बिहार में बदलती सियासत की बिसात

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गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर इन दिनों बिहार की सियासत में तेजी से ध्रुवीकरण हो रहा है। नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू नेताओं का एक गुट भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री प्रत्याशी को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोले हुये हैं। जिस तरह से पिछले कुछ दिनों से जदयू और भाजपा के रिश्तों में उतार-चढ़ाव आ रहा है, उससे लालू यादव की बांछें भी खिली हुई है। उन्हें धीरे-धीरे यकीन होने लगा है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर बिहार में व्यापक उलटफेर हो सकता है। मजे की बात यह है कि बिहार के कांग्रेसी नेताओं के अंदर भी यह उम्मीद जगने लगी है कि मोदी की वजह से उन्हें दोबारा नीतीश कुमार का दामन थामकर सत्ता में आने का सुख प्राप्त हो सकता है। अब सबकुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि भविष्य में भाजपा प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी को आगे करती है या नहीं। जदयू ने साफ तौर पर कहा है कि मोदी गुजरात में 2002 में दंगा रोकने में नाकाम रहे थे। मतलब साफ है कि जदयू मोदी को अप्रत्यक्ष रूप से गुजरात दंगों के लिए दोषी ठहरा रही है। यदि भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री रूप में आगे करके चुनाव में कूदती है तो इसका सीधा असर बिहार में जदयू-भाजपा गठबंधन पर पड़ेगा।
बिहार की राजनीति में मुस्लिम तुरुप का पत्ता है। वहां की सोशल इंजीनियरिंग में इस पत्ते की अहम भूमिका है। लालू यादव माई (मुस्लिम और यादव) समीकरण के सहारे बिहार में लंबे समय तक प्रत्यक्ष व अप्रत्क्ष रूप से अपनी हुकूमत बरकरार रखने में सफल रहे। वह मुसलमानों को सांप्रदायिकता के भूत से डराकर रखते थे। वह इस बात को लेकर आश्वस्त थे कि मुसलमान उनको छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता है। जब भी मुसलमान उनसे बिदकने के मूड में आते, वह उन्हें आरएसएस का भय दिखाकर शांत कर देते थे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि विकल्पहीनता की वजह से लालू का माई समीकरण चलता रहा। इस दौरान एक सामंत का रुख अख्तियार करते हुये लालू यादव ने मुस्लिम पुलिस अधिकारियों को थानों में लठैत के तौर पर नियुक्त करके उन्हें यह अहसास दिलाने की भरपूर कोशिश की कि उन्हें भी तरजीह दी जा रही है, हालांकि इनकी भूमिका महज लालू यादव और उनके लोगों के लिए वसूली करने की ही थी।
लालू विरोधियों को एक छत के नीचे लाने के लिए भाजपा के साथ हाथ मिलाने के बाद नीतीश कुमार ने सूबे मेंं मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए हरसंभव कोशिश की। खानकाहों, ईदगाहों, मजारों और कब्रिस्तानों पर विशेष ध्यान देते हुये एक हद तक मुसलमानों की जमायत हासिल करने में वह सफल रहे। भाजपा के साथ गठबंधन के बावजूद आज बिहार में मुलसमानों का एक बड़ा तबका नीतीश कुमार के साथ है। नीतीश कुमार को इस बात का पूरा अहसास है कि यह तबका नरेंद्र मोदी के नाम पर भड़ककर एक बार फिर लालू के पाले में जा सकता है। इसलिए नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी की मुखालफत में एड़ी चोटी का जोड़ लगाए हुये हैं और लालू इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि कब भाजपा मोदी की नाम की घोषणा करे ताकि एक बार फिर वह मुसलमानों को आरएसएस का भय दिखाकर बिहार में अपनी खोई हुई जमीन हासिल कर सके। अब देखने वाली बात यह होगी कि बिल्ली के भाग्य से कब छीका टूटता है।
जदयू के तमाम नीति निर्धारक इस बात को स्वीकर कर रहे हैं कि भाजपा के साथ गठजोड़ टूटने की स्थिति में नुकसान दोनों दलों को होगा और लालू इस स्थिति का भरपूर फायदा उठाने की ताक में पहले से ही हैं।
