…आँखे नहीं भिगोना बाबा (कविता)

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”क्या हँसना क्या रोना बाबा,
क्या ही गुस्सा होना बाबा”
”तीस बरस से बिछा रहे है,
बो ही एक बिछोना बाबा ”
”खून-पसीने की रोटी का,
क्या पाना क्या खोना बाबा”
”महलो के छोटे बच्चो का,
हम है एक खिलौना बाबा”
”तकलीफों में भूल चुके है,
अब तो रोना-धोना बाबा”
”बारिश में सर ढक देता है,
मंदिर का बो कोना बाबा”
”हमने बैसे ही कह दी है,
आँखे नहीं भिगोना बाबा’

——-संदीप’अक्षत’——

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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