राहुल की ‘एस्केप वेलॉसिटी’ थ्योरी

0
22
दागी अध्यादेश पर केंद्र सरकार को बुरी तरह से लताड़कर बैकफुट पर पहुंचाने के बाद राहुल गांधी की लोकप्रियता में निस्संदेह इजाफा हुआ है। पार्टी से इतर हटकर जिस तरह से उन्होंने केंद्र सरकार को आइना दिखाया है, उससे यह पता चलता है कि राहुल गांधी धीरे-धीरे लोगों की मानसिकता को समझ कर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं।  इसी क्रम में उन्होंने दलित समुदाय को आगे ले जाने के लिए उन्हें ‘एस्केप वेलॉसिटी’ से जोड़ा है। दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित एक कार्यक्रम में ‘एस्केप वेलॉसिटी’ की व्याख्या करते हुये उन्होंने कहा है कि यह वह रफ़्तार है, जिसे हासिल करने के बाद ही कोई चीज किसी ग्रह या चांद के गुरुत्वाकर्षण से आजाद हो सकती है। मुल्क में अब तक दलितवाद की राजनीति बंद घर में होते रही है। दलित भेड़चाल की तरह किसी न किसी स्वजातीय नेता के पीछे चलते रहे हैं। राजनीतिक फलक पर अपने वजूद को स्वतंत्र रूप से विकसित करने के लिए न तो उन्हें अवसर मुहैया कराया गया और न ही उनके राजनीतिक नेतृत्व को निखारने की कोशिश की गई है। उनके अपने ही नेता उनका इस्तेमाल महज वोट बैंक के तौर पर करते आ रहे हैं। ‘एस्केप वेलॉसिटी’ थ्योरी के तहत राहुल गांधी उन्हें तमाम तरह के दबावों से मुक्त होने की नसीहत दे रहे हैं ताकि वे महज वोट बैंक न रहें और उनका चहुंमुखी विकास हो सके। अब दलित समुदाय के लोग नेता पूजन के पारंपरिक लाइन को छोड़कर राहुल गांधी की बातों से कितना मुतमइन होते हैं, यह तो वक्त ही बतलाएगा। फिलहाल तो यही कहा जा सकता है कि राहुल गांधी एक के बाद एक अपने तरकश से लगतार दमदार तीर चला रहे हैं। अब देखना यह है कि उनका यह तीर निशाने पर लगता है या नहीं।
एक बड़ी राजनीतिक शक्ति हैं दलित
भारत में दलित एक बड़ी राजनीतिक शक्ति है। इस शक्ति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिन्दुस्तान को फतह करने के लिए ब्रिटेन की ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापक पैमाने पर दलितों को अपनी सेना में शामिल किया था। मुल्क की सरजमीन पर लड़ी गई अहम लड़ाइयों में दलितों ने अंग्रेजों की तरफ से लोहा लेते हुये हिन्दुस्तान के राजा-महाराजाओं और नवाबों की पारंपरिक सेना को धूल चटाया था। हिन्दुस्तान की आजादी के दौर में भी दलित बाबा भीम राव अंबेडकर के नेतृत्व में अहम किरदार निभा रहे थे। अंबेडकर को इस बात का भान था कि आजादी के बाद दलित एक बार फिर से गुलामी की स्थिति में आ सकते हैं, इसलिए वह लगातार दलित उत्थान पर जोर दे रहे थे। दलितों को लेकर कई बिन्दुओं पर तो महात्मा गांधी के साथ भी उनके मतभेद थे। आजादी के बाद संवैधानिक तौर पर तो दलितों को बहुत से अधिकारों से लैस किया गया, लेकिन राजनीतिक क्षितिज पर वे अपना मुकाम नहीं बना सके। कांशीराम जैसे नेताओं ने दलितों को राजनीतिक पहचान दिलवाने में अहम भूमिका निभाई, लेकिन बाद के दौर में दलित पूरी तरह से नेतापरस्ती के दायरे में सिमटते चले