आठवीं घंटी का विद्यार्थी हूँ (कविता)

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…..अखौरी प्रभात

क्योंकि स्कूल का अनुशासन 7 वीं तक है
मेरे जीवन के विद्यालय में
न हाजिरी कटने का भय
न फ्लेड – फाईन का संशय
न फेल होने पर मेंशन
न ऊँचे प्राप्तांक का टेंशन
अफसरों की फटकार नहीं
हेडमास्टर की तलवार नहीं
मनीटर का आतंक नहीं
क्लासटीचर का करंट नहीं
अब मैं सागर की बिन्दास मौजों का समानार्थी हूँ
क्योंकि आठवीं घंटी का विद्यार्थी हूँ !

जब मैं छात्र था, डण्डे से भयांकित था
नौकरशाह था, आचार संहिता से कुंठित था
शैशव भावनाओं के कवच रखता छुपा कर
किन्तु, सभी टूटे- बिखरे, हुक्मरानों की चोट खा कर
क्यों जग ने विद्यार्थियों को चरित्रहीन कहा,
नौकरशाहों को भ्रष्ट- नैतिकविहीन कहा
क्या सृजन का बीज उनमें व्यर्थ था ?
या संशय भरी दृष्टि का कोई अर्थ था ?
शायद उनके बीच मैं सत्यार्थी हूँ
क्योंकि आठवीं घंटी का विद्यार्थी हूँ !

जाने क्यूँ मुहल्ले में नैतिकवादी कहलाने लगा हूँ
बड़े समाज में कुछ-कुछ प्रतिष्ठा पाने लगा हूँ
क्या समाज के मूल्य निकृष्ट हो गए हैं
या हम भूलवश उत्कृष्ट हो गए हैं
लगता है वीरान बगीचे में कोई रेण हो गया है
या आंधी पानी झेलते कोई पौधा पेड़ हो गया है
मैं ही लोकतंत्र का सच्चा सारथी हूँ
क्योंकि आठवीं घंटी का विद्यार्थी हूँ।…….

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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