लिखे थे आप पे मैंने, वही क़लाम भेजा है (कविता)

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उत्तम पाल

मेरी नज़र ने आपको, मेरा सलाम भेजा है,

क़ुबूल है श्क आपका, यही पयाम भेजा है।

जो ख़त लिखे थे आपने, उसे महफूज़ रक्खा है,

हर एक हार्फ मेर दौलत, यही पयाम भेजा है।

न डर है मुझको, जमाने की, तल्खियोँ से अब,

यही ज़ुर्रत, ये होसला, यही अंजाम भेजा है।

मिले थे जब हम एक गुलाब का तोहफा था मिला,

वही गुलाब सी रंगीन, एक शाम भेजा है।

मिले थे मखमली सी शाम की दहलीज़ पे हम,

लिखे थे आप पे मैंने, वही क़लाम भेजा है।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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