मुसलिम अटीट्यूड – परसेप्शन एंड रिएलिटी ( भाग-१)

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संजय मिश्र

इंडिया का राजनीतिक और सामाजिक विमर्श यही मान कर चल रहा है कि आबादी के बड़े हिस्से ने जीने का सलीका तो बदला है लेकिन मुसलमान औरंगजेब और ब्राम्हण मनु के दौर में बने हुए हैं…हकीकत इससे अलग है…जाहिर है समरसता की चाहत के बावजूद सार्वजनिक डिस्कोर्स हांफ रहा है…पहरुए न तो ब्राम्हण के मानस में आए बदलाव को स्वीकार कर रहे और न ही मुसलमानों के मिजाज की दस्तक सुनना चाहते।

ब्राम्हण की कथा फिर कभी… फिलहाल मुसलमानों के रूख में परिवर्तन को पहचानने की कोशिश करें… … इस देश की आम समझ है कि दो बड़े कौम की सहभागिता का पहला आधुनिक पड़ाव साल १८५७ ने देखा… अंग्रेजों से छुटकारा पाने की अकुलाहट के छिट-पुट दर्शन इससे पहले भी हुए…लेकिन १८५७ में ये व्यापक आयाम के साथ उभरा… फिर भी बहादुरशाह जफर की कामना हिन्दू प्रजा के सहयोग… हिन्दू जमींदारों के सहयोग से मुगल सल्तनत की वापसी पर टिकी रही … बेशक अंग्रेजों को परास्त करना पहली जरूरत थी।

आपसी सहयोग की मिसाल कायम हुई पर ये प्रयास विफल रहे… असफलता ने मुसलमानों को तोड़ दिया… शासक वर्ग होने के दिन लद चुके थे… जख्म थोड़े भरे तो अंग्रेजों से दोस्ताना रिश्ते पर उन्होंने गौर फरमाया…सर सैयद अहमद के समय में इस दोस्ताना रिश्ते के साथ आधुनिक शिक्षा का सूरज उगा… इस समझ को काफी बाद झटका लगा जब बंग-भंग आंदोलन के समय वे राष्ट्रीय चेतना और अंग्रेजों की सहृदयता के बीच जूझते रहे।

किस्मत बदलने की तमन्ना हावी हुई… खिलाफत आंदोलन में गांधी के सहयोग के बावजूद पश्चिम की तरफ ताकने और प्रोपोर्सनल रिप्रजेंटेशन की दिशा की तरफ वे बढ़ चले …. आजादी के आंदोलन की तीव्रता ने उन्हें अहसास करा दिया कि लोकतंत्र आएगा और उन्हें प्रजा वाला मिजाज विकसित करना पड़ेगा… मन की हलचल के बीच अलग देश के तत्व हावी हो गए… देश का बटवारा हो गया… मुसलमानों के लिए अलग देश बन गया।

जो भारत में रह गए उनके सामने धर्मसंकट था… आजादी की बेला क्रूरता की हदें पार करने का गवाह बनी थी… भीषण दंगों से हिन्दुओं के मन पर पड़ने वाले असर से भी वे वाकिफ थे…हिन्दू राष्ट्र की तमन्ना के स्वर भी उन्हें सुनाई दे रहे थे…फिर भी नेहरू ने उन्हें भरोसा दिया…अब वे जनता बन चुके थे… चुनावी राजनीति में बहुसंख्यकों के वर्चस्व की धारणा के बोझ को वे उतारने लगे…फ्री इंडिया में उनके मनोभावों को एक आसान से उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है।

फिल्म की दुनिया में दिलीप कुमार को हिन्दू नाम के सहारे खूब सफलता मिली… अपने नाम से सफल होने में उस समय के मुसलमान कलाकारों को हिचक थी… ये दौर बीता…  तब फिरोज खान और संजय खान का समय आया… ये मुसलमानों के आत्मविश्वास का संकेत कर रहा था… अपनी पहचान से ही उन्होंने सफलता के झंडे गाड़े…आज शाहरूख, आमीर और सलमान आत्मविश्वास के साथ आक्रामकता की नुमाइश कर रहे हैं। शासक से जनता बनने के मुसलमानों के इस सफर में न तो औरंगजेब की महिमा है और न ही दबे-कुचले होने का दंश …मुफलिसी से उबरते रहने की आकांक्षा इन भावों पर भारी है।

