औसत से कम बारिश के बावजूद बिहार में बाढ़ तांडव क्यों मचा रही है?

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23 अगस्त …. सावन की अंतिम सोमवारी के दिन जब हजारो आस्थावानों ने कुशेश्वर स्थान मंदिर में जलाभिषेक किया तो उन्हें सहसा यकीन नहीं हो रहा था। जहां कई लोग भक्तिभाव में डूबे थे वहीं अन्य श्रधालु इस बात की तज-बीज कर रहे थे कि बीते सालों में सोमवारी के दिन इस मंदिर परिसर में कितना पानी हुआ करता था। बाढ़ की विभीषिका झेलने वाले दरभंगा जिले के लोगों को उस समय भी हैरानी हुई जब अलीनगर के गरौल गाँव के पास सूखे खेतों में पानी पहुचाने के लिए ग्रामीणों ने कमला नदी के मूंह को ही बाँध डाला। ये अगस्त के दूसरे सप्ताह का वाकया है। हर तरफ जन-सहयोग के इस मिसाल की चर्चा हुई। अधिकारियों ने भी लोगों को रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
हालांकि जन भागीदारी से बना ये बाँध बाढ़ आते ही ध्वस्त हो गया। उधर बाढ़ के कारण कुशेश्वर स्थान का सड़क संपर्क 25 अगस्त को भंग हो गया। यहाँ के उन किसानो को मायूसी हुई जिन्होंने हजारो एकड़ में धान, सब्जी, और दलहन की खेती की थी। कम बारिश के कारण सिमरटोका, गईजोरी, इटहर, और भरेन गाँव के जल-जमाव वाले खेत भी सूख गए थे जिसको किसानो ने इन फसलों से आबाद किया था। आम तौर पर 15 अगस्त के बाद इस नक्सल प्रभावित इलाके में बाढ़ नहीं आती है। लेकिन किसानो के भरोसे पर फिलहाल पानी फिर गया है।

हाल के दिनों में बिहार में सूखे का मुद्दा इतना गरमाया कि पुर्णिया जिले में बाढ़ की दस्तक लोगों के जेहन को झकझोड़ नहीं पाया। दर असल बाढ़ के संबंध में बिहार में दो तरह के दृश्य उभरते हैं। एक दृश्य उस वर्ग का है जो बाढ़ का कहर झेलता है। दूसरा वर्ग है नेताओं, पत्रकारों और एनजीओ का जो इसे उत्सव के रूप में लेता है। इस वर्ग को अपनी छवि चमकाने के लिए पहले वर्ग की असीम पीड़ा चाहिए। ऐसा इस बार नहीं हुआ है। इनकी नजर में बाढ़ से मरने वालों की संख्या इतनी नहीं बढ़ी है कि आंसू बहाए जाएं। हालांकि पुर्णिया ने टीवी चैनलों को अच्छे विजुअल जरूर दे दिए …..नदी के कटाव से एक स्कूल भवन का लटकता हुआ आधा हिस्सा जिसके नीचे बहती तेज धारा…..कुछ ही दिन बीते कि चंपारण में बाढ़ ने उग्र रूप दिखाना शुरू कर दिया। गंडक, बूढ़ी गंडक, और अन्य सहायक नदियों के उफान से लोग सहमे हुए हैं। कई जाने जा चुकी हैं। बाल्मिकी नगर का टाइगर प्रोजेक्ट इलाका भी बाढ़ से अछूता नहीं रहा। पर्यटकों को आकर्षित करने वाले सैकड़ो वन्य जीव अचानक आई उफनती धारा में बह गए। नरकटिया गंज रेल-खंड पर ट्रेन परिचालन कई बार ठप करना पड़ा है। बगहा का सड़क संपर्क टूटा…..दोन नहर तो कई स्थानों पर तास के पत्ते की तरह भहर गई। बंगरा और तिलावे नदी का तट बंध ध्वस्त हो गया। सिकरहना तट बंध टूटने से सुगौली इलाके में जल- प्रलय का दृश्य बन गया। त्रिवेणी तट बंध भी धराशाई हो चुका है।