गये। अब राहुल गांधी बड़ी बेबाकी से मौकापरस्त दलित नेतृत्व पर सवाल उठाते हुये दलितों को राजनीति में व्यापाक भागीदारी के लिए ललकार रहे हैं। हो सकता है कि राहुल गांधी की यह ललकार 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस की जीत पक्की करने तक सीमित हो, लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी ने इस तल्ख सच्चाई की तरफ उंगली उठाई है कि दलितों पर ब्राह्मणवादी शैली में अगुआई करने वाले दलित नेताओं का कब्जा है।
दलित नेतृत्व पर हमला
हिन्दू समाज की व्याख्या करते हुये डा. भीम राव अंबेडकर ने कहा था कि हिन्दू समाज एक ऐसे बहुमंजिला इमारत की तरह है, जिसकी सारी खिड़कियां और दरवाजे बंद हैं। उन्हें यकीन हो चला था कि हिन्दू समाज में दलितों का उत्थान संभव नहीं है, इसलिए उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। डा. भीम राव अंबेडकर दलितों को इस बंद इमारत से मुक्ति दिलाने के लिए उनके द्वारा बेहतर शिक्षा हासिल करने पर जोर देते थे। उन्होंने इस बात को बहुत पहले ही समझ लिया था कि बेहतर शिक्षा हासिल करके ही दलित समाज अपने लिए एक अलग मुकाम हासिल कर सकेगा। कांशीराम ने भी दलितों को शिक्षित करने पर जोर दिया था। लंबे समय तक वह नि:स्वार्थ दलित उत्थान में लगे रहे। भारत की दलित राजनीति में डा. भीमराव अंबेडकर की अहम भूमिका को स्वीकार करते हुये राहुल गांधी ने कहा है कि अंबेडकर पहले दलित थे, जिन्होंने एस्केप वेलॉसिटी हासिल की और उनके बाद कांशीराम ने इस ताकत को सही दिशा में मोड़ा, मगर यह ऊर्जा उन्हें आरक्षण की बदौलत मिली थी और उन्होंने बहुत से दलितों को एस्केप वेलॉसिटी हासिल करने में मदद की। दलितों को राजनीतिकतौर पर संगठित करने का श्रेय कांशीराम को ही जाता है। बाद के दिनों में मायावती दलित नेता के तौर पर उभरीं तो उन्होंने दलितों के बीच पूरी तरह से नेता पूजन की परंपरा को स्थापित कर दिया। मायावती की कार्यशैली पर तल्ख टिप्पटणी करते हुये राहुल गांधी ने यहां तक कहा है कि बहुजन समाज पार्टी नेता और उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने दलित नेतृत्व पर कब्जा जमा लिया और दूसरों को उठने का मौका नहीं दे रही हैं। अगर ‘एस्केप वेलॉसिटी’ के आंदोलन को आगे बढ़ाया जाता तो इसमें लाखों दलितों की भागीदारी हो सकती थी।
दलित नेताओं की ब्राह्मणवादी शैली
बिहार में रामविलास पासवान भी इसी तर्ज पर अपनी राजनीति चमकाते रहे हैं। मायावती की शैली पर ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करते-करते वह खुद दलितों के बीच ब्राह्मण की भूमिका अख्तियार किये हुये हैं। बिहार में दलितों के बीच रामविलास पासवान की मजबूत पकड़ रही है। कहा जा सकता है कि बिहार में लंबे अरसे से वह दलितों के वोट बैंक पर एक छत्र राज करते आ रहे हैं। इसके बावजूद उन्होंने मायावती की तरह कभी भी दलितों को शैक्षणिक स्तर पर उठाने की बात नहीं की। राजनीति में एक मशहूर उक्ति है कि अशिक्षित जनता पर शासन करना ज्यादा आसान होता है। मायावती और रामविलास पासवान