हिंसा में झुलस रही ‘अरब क्रांति’

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दो वर्ष पूर्व अरब जगत के एक कोने में स्थित मुल्क ट्यूनिशिया से  शुरु हुआ विद्रोह देखते-देखते अपने पड़ोसी मुल्क मिस्र को भी अपनी चपेट में ले लिया था। इसका सबसे खतरनाक हिंसात्मक रूप लीबिया में देखने को मिला था, जिसने कर्नल गद्दाफी के लंबे क्रूर शासन का अंत कर दिया। ट्यूनिशिया की आग बहरीन और यमन में धधक उठी थी। सीरिया में यह लड़ाई अपने खूनी रूप में आज भी लड़ी जा रही है। अरब के अमूमन सभी मुल्कों ने इसकी तपिश महसूस की है। अरब की लेबोरटरी में घटने वाली इन ऐतिहासिक घटनाओं को टटोलना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि हिंसा की आग में झुलसने के बाद ‘स्वतंत्रता’ कहां खड़ी है और इसका मुस्तकबिल क्या है।
जिन मुल्कों में क्रांति की जीत हुई है, वहां पर राजनीतिक बदलाव का दौर जारी है। अपनी पहचान और आर्थिक समृद्धि के लिए ये मुल्क आज भी विभिन्न महाज पर जूझ रहे हैं। इन मुल्कों को सबसे बड़ी चुनौती धार्मिक मोर्चे पर मिल रही है। लीबिया में गद्दाफी के तख्तापलट के बाद से अरब में हथियारबंद लड़ाकों की एक नई कौम सामने आई है जिसने अरब जगत में थर्राहट पैदा कर दी है। इसके साथ ही शिया और सुन्नी का संघर्ष भी सतह पर खुलकर दिखाई दे रहा है। शियाओं का नेतृत्व ईरान के हाथ में है तो सऊदी अरब के नेतृत्व में सुन्नी अपने वजूद की हिफाजत के लिए अमेरिका की तरफ आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं, और अमेरिका से इन्हें मनमाफिक मदद भी मिल रहा है, यह दूसरी बात है अमेरिका के ‘हथियार कारोबारी’ इस नाजुक स्थिति  लाभ उठाकर जमकर पैसा बना रहे हैं। बहरीन में सऊदी अरब शियाओं के हिंसात्मक प्रतिरोध को दबाने के लिए वहां की हुकूमत की खुलकर मदद कर रहा है। इसी तरह सीरिया में सुन्नी विद्रोही ईरान परस्त राष्टÑपति बसर अल असद की हुकूमत को गंभीर चुनौत दे रहे हैं। सीरिया में बसर अल असर की हुकूमत मुख्य रूप से अलाविते शिया समुदाय की मजबूत गोलबंदी पर टिकी हुई है।
अधिकांश अरब आबादी इस बात को लेकर गर्व महसूस कर रहे हैं कि अब उन्हें अभिव्यक्ति की आजादी हासिल हो चुकी है। वे सड़कों पर उतर कर गलत कार्यों का विरोध कर सकते हैं। दुर्दान्त तानाशाहों के अंत के साथ कानून के शासन के युग की शुरुआत हो चुकी है। लेकिन लंबे समय से हिंसाग्रस्त अरब जगत को इसकी कीमत भी चुकानी पड़ रही है। ट्यूनिशिया और मिस्र में विद्रोह की मुख्य वजहें थी बेरोजगारी, गरीबी और जरूरी सामान की कीमतों में बेतहाशा इजाफा। यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। बदस्तूर हिंसा की वजह से ट्यूनिशिया और मिस्र में पर्यटक और विदेशी निवेशक नहीं आ रहे हैं, जिसकी वजह से यहां के लोगों की माली हालत आज भी चरमराई हुई है। ट्यूनिशिया के लोगों का कहना है कि हमारा मूल मांग काम और सम्मान है, लेकिन इस्लामिक शासन में ये दोनों चीजें हमें मयस्सर नहीं हैं। हमें उनमें यकीन नहीं है। हमें नहीं लगता कि क्रांति के लक्ष्यों को वे हासिल कर पाएंगे। ट्यूनिशिया में पिछले सप्ताह ही विरोधी दल के एक नेता चौकरी बेलेड की हत्या कर दी गई थी। ट्यूनिशिया में विद्रोह के बाद की यह एक अहम घटना है। इससे इस्लाम परस्त सरकार के प्रति लोगों में अविश्वास और बढ़ा है। ट्यूनिशिया में उदारवादी और सेक्यूलर शक्तियां मजबूत विपक्ष की भूमिका में है और इनका लक्ष्य ट्यूनिशिया में एक उदारवादी शासन की स्थापना करना है। इनका मानना है कि ट्यूनिशिया की इस्लाम परस्त यहां के नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का तो हनन कर ही रही है, बेरोजगारी और भुखमरी जैसे मसलों को भी हल कर पाने में नाकाम साबित हो रही है। ट्यूनिशिया अभी बदलाव के दौर से गुजर रहा है। ह्यूमैन राइट्स वाच के ऐरिक गोल्डस्टीन कहते हैं कि इन क्रांतियों को लंबी अवधि के नजरिये की जरूरत है। यह सोचना गलत है कि मात्र दो वर्ष में ही ये मुल्क डेमोक्रेसी के रास्ते पर दौड़ने लगेंगे। 25 वर्ष की तानाशाही की अनदेखी नहीं की जा सकती है। भय और घृणा के माहौल ने सबकुछ तहस नहस कर रखा है।