 इधर बागमती नदी के उपद्रव से लोग सांसत में हैं। कटरा और औराई प्रखंड में स्थिति सोचनीये बनी हुई है। कटरा इलाके में तट बंधों के बीच के सैकड़ो घरों के ऊपर से पानी बह निकला। औराई के कई गाँव में लोगों ने पेड़ पर चढ़ कर जान बचाई। 25 अगस्त को सरकार ने आखिरकार गंडक, बागमती, और कोसी बेसिन में रेड अलर्ट जारी कर दिया। कोसी के पश्चिमी तट बंध पर जबरदस्त दबाव से अधिकारी सहमे हुए हैं। पानी का ये दबाव निर्मली के दक्षिण से जमालपुर तक बना हुआ है। दबाव को भांफ्ते हुए ही इस तट बंध की उंचाई तीन मीटर बढाने का फरमान जारी किया गया था। लेकिन महज एक मीटर उंचाई बढ़ा कर खाना पूरी कर ली गई। किरतपुर ढलान के निकट इस तट बंध के टूटने की आशंका से ग्रामीण डरे हुए हैं। तट बंध के अन्दर फंसे पचीसो गाँव टापू में तब्दील हो चुके हैं। अधिकाँश बाढ़-पीड़ित तट बंध और सरकार कि ओर से बने ” रेज्ड प्लेटफार्म ” पर शरण लिए हुए हैं।

बिहार में इस बार औसत से काफी कम बारिश हुई है। बावजूद इसके बाढ़ का कहर चिंता का कारण है। गंगा के उत्तर में बहने वाली अधिकाश नदियों का उदगम हिमालय है। बरसाती नदियाँ इन्हीं हिम-पोषित नदियों में मिलती हैं। ये हिम-पोषित नदियाँ बाद में गंगा में ” डिसजोर्ज ” होती हैं। गंडक सोनपुर के पास गंगा में मिल जाती है। इस इलाके की सबसे लम्बी नदी है- बूढ़ी गंडक । ये हिम-पोषित नहीं है और खगडिया के पास गंगा में जा मिलती है। जबकि कोसी , कुरसेला के निकट गंगा से संगम करती है। संगम से पहले कोसी बड़ा डेल्टा बनाती है। उधर, महानंदा , कटिहार जिले के गोदागरी के पास गंगा में समाहित होती है।

दर असल, गंडक से महानंदा तक नदियों का जाल बिछा है जो इस पूरे भू-भाग को एक-सूत्र में बांधता है। अधिकाश नदियों का ढाल उत्तर से दक्षिण-पूर्व की दिशा में है। शरीर की शिराओं की तरह बहती ये नदियाँ सुख और दुःख का ” पैटर्न ” बनाती है … ये नदियाँ एक सामान जीवन शैली का निर्माण भी करती। हर साल चंपारण से कटिहार तक बाढ़ तांडव मचाती है। दुःख लोगों को जोड़ता है। इनकी समृधि की राह में इन नदियों पर चल रह़ी आधी-अधूरी सिंचाई परियोजनाएं बाधक बन खडी हो जाती। कई इलाकों को सालो भर इसका खामियाजा भोगना पड़ता है। कुशेश्वर स्थान इसका ” क्लासिक ” उदाहरण है।
कुशेश्वर स्थान में बारिश हो या ना हो ….यहाँ बाढ़ जरूर आती है। इसी इलाके में बागमती , कमला-बलान, और कोसी के तट बंध जाकर ख़त्म होते। इसके आगे इन नदियों का सारा पानी पूरे क्षेत्र में पसर जाता है। बागमती बाद में बदला-घाट के पास कोसी में समाहित हो जाती है। इस साल भी बागमती कुशेश्वर स्थान में काफी पानी उड़ेल आई है। अधवारा समूह की नदियों का पानी भी हायाघाट में बागमती से जा मिलती है…जहां से आगे ये संयुक्त धारा करेह नाम धारण करती है।
अधवारा समूह और कमला बलान उफान पर हैं। ख़ास कर तट बंधों के बीच के गाँव और टोलों में रहने वाले सुरक्षित स्थानों पर चले गए हैं। यहाँ इनके सामने हर तरह की दिक्कतें हैं। रहने के लिए ठौर , भोजन, जलावन, पेय जल की व्यवस्था तो मुश्किल है ही साथ ही सर्प दंश की समस्या से भी इन्हें जूझना पर रहा है। महिलाओं को तो खासी परेशानी है। ये मुश्किलें हर बाढ़-पीड़ित इलाके में एक सामान है। राहत का काम अभी शुरू नहीं हुआ है। अधिकारी फिलहाल बाढ़ में फंसे लोगों को निकालने की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। नाव की कमी आड़े आ रह़ी है। कमला-बलान तट बंध पर अधिकारियों की असल चिंता पेट्रालिंग की है। पिछले सालों में इस तट बंध को ग्रामीण कई बार काट चुके हैं।