इसी तर्ज पर दलित राजनीति कर रहे हैं। रामविलास पासवान को केंद्र में कई बार मंत्री बनने का मौका मिला, इसके बावजूद उन्होंने दलितों के उत्थान की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। मायावती भी कई मर्तबा यूपी की बागडोर संभाल चुकी हैं। मुख्यमंत्री रहते हुये उन्होंने सारा ध्यान यूपी में ‘हाथी’ की प्रतिमाएं बनवाने में लगाए रखी। मान्यता प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार विवेक ग्लेंडेनिंग मायावती की राजनीतिक समझ पर टिप्पणी करते हुये कहते हैं कि यदि मायावती को दलितों की वास्तविक समझ और उनका दिल से आदर करना आता होता तो वे आज देश की प्रधानमंत्री होकर देश के दलितों का कल्याण कर रही होतीं, न कि दलित आधारित व्यक्तिगत सत्ता प्राप्ति के लिये राजनीति। क्या कारण है कि लोकजन शक्ति पार्टी और बसपा में कभी भी द्वितीय स्तर के नेतृत्व को उभारने की कोशिश नहीं की गई? आज लोजपा और बसपा में पूरी तरह से नेता पूजन की परंपरा चल रही है। रामविलास पासवान तो पार्टी के अंदर पूरी तरह से अपने परिवार के लोगों को स्थापित करने में लगे हुये हैं ताकि बिहार में दलितों का नेतृत्व उनके परिवार के सदस्यों के ही हाथ में रहे। राहुल गांधी दलित पूजन की इसी परंपरा के खिलाफ दलितों को उकसा रहे हैं और उनके अंदर राजनीतिक शक्ति हासिल करने की ललक पैदा कर रहे हैं। दलितों की सभा में उनका यह कहना है कि इन चेहरों को वह संसद और विधानसभा में देखना चाहते हैं, निस्संदेह दलितों के अंदर एक नया आत्मविश्वास पैदा कर रहा है।
इंदिरा गांधी के फार्मूले पर राहुल
कांग्रेस शुरू से ही दलितों को साथ लेकर चली है। श्रीमती इंदिरा गांधी भारतीय राजनीति में दलितों की अहमियत को अच्छी तरह से समझती थीं। उन्हें पता था कि जब तक दलित उनके साथ है, कांग्रेस कभी कमजोर नहीं होगी। कभी कांग्रेस बिहार और यूपी में एकछत्र राज्य करती थी, इसकी एक खास वजह यह थी कि इन दोनों सूबों में दलित पूरी तरह से कांग्रेस के साथ थे। यहां तक कि केंद्र में कांग्रेस दलितों की वजह से पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनाती थी। विभिन्न कारणों से धीरे-धीरे दलित कांग्रेस से दूर होते चले गये और इसके साथ ही कांग्रेस कमजोर होती चली गई। अब स्थिति यह है कि कांग्रेस बिहार और यूपी में सत्ता से कोसों दूर है और केंद्र में भी सरकार बनाने के लिए उसे दूसरे दलों का समर्थन हासिल करना पड़ रहा है। कांग्रेस में दलितों की व्यापक भागीदार की बात करके राहुल गांधी एक तरह से कांग्रेस को फिर से श्रीमती इंदिरा गांधी के फार्मूले पर लाना चाह रहे हैं। उन्होंने खुलकर कहा है कि चाहे दलितों को कांग्रेस जितना प्रतिनिधित्व मिले, वह भी कम है। ये लोग कांग्रेस पार्टी की रीढ़ की हड्डी हैं और हमें उनके लिए और बहुत कुछ करना है। मतलब साफ है कि राहुल गांधी नई रणनीति के तहत एक बार फिर दलितों को व्यापाक पैमाने पर कांग्रेस के झंडे तले लाने की कवायद कर रहे हैं।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here