सुसंगठित इस्लामिक समूह जैसे मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड और ट्यूनिशिया में इनहदा पार्टी इन मुल्कों में विद्रोह के बाद चुनाव जीतने में सफल रही हैं, हालांकि विद्रोह की शुरुआत इन्होंने नहीं की थी। ये पार्टियां लंबे समय से यह प्रचार करती आ रही थी कि तमाम समस्याओं का एक मात्र समाधान इस्लाम है और इस प्रचार का लाभ इन्हें इंतखाबात में मिला। अब लोगों में इन पार्टियों के प्रति गुस्सा बढ़ता जा रहा है क्योंकि वे महसूस कर रहे हैं कि इन क्रांतियों से उनके जीवन में कोई बदलान नहीं आया है। बेरोजगारी और भुखमरी से उन्हें आज भी  जूझना पड़ रहा है। मजे की बात है कि इन मुल्कों में तथाकथित आधुनिक इस्लामिक पार्टियों को कट्टर इस्लामिक ‘सलाफिस’ के दबाव का सामना करना पड़ रहा हैं, जो मुल्क के कानून को पूरी तरह से इस्लामिक कानूनों पर बनाने अड़े हुये हैं। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए कुछ ‘सलाफिस’ हिंसा का भी सहारा लेने की वकालत कर रहे हैं। एक इस्लाम विरोधी फिल्म की वजह से ट्यिूनिस, कैरो और बेनघाजी में अमेरिकी कूटनीतिज्ञों पर हमला इसी खतरे को परिलक्षित करता है।
मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड के शासन से भी लोग निराश हो रहे हैं। मिस्र के पूर्व राष्टÑपति होस्री मुबारक के खिलाफ नारा बुलंद करने वाले लोगों  का कहना है कि यह इस्लामिक हुकूमत न सिर्फ होस्री मुबारक के क्रूर और भ्रष्ट अधिकारियों को कठघड़े में खड़ा करने में असफल साबित हुई है बल्कि वास्तविक डेमोक्रेसी को भी दूर धकेल दिया है। इस्लाम परस्तों ने दूसरे राजनीतिक दलों को दरकिनारा कर दिया है। सैनिक और उनके इस्लामिक उत्तराधिकारी युवा समूहों के साथ साथ उन लोगों को भी धकिया कर अलग कर दिया है, जिन्होंने मंत्रालय, न्यायपालिका और अन्य संस्थाओं में सुधार की व्यापक योजना बना रखी थी। इनका उद्देश्य मिस्र के नागरिकों को गुमराह करते हुये क्रांति को कुचलना है। ये लोग प्रचार कर रहे हैं कि मिस्र के युवा विध्यवंकारी शक्ति बने हुये हैं, जबकि मिस्र में क्रांति की शुरुआत इन्हीं युवाओं ने की थी।
जहां  होस्री मुबारक के बाद मिस्र में जारी हिंसा में सैंकड़ों लोग मारे गये वहीं सीरिया में मार्च 2011 में असद के खिलाफ बगावत के बाद से अब तक घरेलु हिंसा में 70, 000 लोग मारे जा चुके हैं, और हिंसा का यह दौर आज भी जारी है। सीरिया के निर्वासित विरोधी नेता फावाज तेलो वहां जारी हिंसा से दुखी हैं। उन्हें इस बात का भी मलाल है कि पूरे प्रकरण में अंतरराष्टÑीय शक्तियां मूक दर्शक बनी हुई हैं। लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा दुख इस बात से है कि सीरिया के विपक्षी पार्टियों में नेतृत्व का अभाव है। उनका कहना है कि विपक्षी नेता क्रांति की भावना को लोगों से ठीक तरह जोड़ने में असफल साबित हो रहे हैं। इतना ही नहीं ये लोग क्रांति को भ्रष्ट करने में लगे हुये हैं। लेकिन मुझे इस बात की खुशी है कि लोग आधी दशक पुरानी तानाशाही को उखाड़ फेंकने पर आमादा हैं और बेखौफ होकर लड़ रहे हैं। तेलो चाहे जो कहे लेकिन तमाम हिंसा के बावजूद अभी सीरिया का मुस्तबिल साफ नहीं है। यह कहना कठिन है कि सीरिया में निकट भविष्य में डेमोक्रेसी की स्थापना होने जा रही है।
यदि देखा जाये तो दो साल पहले अरब जगत में उठने वाली क्रांति की लहर नस्लीय और जातीय घेरेबंदी में विभक्त हो गई है। कम से कम  ट्यूनिशिया, मिस्र और सीरिया की स्थिति तो यहीं बयां कर रही हैं। फिर भी जिस तरह से वहां के लोग स्वतंत्रता को लेकर जूझ रहे हैं वह निसंदेह आशा पैदा करती है।

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