ज़ीस्त को आख़िरी साँसों में समझ पाये हम

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सौरभ नेमा नाकाम

ख़्वाब को टूटती नींदों में समझ पाये हम,

इश्क़ को आख़िरी लमहों में समझ पाये हम।

ये असर वक़्त का लगता है कि उसका चेहरा,

मुश्क़िलों से कई चेहरों में समझ पाये हम।

क्यों उठी थी वो नज़र मुझपे सवालात के साथ,

चन्द लमहात को सदियों में समझ पाये हम।

रास्ता क्या है ये मन्ज़िल की हक़ीक़त क्या है,

सारा क़िस्सा तेरी गलियों में समझ पाये हम।

सू-ए-मरघट का कोई तल्ख़ सफ़र था सौरभ

ज़ीस्त को आख़िरी साँसों में समझ पाये हम।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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