अपसंस्कृति (कविता)

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सुनील दत्ता,

दुनिया की आप़ा धापी में शामिल लोग
भूल चुके हैं अलाव की संस्कृति
नहीं रहा अब बुजुर्गों की मर्यादा का ख्याल
उलझे धागे की तरह नहीं सुलझाई जाती समस्याएं
संस्कृति, संस्कार, परम्पराओं की मिठास को
मुंह चिढाने लगी हैं अपसंस्कृति की आधुनिक बालाएं
अब वसंत कहाँ ?
कहां ग़ुम हो गयीं खुशबू भरी जीवन की मादकता
उजड़ते गावं -दरकते शहर के बीच
उग आई हैं चौपालों की जगह चट्टियां
जहाँ की जाती ही व्यूह रचना
थिरकती हैं षड्यंत्रों की बारूद
फेकें जाते हैं सियासत के पासे
भभक उठती हैं दारू की गंध -और हवाओं में तैरने लगती हैं युवा पीढ़ी
गूँज उठती हैं पिस्टल और बम की डरावनी आवाज़
सहमी-सहमी उदासी पसर जाती हैं
गावं की गलियों, खलिहानों और खेतों की छाती पर
यह अपसंस्कृति का समय हैं |

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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