसीलिए जरूरी है। उन्होंने कहा कि सरकारें कानून तो बना देती
हैं लेकिन न तो दलित के सवाल पर और न ही स्त्राी के सवाल पर उसे लागू करती हैं।
यह बदलाव कानून से संभव नहीं इसके लिए परिवार नामक संस्था में भी भारी बदलाव की
जरूरत है।

पारिवारिक हिंसा की चर्चा करते हुए रमणिका जी ने कहा कि परिवार निर्माण का ठेका
सिपर्फ महिलाओं पर थोप दिया जाता है। परिवार का मतलब सिपर्फ स्त्राी नहीं होती
पुरूष भी होता है लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ममता का सारा ठेका स्त्राी को
सौंप दिया जाता है। भारतीय समाज की यह बड़ी बिडंबना है कि वह स्त्राी को मित्रा
दोस्त या बराबरी का दर्जा ही नहीं देना चाहता। वह या तो उसे देवी मानता है या
दासी। अगर वह राजनीति में चली गई और शक्ति आ गई तो देवी हो गई और स्थापित
परंपरा और घर की चहारदीवारी से बाहर निकलने की कोशिश की तो कुल्टा हो गई। उसे
साथी बनाने की सलाहियत भारतीय समाज नहीं देता। वह उसे दो नंबर का नागरिक मानता
है। स्त्री का नाम नहीं है, वह किसी की मां या बहू के नाम से ही पहचानी जाती
हैं उन्हें पूरी तरह से कंडीशंड कर दिया गया है।

कोयला खादानों में जब छंटनी की बारी आयी तो उसका सबसे बुरा परिणाम महिलाओं ने
भुगता। इसके लिए महिला संगठनों ने लड़ाई लड़ी कि रात पाली में महिलाओं को काम
दिया जाए ताकि छंटनी की शिकार होने के संकट से वे उबरें। रमणिका जी ने बिहार
विधन सभा एक अहम अनुभव साझा किया। कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी संपति में
आदिवासी औरतों को हक देने की बात कही थी लेकिन बिहार विधान सभा में इस लागू
करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि हमारी कोशिशों से बिहार विधन परिषद में
औरतों को गार्जियन बनने के सवाल पर विधेयक बनने का प्रस्ताव रखा गया। रमणिका
जी ने कहा कि बिहार में विस्थापन, लैंगिक असमानता, कोयला खदान आदि कई तरह के
आंदोलनों में हमारी हिस्सेदारी रही है कई मामले में कोर्ट ने हमारे पक्ष में
पफैसला दिया लेकिन हिस्सेदारी अर्थात नेतृत्व का जब भी सवाल आया पुरूषवादी
मानसिकता आड़े आयी।

पहले दिन की दूसरी पारी के विषय ‘विकास की राजनीति व स्त्रिायां’ विषय की
अघ्यक्षता व संचालन सविता सिंह ने किया। मुख्य अतिथि थे उपमुख्यमंत्राी सुशील
कुमार मोदी। इस सत्रा को डेजी नारायण, विजय कुमार, श्रीकांत, मणिका चोपड़ा,
स्वाति भटाचार्य और अयुब राणा ने संबोध्ति किया। । उन्होंने सौ साल में बिहार
में स्त्राी समाज के विकासक्रम को व्यवस्थित ढंग से रखा। उन्होंने कहा कि
महिलाओं की सक्रिय भागीदारी के वगैर हमारी आजादी अधूरी है। स्त्रियों को अपने
संघर्ष का इतिहास स्वयं लिखना होगा।