बिहार में इस साल इन्द्रदेव मेहरबान नहीं हैं। मौसम विभाग का अनुमान भी गलत साबित हो रहा है। राज्य के सभी जिले सूखाग्रस्त घोषित हो चुके हैं, जबकि बड़ी आबादी बाढ़ से जूझ रही है। लोग समझ नहीं पा रहे की औसत से कम बारिश के बावजूद बाढ़ तांडव क्यों मचा रही है? आम लोगों को बताया जा रहा है कि नेपाल ने पानी छोड़ दिया….इसलिए ऐसी नौबत आई है। इसी समझ के सहारे चंपारण के लोग बाल्मिकी नगर बराज को ” विलेन ” मान कोस रहे होंगे। फर्ज करिए ये सही हो …फिर बागमती बेसिन में मची तबाही के लिए किसे दोष देंगे …..बागमती पर तो बराज नहीं है। इतना ही क्यों… कुशेश्वर स्थान और खगडिया की दुर्दशा के लिए किसे कसूरवार ठहराएंगे?

दर असल, बिहार का भूगोल ही ऐसा है कि हर क्षेत्र के लोग बाढ़ की प्रक्रिया को अच्छे तरीके से समझ नहीं पाते। पहाड़ी इलाके के लोगों की इस संबंध में जो सोच है उससे अलग समझ गंगा के दक्षिण के मैदानी इलाके के लोगों की है। गंगा के उत्तर के लोग कमोवेश पूर्णता के साथ बाढ़ के चक्रव्यूह में फंसते हैं। सामान्य भाषा में कहें तो प्रकृति से जो पानी हमें मिलता है, कुछ हिस्सा रिसकर जमीन के अन्दर चला जाता है जबकि अधिकाँश हिस्सा बहते हुए समुद्र में जा मिलता है। इन्हें हम नदियाँ कहते हैं। यानि ये पानी के ‘ ड्रेनेज” का जरिया हैं। जमीन का ढाल नदियों के प्रवाह का ” डा इनेमिक्स ” तय करता है। ज्यादातर नदियाँ पहाड़ों से निकलती हैं जिनके पानी का स्रोत वर्षा, वर्फ और बड़े झील होते हैं। मैदानी इलाकों में कई नदियाँ बड़े चौरों से निकलती हैं। इसका बड़ा उदाहरण है बूढ़ी गंडक, जो कि पश्चिम चंपारण के चौतरवा चौर से निकलती है।

पहाड़ों और मैदानी भागों में जब मूसलाधार बारिश होती है तो पानी नदी के किनारों को पार कर जाता है। ऊँचे पहाड़ों पर बर्फ पिघलने से भी नदियाँ इस दशा में आती हैं। ये पानी बढ़ते हुए ख़ास दूरी तक जाता है जिसे नदी का ” कैचमेंट एरिया ” यानि डूब क्षेत्र कहते हैं। ये भौगोलिक प्रक्रिया है…जिसे वैज्ञानिक भाषा में ” बाढ़” कहते हैं। लेकिन जब डूब क्षेत्र की सीमा को भी नदी का पानी पार कर लेता है तो ये तबाही का कारण बनता है। जब हम कहते हैं कि बाढ़ से राज्य तबाह है तो हम इसी स्थिति की ओर इशारा कर रहे होते हैं…. यानि पानी का डूब क्षेत्र को भी पार कर जाने वाली स्थिति। अमूमन डूब क्षेत्र के बाहर आबादी अधिक रहती है। हर साल ये आबादी इस नौबत से गुजरती है।