इंडिया में भूख से मरने की खबर अक्सर आती रहती है.. पत्रकार इसे जतन से आपके पास पहुंचाते हैं… इस कोशिश में वे अफसरों की नाराजगी मोल लेते हैं… उनसे पूछिए या फिर अखबारों के पन्ने पलटिए… आप पाएंगे कि मरने वालों में मुसलमान नहीं के बराबर होते… कह सकते कि मुसलमान कर्मठ होते साथ ही हूनर वाले पेशे अपनाने के कारण भुखमरी टाल जाते… दिलचस्प है कि इसी देश के हुक्मरान कहते फिरते हैं कि मुसलमानों की माली हालत दलितों से भी खराब है।

वे सच्चर कमिटी की रिपोर्ट का हवाला देते हैं … तो क्या ये रिपोर्ट डाक्टर्ड है? राजनीति करने में सहूलियत का इसमें ध्यान रखा गया है? रोचक है कि इस रिपोर्ट की महिमा का बखान कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिस्ट सिद्दत से करते… सार्वजनिक मंचों पर इसको लेकर आंसू बहाए जाते… केन्द्र की सत्ताधारी दल बीजेपी को भी ये रिपोर्ट खूब सुहाती है… कांग्रेस की दशकों की उपलब्धि को भोथरा साबित करने में उन्हें ये हथियार नजर आता।  इस डिस्कोर्स में शामिल होने वाले मुसलमान करीने से हुक्मरानों से हिसाब मांगते हैं… इस अल्पसंख्यक समाज की हैसियत बढ़ाने वाले कदम उठाने की चुनौती देते…मुसलमानों की बदहाली के कई कारण होंगे… पर आप ध्यान देंगे तो विशेष राजकीय सहयोग पाने की उनकी अर्जुन दृष्टि आपको नजर आ जाएगी.. मौजूदा समय में संघ परिवार के नेताओं के गैर-जरूरी बोल के बीच भी मुसलमानों की नजर बीजेपी के उस विजन डाक्यूमेंट पर टिकी है जो मुसलमानों के हितों के लिए तैयार हुए हैं।

संभव है पूर्व आम आदमी पार्टी नेत्री शाजिया इल्मी का बयान याद आया होगा आपको… साल २०१४ के लोकसभा चुनाव के समय दिए गए उस बयान को विवादित करार दिया गया… शाजिया ने गुहार लगाई थी कि मुसलमान बहुत सेक्यूलर हो लिए… अब उन्हें अपने हितों की ओर देखना चाहिए… इसमें अनकही बात ये थी कि मुसलमान आम आदमी पार्टी पर भरोसा दिखाएं तो उनके हितों का विशेष खयाल रखा जाएगा।

इंडिया के राजनीतिक सफर में डुबकी लगाएं तो इस तरह के फिकर की बानगी आपको बिहार में जगन्नाथ मिश्र के राजकाज के दौरान दिखेगी…सहरसा के रहने वाले पंडित सीएम मुहम्मद जगन्नाथ तक कहलाए… मुसलमानों के आर्थिक और सांस्कृतिक उम्मीदों पर वे खासे मेहरबान हुए। पर साल २००० का विधानसभा चुनाव… झंझारपुर क्षेत्र से जगन्नाथ मिश्र के बेटे नीतीश मिश्र उम्मीदवार थे… पिता ने मुसलमानों से बेटे को जिताने की गुहार लगाई पर नाकामी हाथ लगी.. नीतीश मिश्र हार गए.. ये लालू का दौर था।

मुसलमानों को लालू से खूब स्नेह मिल रहा था… पटना से लेकर ब्लाक तक में मुसलमानों की अपेक्षाओं का खयाल रखा जा रहा था… यूपी में मुलायम को मुल्ला मुलायम ऐसे ही नहीं कहा गया… उन पर मुसलमानों की सदिच्छा और मुसलमानों पर सपा का प्रेम जगजाहिर है… मायावती तक की विशेष कृपा बनी रही है मुसलमानों पर।

यानि नेहरू के समय से आर्थिक और इमोशनल सहयोग का जो सिलसिला चला वो किसी न किसी रूप में जारी है… यानि जहां सहूलियत उधर झुकाव… गैर-बीजेपी खेमों की बेचैनी मुसलमानों की उसी तरल सोच की उपज तो नहीं? क्या ये विकलता स्मार्ट वोटर कौम को अपने पाले में बनाए रखने की है? आखिर संकट किस बात का है? ये मुसलमान का संकट है… या कांग्रेस ब्रांड सेक्यूलरिज्म का… सनातनियों का या फिर ६५ साला इंडिया का संकट है?

जारी है………..

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