सुशील कुमार मोदी ने बिहार विधान  परिषद में 1921 में पेश किए गए महिला
मताध्किार का वह ऐतिहासिक प्रसंग सुनाया जिसे तीसरी बार सपफलता मिली। उन्होने
कहा कि इस प्रस्ताव में कहा गया था कि महिलाओं को मताध्किार दिया जाए। इसके
पक्ष में उस समय 21 मत दिए गए थे और विपक्ष में 31 मत। बिहार के बड़े-बड़े लोगों
ने इसका विरोध् किया। 1925 में पुनः यह प्रस्ताव लाया गया इस बार इसके समर्थन
में 18 वोट और विरोध् में 32 वोट मिले। तीसरी बार यह प्रस्ताव 1929 में पेश
किया गया जो 47 लोगों के समर्थन वोट के बाद पास हुआ। उस समय इसके विरोध् में14
वोट गिरे थे। इन प्रसंगों का हवाला देने के बाद श्री मोदी ने सवाल उठाया कि इस
घटना के 90 साल बाद भी महिलाएं कहां खड़ी हैं? मोदी ने माना कि समाज सुधर का जिस
तरह का आंदोलन महाराष्ट्र, बंगाल और आसाम में हुआ वह अपने बिहार में नहीं हुआ।
इसी कारण लैंगिक असमानता और सामाजिक गैर बराबरी की विषम खाई उक्त प्रातों की
अपेक्षा अपने यहां ज्यादा है। मोदी ने कहा कि आज से 50-60 साल पहले पर्दाप्रथा
और कम उम्र में लड़कियों की शादी बिहार के लिए सामान्य बात थी। औरतों की स्थिति
को प्रभावित करने में आर्थिक स्थितियां भी महत्वपूर्ण राल निभाती हैं। बिहार के
पंचायतों में महिला को 50 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के प्रसंग की चर्चा करते हुए
मोदी ने कहा कि समाज में जो काम सौ सालों में नहीं होता राजनीति उसे एक झटके
में संभव कर देती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा, संपति और सत्ता में महिलाओं को
उचित भागदारी दी जाए तो उनका सशक्तीकरण तेजी से होगा। बलात्कार के कारणों का
जिक्र करते हुए मोदी ने कहा कि समाज जिसको कमजोर समझता है अत्याचार वहीं ज्यादा
होता है। उन्होंने माना कि इसके लिए कठोर कानून बनाया जाए और समय सीमा पर मामले
का निष्पादन हो। डॉ लोहिया की चर्चा करते हुए मोदी ने कहा कि वे पहले राजनेता
थे जिन्होंने सभी वर्ग की महिलाओं को पिछले वर्ग में शामिल करने की वकालत की।

पत्राकार श्रीकांत ने कहा कि हम एक एक पुरूषप्रधान  समाज में रहते हैं जहां घर
की शुरूआत ही पुरूष हिंसा से होती है। स्वतंत्र स्त्री को कोई पुरूष स्वीकार
नहीं करता। उन्होंने कहा यह वही राज्य है जहां कांउसिल में स्त्रिायों को वोट
देने के सवाल को तीसरी बार मंजूरी मिलती है। बिहार में अभी भी 18 साल से कम
उम्र की शादियां हो रही हैं। दिल्ली के रेप कांड की चर्चा करते हुए श्रीकांत ने
कहा कि बिहार के किसी अखबार ने उक्त लड़की के घर जाकर खबर छापने की पहल नहीं की।
एक स्थानीय पत्राकार औरंगाबाद से  ही लौट आया। इस घटना की विश्व भर में चर्चा
हुई। न्यूयार्क टाइम्स ने पटना के एक अंग्रेजी पत्राकार से लड़की के गांव से
रिपोर्ट लिखवाई। श्रीकांत ने इस घटना के प्रसंग का उल्लेख करते हुए बतलाया कि
यह हमारे नजरिए को बतलाता है कि यहां मीडिया किस तरह पुलिस रिपोर्ट और इध्र-
उध्र की घटनाओं पर आश्रित है। बाजारवाद और स्त्री के सवाल की चर्चा करते हुए
श्रीकांत ने माना कि हर जगहों पर औरत को बिकाउ माल बनाकर बेचा जा रहा है।
श्रीकांत ने कहा कि बिहार में बैंकों में 7 प्रतिशत और अखबारों में एक प्रतिशत
महिलाएं काम करती हैं। यह इस बात का द्योतक है कि जीवन का हर क्षेत्रा लैंगिक
भेदभाव से भरा हुआ है। उन्होंने कहा कि बिहार में रैयती सुधरों का कोई पफलापफल
नहीं निकला। बंटाईदारी कानून पर विधान सभा में कोई मैंडेट नहीं, आरक्षण और
सामाजिक न्याय का भी बुरा हाल है। यह पूरी तरह से सामंती जकड़न वाला स्टेट है।
उन्होंने कहा कि किसी तरह लड़ते-भिड़ते महिलाओं ने पंचायत में आरक्षण पा लिया,
लेकिन आज क्या हो रहा है मीटिंगों में मुखिया पति हिस्सा लेते हैं। सोसाइटी के
निचले तबके से एक हिस्सा ऐसा आया है निचले हिस्से का जिस पर आशावान हुआ
जा सकता है।
भागलपुर वि वि के डा विजय कुमार ने पंचायत में महिला प्रतिनिधित्व पर बात की
और कहा की उनके होने से ‘विकास की राजनीति ‘ में महिलाओं का हस्तक्षेप सम्भव
हुआ है .

