अब तो ‘राइट’ हो जाओ लेफ्ट
नवीन पाण्डेय, नई दिल्ली
यह तो अब सभी जान गए हैं कि बंगाल में बदलाव की बयार चली और ममता बनर्जी की आंधी में लेफ्ट का लाल किला भरभरा कर ढह गया। लेकिन इसके बाद सवाल उठता है कि क्या वाम विचारधारा अब भी इस देश में वजूद बचा पाएगी या फिर देश दो ध्रुवीय व्यवस्था की ओर जा रहा है। तो ऐसे में क्या वामपंथी देश के लिए जरूरी है। इस सवाल का जवाब पाने के लिए देश के मौजूदा हालात पर तनिक गौर करना होगा। विकास के तमाम दावों और रफ्तार पकड़ती अर्थव्यवस्था के लुभावने आंकड़ों के बीच महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है, कृषि संकट भयावह रूप लेता जा रहा है, अमीर और अधिक धनी हो रहे हैं गरीब किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। बेरोजगारी विकराल रूप लेकर सामने खड़ी है और भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया है। कई लाख करोड़ के घोटाले अब आम जनता को भले ही दुखी करते हों, लेकिन उसे चौंकाते कतई नहीं।
जेल जाते ए राजा हों, कलमाडी हों या बड़ी कंपनियों के दिग्गज अधिकारी, लोगों को पता है, आखिरकार इनका कुछ नहीं बिगड़ना है। इससे भी बड़ी बात है, अधिकांश मौकों पर सरकार लाचार की तरह सामने आती है और विपक्ष बेदम दिखता है। ऐसी स्थिति में मध्यवर्ग खूब चिल्लाता है, लेकिन सबसे ज्यादा बेहाल है आखिरी छोर पर खड़ा गरीब किसान और मजदूर। वो अपनी आवाज भी दिल्ली की सल्तनत तक नहीं पहुंचा पाता। बंगाल और केरल की सत्ता से विदाई ले चुके वामपंथी इसी गरीब, किसान, मजदूर और समाज के आखिरी छोर पर खड़े आदमी की आवाज सत्ता के गलियारों में पहुंचाने का काम करते रहे। कितना कर पाए, ये बहस का विषय है।
सिंगूर और नंदीग्राम ने बंगाल की सियासत बदल कर रख दी थी। वहां बुद्धदेव ने जो गलती की, उसको संभालने की तमाम कोशिश आखिर तक नाकाम साबित हुई। डैमेज कंट्रोल के तहत बुद्धदेव ने 2011 के विधानसभा चुनाव में अपने आधे प्रत्याशी बदल दिए और करीब पैंतीस हजार ऐसे कार्यकर्ताओं को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, जिन पर दाग लग गए थे। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी, जनता बदलाव का फैसला ले चुकी थी और सामने खड़ी थी बंगाल की शेरनी ममता बनर्जी। आम जनता को अब न विचारधारा देखनी थी और न इतिहास याद रखने की जरूरत लग रही थी।
ऐसा नहीं है कि लेफ्ट सरकार ने पिछले 34 साल में बंगाल में कोई काम नहीं किया। ऑपरेशन बर्गा के तहत भूमि सुधार कर लेफ्ट ने मजदूरों को जमींदार बनवाया, राज्य को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर बनवाया, शिक्षा का जनवादीकरण किया- जिससे बेहद निर्धन तबके तक शिक्षा की रौशनी पहुंच पाई। गांव गांव में स्कूल खुले और नाममात्र की फीस पर छात्र कालेज पास करने लगे। इसके अलावा बुनियादी सुविधाओं का विकास किया, जिससे रोजगार बढ़ा। लेकिन ये बीते जमाने की बातें हैं, उदारीकरण के दौर के बाद जब गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण के राज्य काफी आगे निकल गए तो बंगाल की वामपंथी सरकार ऊहापोह में जीती रही। लोगों ने 2006 में बुद्धदेव को भारी बहुमत देकर मौका दिया। बुद्धा बाबू समय की नजाकत समझ रहे थे, लेकिन विचारधारा उनके हाथ बांधने पर उतारू थी।
