लुप्त (हिन्दी काव्य)

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शिव कुमार झा ‘टिल्लू’

दड़क गए शिखर मेरु के
हिलकोरें सागर की लुप्त हुईं
रवि आभा जब मलिन दिखा-
नीरज पंखुड़ियाँ लुप्त हुईं
वात्सल्य स्नेह में भी छल है
संतति नियति का क्या कहना
प्रेम विवश दमड़ी के आगे
कुम्हिलात कुंदन गहना
स्वाति क्या? पूर्वा में भी
वारिद दामिनी सुसुप्त हुईं
समाज मुकुट गिरा कोठे पर
निलय रम्भा अब गुप्त हुईं
वैताल-झुण्ड अब तंत्र के रक्षक
छद्म स्वार्थी ताल मिलाते हैं
अंतर्तम में मेल नहीं
एक दूजे के बाल सहलाते हैं
जड़मति कलुषा सुयश पात्रा अब
मंजुल सर्वज्ञा विक्षिप्त हुईं
अश्व पाद में नहीं स्पंदन
गदह-टाप उद्दीप्त हुईं
सब प्रश्नों के एक ही उत्तर
विकसित युग में जीना है
माँ के क्षीर में स्वाद नहीं अब
रसायन दुग्ध को पीना है
चिपटान्न उपेक्षित की पोटली में
फास्ट फ़ूड प्रदीप्त हुईं
अर्थनीति के सबल जाल में
अनय मेखला सिप्त हुईं

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