दिल्ली से आयीं पत्राकार मणिका चोपड़ा ने अंग्रेजी में लिखित पर्चा पढ़ा।
मीडिया कवरेज में स्त्री हिंसा और उसके वर्गीय चरित्र से जुड़े कई प्रसंगों
का स्त्रीवादी पाठ उन्होंने किया। उन्होंने कहा कि आरुषि, हेमराज मर्डर केस
में मीडिया ने  मानवाधिकार की धज्जियां उड़ायी। उन्होंने गुरुदासपुर, छतीसगढ
और दूरदर्शन के न्यूज कवरेज से जुड़ी कई बारीकियों को उठाया। उन्होंने सोशल
मीडिया की ताकत और उसकी तात्कालिकता में निहित सीमाओं पर पर अपने विचार दिए।
आनंद बाजार पत्रिका की मुख्य संवाददाता स्वाति भट्टाचार्य ने महिला हिंसा से
जुड़ी खबरों को किस तरह पेश करे एक कस्बाई पत्राकार, इस विषय  की कई बारीकियों
पर रौशनी डाली। सत्र की अध्यक्ष इग्नू के जेंडर स्टडीज विभाग की प्रोफ़ेसर और
प्रसिद्द कवयित्री सविता सिंह ने पूंजीवादी विकास के महिला विरोधी रुख पर बात
की . उन्होंने ‘ श्रम के स्त्रीकरण ‘ की हकीकत को खोला वही महिला आन्दोलनो के
समक्ष यह लक्ष्य भी रखा कि बाजार और पूँजी के द्वारा ‘रिश्तों के कमोडिफिकेशन
‘ से बचने -बचाने का स्त्रीवादी प्रयास जरूरी है। दोनों सत्रों को जब बहस के
लिए खोल गया तो बड़ी संख्या  में विभिन्न महाविद्यालयों और पटना वि वि के
छात्रों सहित अन्य भागीदारों  ने विचारोत्तेजक सवाल और टिप्पणियां की।