गंगा के दक्षिण की नदियाँ हिम पोषित नहीं हैं। भारी बारिश से ही इनमे सैलाब आता है। जबकि गंगा के उत्तर की अधिकाँश नदियाँ हिम पोषित हैं। हिम पोषित रहने के कारण ये ” पेरेनियल रिवर ” कहलाती हैं यानि ऐसी नदी जिसमे सालो भर पानी आता हो। यही कारण है कि मानसून की दस्तक से पहले भी इनमे बाढ़ आती है। कभी-कभार ये पानी डूब क्षेत्र को भी पार कर जाता है। ऐसा अक्सर मई के दुसरे और जून के पहले पखवाड़े में देखने में आता है। कमला- बलान नदी के किनारे रहने वाले हर साल इस स्थिति से दो-चार होते रहते हैं।

नदियों के अत्यधिक फैलाव के अन्य कारण भी हैं। पहाड़ों पर पेड़ों की अंधा-धुन कटाई के कारण नदियों के पानी का बहाव तेज हो जाता है। तेज गति ” सिल्ट” की अधिक मात्रा मैदानों तक पहुंचता है। नदी का ताल उठाता जाता है, जिससे बाढ़ का पानी बड़े इलाके में फ़ैल जाता है।

बाढ़ के विस्तार की बड़ी वजह सिंचाई परियोजनाएं भी हैं। इन परियोजनाओं के तहत बराज या डैम और साथ ही नदी के दोनों किनारों पर तट बंध बनाए जाते हैं। तट बंधों के बीच की दूरी बहुत ज्यादा नहीं होती। नदी का पानी इन्हीं तट बंधों के बीच सिमटने को बाध्य रहता है। पानी के साथ जो सिल्ट आता है वो साल-दर-साल जमा होता रहता है। नतीजतन,  तट बंधों के अन्दर जमीन का तल उठता रहता है। उधर तट बंध के बाहर की जमीन पहले की तरह रहती है यानि तट बंध के अन्दर की जमीन की अपेक्षा नीची । यही कारण है कि तट बांध के अन्दर पानी का दबाव बढ़ने पर तट बंध टूट जाता है, और पानी नीची जमीन की तरफ भागता है। इस पानी का बेग इतना अधिक होता है कि लोगों को सुरक्षित स्थानों तक जाने का मौक़ा तक नहीं मिलता। इस साल भी सिकरहना, लखन्देइ, जमींदारी, त्रिवेणी नहर और दोन नहरों के तट बंध जब टूटे तो लोगों को भारी दुःख झेलना पड़ा।

सिंचाई परियोजनाएं जब पूरी हो जाती हैं तब लाभ के साथ साथ जो कष्ट भोगना पर सकता है उसकी बानगी की ओर इशारा किया हमने। अब हम बताते हैं आधी-अधूरी परियोजनाओं के खतरनाक परिदृश्य के संबंध में। अब बागमती परियोजना को ही लीजीये। ये बहु-उद्देशीये परियोजना अभी शुरू भी नहीं हुई है, लेकिन इस नदी पर कई जगह तट बंध बना दिए गए हैं। ढ़ंग से रूनी सैदपुर तक नदी का पानी तट बंधों के बीच कैद रहता है जिसे रूनी सैदपुर से आगे खुला छोड़ दिया गया है। लिहाजा कट रा इलाका पूरी तरह जलमग्न हो जाता है। इससे भी विकत स्थिति कुशेश्वर स्थान और खगड़िया की है। ये बताना दिलचस्प होगा कि 23 अगस्त को जिस समय कुशेश्वर स्थान में सूखे की स्थिति पर सरकारी अधिकारियों की बैठक चल रही थी उसी समय इस प्रखंड का सड़क संपर्क अनुमंडल मुख्यालय बिरौल से भंग हो गया। बाढ़ के पानी में सड़क डूब चुकी थी।

ना तो नेपाल में वर्षा ऋतू अलोपित हो जाएगी और ना ही हिमालय पर बर्फ पिघलना बंद होगा। ये भी अपेक्षा नहीं राखी जा सकती कि नेपाल भगवान् शिव की तरह ये सारा पानी जटाओं में कैद कर ले। समस्या के निपटारे के लिए नेपाल की सहभागिता को बल देना ही पड़ेगा।

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