जदयू के अंदर तो राष्टÑीय स्तर पर नरेंद्र मोदी के प्रति रुख को लेकर आलोचनाएं भी होने लगी हैं। जदयू के अंदर एक धड़ा यह मानता है कि नीतीश कुमार अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा वशीभूत नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोले हुये हैं। जदयू के राष्टÑीय महासचिव शिवराज सिंह ने तो यहां तक कहा है कि नीतीश कुमार की अति महत्वाकांक्षा पार्टी को भारी पड़ेगी। नीतीश कुमार मोदी का विरोध नहीं कर रहे हैं बल्कि मोदी के नाम पर कांग्रेस तथा भाजपा से सौदेबाजी कर रहे हैं। उनका कहना है कि नीतीश कुमार को भाजपा की ओर से उप प्रधानमंत्री पद का आॅफर भी मिला है। उन्होंने जोर देते हुये कहा है कि नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षा बहुत ऊंची है, जिसका कोई आधार नहीं है। वह जिस तरीके से व्यवहार कर रहे हैं, उससे बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी भी सुरक्षित नहीं रहेगी। नीतीश कुमार को भ्रम है तो 2014 में लोकसभा चुनाव लड़कर देख लें। पता चल जाएगा कि उनके पास कितना जनाधार है। बहरहाल इस मामले में सच्चाई चाहे जो हो, इतना तो तय है कि नरेंद्र मोदी को लेकर नीतीश कुमार की राय से जदयू पूरी तरह से इत्तफाक नहीं रखता है। इस मसले पर जदयू के अध्यक्ष शरद यादव भी दो टूक बोलने से गुरेज करते हुये नजर आ रहे हैं, जिससे स्पष्ट होता है कि राष्टÑीय स्तर पर जदयू में मोदी को लेकर मतभेद बना हुआ है।
बिहार की सियासत पर पैनी नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि भाजपा कार्यकर्ता नीतीश की कार्यप्रणाली के साथ-साथ सूबे में भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से भी नाराज है। इनकी नाराजगी खासतौर पर सुशील कुमार मोदी से है, जो हर बात में नीतीश कुमार की हां में हां मिलाते रहते हैं। हां में हां मिलाने की अपनी आदत की वजह से ही सुशील कुमार मोदी ने सेक्यूलरिज्म पर नीतीश कुमार की थ्योरी को स्वीकार करते हुये एक सेक्यूलर छवि के नेता को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पेश करने की बात कही थी। हालांकि बाद में भाजपा और संघ के केंद्रीय नेताओं द्वारा झिड़की खाने के बाद उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया था। लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था। बिहार में भाजपा का एक धड़ा सुशील कुमार मोदी का धुर विरोधी है और ये लोग पशुपालन मंत्री गिरिराज सिंह के इर्दगिर्द गोलबंद हो गये हैं, जो सूबे में नरेंद्र मोदी के हार्डकोर समर्थक माने जाते हैं। गिरिराज सिंह नरेंद्र मोदी के नाम पर जदयू के साथ हमेशा आरपार के मूड में रहते हैं और उनकी यह अदा मोदी समर्थकों को खूब लुभा रही है।
एक ओर नीतीश कुमार अप्रत्यक्ष रूप से सेक्यूलर छवि वाले व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद के लिए पेश करने की वकालत करके नरेंद्र मोदी पर हमला कर रहे हैं तो दूसरी ओर बिहार में इस बात को लेकर आकलन का दौर शुरूहो गया है कि जदयू-भाजपा गठबंधन टूटने की स्थिति में बिहार की राजनीतिक तस्वीर क्या होगी। लोगों का कहना है कि ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार एक लंगड़ी सरकार बनाने की स्थिति में तो रहेंगे, लेकिन भाजपा के रूप में उन्हें एक मजबूत विपक्ष का सामना करना पड़ेगा। आकलन तो इस बात को भी लेकर किया जा रहा है कि अलग होकर आगामी लोकसभा का चुनाव लड़ने पर जदयू और भाजपा की स्थिति क्या होगी। मनोवैज्ञानिक तौर पर बिहार की राजनीति में तेजी से बदलाव आ रहा है और व्यावहारिक रूप में इसका असर बहुत जल्द देखने को मिले तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

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