औद्योगीकरण की मंशा में बुद्धदेव ने पहले सिंगूर और फिर नंदीग्राम में बुरी तरह हाथ जला लिए। ममता बनर्जी अब उनके सिर पर सवार थी। पहले पंचायत चुनाव, फिर 2009 का लोकसभा चुनाव वामपंथियों के हाथ से निकल गया। वामपंथियों की हार का एक बड़ा कारण सस्ते संचार साधनों की सहज उपलब्धता भी रही। संचार के साधनों की पहुंच जब दरिद्र तबके तक भी पहुंचने लगी तो उनको लगने लगा कि वो दुनिया की दौड़ में अब पीछे छूट रहे हैं। नास्टेल्जिया में जीने वाले वामनेता तब भी इस बात का भी सटीक अंदाजा नहीं लगा पाए कि राज्य की युवा आबादी को उनके सालों पहले किए काम याद नहीं और अब उनको आज की चुनौती से निपटने वाली सरकार चाहिए। बिहार जैसा राज्य भी नीतीश कुमार की अगुवाई में विकास के कुलांचे भरने लगा तो लेफ्ट पार्टियों के खिलाफ लोगों का गुस्सा और भड़क उठा, उन्होंने समझ लिया कि अब वामदलों को ढोने का कोई मतलब नहीं। चुनाव नतीजे बता रहे हैं कि लेफ्ट के मंत्रियों को लेकर लोगों में कितना ज्यादा गुस्सा था, खुद बुद्धदेव जाधवपुर जैसे अपने गढ़ से सोलह हजार वोटों से हार गए।
ऐसे माहौल में फिर वहीं सवाल क्या वामपंथी अब देश की सियासत के लिए जरूरी नहीं रहे और क्या देश दो ध्रुवीय व्यवस्था की ओर जाने वाला है। भले ही ऊपरी तौर पर ऐसा दिखता हो, लेकिन लगता नहीं। पिछले दिनों एक के बाद हुए विकीलीक्स के खुलासों ने अहसास करा दिया है कि बीजेपी हो या कांग्रेस दोनों की नीतिया किस कदर अमेरिकी परस्त है और दोनों कैसे अमेरिकी राजदूतों से बातचीत में ये जताना नहीं भूलते कि आप हमारे फेवरेट हैं। और अमेरिका की साम्राज्यवादी नीतियां भारत में अपने व्यापार को बढ़ाने, सुरक्षित रखने के स्वार्थों से ही बंधी हैं। अपने देश को आतंकवाद से बचाने के लिए वो कुछ भी कर सकता है, लेकिन भारत जैसे देश में आतंकवाद रोकने के लिए उसे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की बजाय सियासत करना ही मुफीद लगता है। ऐसे में बड़े व्यापारिक घरानों और अमेरिका के खिलाफ खड़े होकर समाज के दरिद्रतम व्यक्ति की आवाज और उसके मुद्दे उठाने का साहस अगर कोई कर सकता है कि तो वो लेफ्ट पार्टियों में ही है। यह हार वामपंथियों के लिए अपनी तंद्रा तोड़ने का मौका हो सकता है, ये हार बदलती दुनिया और देश में अपनी विचारधारा पर नई सान चढ़ाने का मौका भी हो सकता है- बशर्ते वामपंथी बदलना चाहें। अब भी नहीं बदले तो इतिहास बनने से कोई नहीं रोक सकता।
( नवीन पाण्डेय दिल्ली के टेलीविजन न्यूज चैनल में वरिष्ठ पत्रकार के तौर
पर काम कर रहे हैं)
राइट कहे जाने वाले कभी राइट नहीं रहे। और लेफ्ट का मतलब भी होता छोड़ा हुआ, फेंका हुआ।
राइट और लेफ्ट दोनों ही शरीर को और देश को एक तरफ मोड़ देते हैं। हमें किसी मध्य की जरुरत है।
नवीन जी, पता नहीं को आपने कहाँ से जान लिया कि बिहार में विकास हो रहा है। लगता है राज्राय या देश की जधानी में अक्सर गलत समझने वाले ही लोग रहते हैं। बिहार के बारे में आप पूरी तरह प्रचारित बातों पर भरोसा कर रहे हैं।
ओह! उपर पहली पंक्ति में होता के बाद ‘है’ छूटा और अन्तिम अनुच्छेद में राज्राय की जगह ‘राज्य’ और जधानी की जगह ‘राजधानी’ हो गया।