दूसरे दिन के पहले सत्र में ‘ राज्य की सामाजिक सांस्कृतिक संरचना में
स्त्रियों की भूमिका ‘ विषय पर अध्यक्षता इतिहास की प्रोफ़ेसर एस भारती कुमार
ने की और वक्ताओं में लेखिका एवं समाजकर्मी अनीता भारती , संस्कृतिकर्मी
अविनास दास , वरिष्ठ लेखिका उषा किरण खान , लेखिका और चिन्तक रमणिका गुप्ता
, वरिष्ठ पत्रकार रजनी शंकर और मगध वि वि के स्त्री  अध्ययन केंद्र की
प्रोफ़ेसर कुसुम कुमारी उपस्थित थीं . इस सत्र में वक्ताओं ने अपने अनुभव और
सैद्धांतिकी के मिश्रित फ्रेम में बात की और राज्य की सामजिक सांस्कृतिक
संरचना में स्त्रियों की भूमिका, उनकी उपस्थिति, उनके संघर्ष और उनकी
समस्यायों पर बात की। अनीता भारती ने जहाँ बिहार को बौद्ध थेरियों  की भूमि के
रूप में चिह्नित किया वहीं प्रोफ़ेसर एस भारती कुमार ने इतिहास से स्त्रियों के
एक्सक्लूजन और पुरुषों के कब्जे की बात की। उषा किरण खान ने थियेटर में
स्त्रियों पर प्रकाश दाल तो अविनास दास ने अपनी आगामी फिल्म के स्क्रिप्ट के
जरिये विकास की बलि चढ़ गई आदिवासी महिला की बात की।

चौथे और अंतिम सत्र में ‘ स्त्री के प्रति हिंसा और मीडिया ‘ विषय की
अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार गायत्री शर्मा ने किया , मुख्य अतिथि थीं बिहार के
समाज कल्याण मंत्री ‘ परवीन अमानुल्लाह  . वक्ताओं में वरिष्ठ पत्रकार और
चिन्तक अनिल चमडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स के पटना संस्करण के संपादक मेमन
मैथ्यू , शुक्रवार के वरिष्ठ उपसंपादक स्वतंत्र मिश्र और तहलका के बिहार
ब्यूरो , निराला ने भागीदारी की। इस सत्र में अनिल चमडिया ने शोध आंकड़ों के
साथ मीडिया में महिलाओं की नगण्य भागीदारी पर बात की तो महिलाओं के प्रति
हिंसा की रिपोर्टिंग के विविध पहलुओं पर मेमन मैथ्यू और गायत्री शर्मा तथा
निराला ने बात की। स्वतंत्र मिश्र ने महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा के
सांस्कृतिक कारणों और मीडिया की भूमिका पर अपनी बात रखी . यह सत्र गरमागरम बहस
का सत्र रहा। वक्ताओं, श्रोताओं ने मीडिया पर सत्ता के नियंत्रण पर काफी बेवाक
बहस की। उल्लेखनीय थी  बिहार सरकार की मंत्री की उपस्थिति में सरकार की कटु
आलोचना। मुख्य अतिथि परवीन अमानुल्लाह ने कहा कि ‘ कठोर पुलिसिंग अथवा फांसी
की सजा मात्र से महिलाओं के प्रति हिंसा को नहीं रोक जा सकता है , इसके लिए
जरूरी है सामजिक सांस्कृतिक स्तर  पर जेंडर विभेद की पहचान और उसका निदान ‘.
उन्होंने कहा कि जरूरी है कि स्त्रियों की शिक्षा का उद्देश्य बदल जाय उनकी
शिक्षा का उद्देश्य एक अच्छी  पत्नी या मां  भर बनाना न हो। चार सत्रों की
समीक्षा प्रस्तुति स्त्रीकाल के सम्पादक और आयोजकों में से एक संजीव चन्दन ने
किया। उन्होंने कहा कि ‘चार सत्रों में विभाजित इस सेमिनार में विभिन्न
विचारधाराओं के वक्ताओं ने शिरकत किया। दो दिनों तक 200 से अधिक भागीदारों ने
बिहार के सन्दर्भ से स्त्रीवादी मुद्दों के विविध पहलुओं पर बहस में भाग लिया
. माहौल था कि सरकार के मंत्रियों , खुद उपमुख्यमंत्री सहित , को अपनी सरकार
की भी आलोचना सुननी पड़ी और खुद भी कठोर हकीकतों को कहना पड़ा .

लेखक साहित्यकार और समाज-कर्मी हैं, पटना में रहते हैं।)

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