कश्मीर में प्रॉक्सी वार के तौर तरीकों को उकेर रही है फिल्म हैदर

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आलोक नंदन

निर्देशक विशाल भारद्वाज क्लासिकल लिटरेचर से फिल्म रूपांतर की कला में माहिर हैं। इस बार उन्होंने शेक्सपीयर की प्रसिद्ध रचना हैमलेट को हैदर के रूप में ढाला है। थीम हैमलेट का है, जिसमें एक बेटा अपने बाप की हत्या का बदला लेने की मानसिकता है और अपने बाप की हत्या के लिए मां को भी दोषी मानता है। अलीगढ़ से पढ़ाई करके कश्मीर लौटा हैदर को पूरी तरह से विशाल भारद्वाज ने हैमलेट की मानसिकता में रखा है। बाप के कातिल से बदला लेने की इस साइकोलॉजी को उन्होंने कश्मीर बैकग्राउंड में ढाल दिया है, जिसमें भारतीय फौज भी हैं, वहां के स्थानीय महत्वकांक्षी राजनीतिज्ञ भी और कश्मीर की आजादी के रंग भी। इसके साथ ही ट्रेजेडी को व्यंग्य में भी तब्दील करते हुये उस कानून पर भी जमकर चुटकी ली है जो भारतीय फौज को कश्मीर और देश के अन्य उग्रवाद प्रभावित इलाकों में हासिल है। ऐस्पा का उन्होंने जमकर माखौल उड़ाते हुये स्थानीय कश्मीरियों के गुस्से का इजहार भी शानदार तरीके से किया है। लेकिन कश्मीरी बैकग्राउंड होने की वजह से दूसरे प्रांत के दर्शक खुद को इससे सहजता के साथ नहीं जोड़ पाते हैं, फिल्म पूरी तरह से कसी हुई है। यहां तक कि संवाद भी शानदार तरीके से लिखे गये हैं, फिलॉसफिकल अंदाज में सच्चाई की पड़ताल करते हुये।

विशाल भारद्वाज की खासियत है कि वो कलाकार के बजाय कैरेक्टर को ज्यादा तरजीह देते हैं। इसलिए उनकी फिल्मों में किसी भी कलाकार पर कैरेक्टर हावी रहता है। कलाकार का वजूद पूरी तरह से उनकी फिल्मों में गुम हो जाता है। फिल्म हैदर में हैदर की भूमिका में भी उन्होंने शाहिद कपूर कैरेक्टर में कस दिया है। यही वजह है कि शाहिद कपूर पूरी तरह से एक ऐसे कश्मीरी युवक की तरह पेश आते हैं जिनके दिलो और दिमाग में अपने बाप के कातिल से बदलने के साथ-साथ मां के चरित्र के हकीकत तक पहुंचने की छटपटाहट है। इस फिल्म में कई बेहतरीन शॉट्स हैं। भारतीय फौज के एक्शन को बड़ी ही खूबसूरती के साथ दिखाया गया है। तब्बू (हैदर की मां) और शाहिद कपूर के बीच के इंटेंस इमोशन सीन को उन्होंने परफेक्ट तरीके से एक्सट्रीम क्लोजअप और लॉंग शाट्स में कैद किया है। टेरीटॉरी को फिल्माने पर तो उन्हें पहले से ही कमाल हासिल है, ओमकारा में हम इसका नमूना देख चुके हैं। खास अंदाज में फिल्माये गये शॉट्स की वजह से कश्मीर घाटी में खौफ को बेमिशाल अंदाज में पेश किया है। खौफ के बीच मानवीय संवेदनाओं को सही तरीके से उन्होंने उकेरा है। एनकाउंटर के वक्त भी कश्मीरियों के होठों से निकलने वाले गीतों के बोल स्वतंत्र कश्मीर की लड़ाई में उन्हें सहज तरीके से मानवीय बनाये रखता है। यहां तक कि कब्रिस्तान में भी मानव खोपड़ी को हाथ में लेकर एक बच्चे के साथ दिल्लगी करता हुआ हैदर उस सहजता को ही दर्शाता है जिसके कश्मीरी आदि हो चुके हैं। निश्चिततौर पर यह शाहिद कपूर की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्म है। बेटे के शक की सुई पर टिकी हुई तब्बू भी अपनी भूमिका को बेहतरीन तरीके से निभाया है। आजादी कश्मीर की लड़ाई में शिरकत करने वाले इरफान के हिस्से ज्यादा सीन नहीं आया है, लेकिन जब भी वे पर्दे पर आये हैं, सीधे दर्शकों की रूह में उतरते चले गये हैं। अभिनेत्री श्रद्धा कपूर भी पर्दे पर खूबसूरत तो दिखी ही हैं, उनका अभिनय भी किरदार के अनुकूल रहा है।

फिल्म हैदर में प्रॉक्सी वार में शामिल विभिन्न पक्षों को उकेरते हुये विशाल भारद्वाज यह स्पष्ट रूप से चिन्हित करने की जहमत नहीं उठाई है कि कौन सा पक्ष सही है और कौन सा गलत। कहा जा सकता है कि एक फिल्मकार के तौर पर वो कश्मीर समस्या को तो सामने रखते हैं लेकिन समाधान से नजरें चुरा लेते हैं। शायद यह उनकी व्यवसायिक मजबूरी है। किसी एक पक्ष को सही ठहरा कर इस फिल्म को थियेटर तक ला पाना उनके लिए मुश्किल होता। इसलिए वो समाधान से खुद को दूर रखते हैं। अपने गुम हो चुके बाप की तलाश करे हैदर को समझाते हुये एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहता है, जब हाथी आपस में टकराते हैं तो घासफूस तो कूचले जाएंगे ही। यह संवाद कश्मीरियों की वर्तमान स्थिति को बखूबी स्थापित करता है। इसी तरह मीडिया के साथ संवाद में एक वरिष्ठ फौजी अधिकारी कहता है कि कश्मीर में प्रॉक्सी वार के खिलाफ जो भी है उसे अपने साथ जोड़ों और उनका इस्तेमाल करो। सीमा पार से दूसरा पक्ष भी इस हकीकत से अच्छी तरह से वाकिफ है और अपनी लड़ाई में कश्मीरी युवकों को इस्तेमाल करने के हर तरीके को अपनाता है। यह फिल्म अगली पंक्ति के दर्शकों के लिए नहीं है।

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