आतंकवाद फ्रंट पर बुरी तरह से पिट रहा है भारत
मुंबई में एक बार फिर हुये बम धमाकों ने साबित कर दिया है कि भारत की इंटेलिजेंस कितनी सक्षम है। हालांकि गृहमंत्री पी चिदंबरम अभी भी यही कह रहे हैं कि केंद्र और राज्य की ओर से इंटेलिजेंस को लेकर कोई लापरवाही नहीं की गई है। इसके साथ ही राहुल गांधी यह कह रहे हैं कि 99 फीसदी आतंकी हमलों को रोका जा चुका है। जिस तरह बार-बार आतंकी देश के महानगरों को निशाना बना रहे हैं उसे देखते हुये आम लोगों के बीच में यही धारणा बनी हुई है कि भारत आतंकवाद फ्रंट पर बुरी तरह से पिट रहा है। आतंकी संगठन बार-बार अपने मकसद में कामयाब हो रहे हैं। यदि थोड़ी देर के लिए पी चिंदबरम और राहुल गांधी की थ्योरी पर यकीन कर लिया जाये तो भी यह सवाल उठता है कि इस 1 प्रतिशत पर काबू क्यों नहीं पाया जा रहा है? और यह एक प्रतिशत ही यदि भारत के लोगों को अंदर तक दहला दे रहा है तो फिर आतंकी संगठन अपने शत-प्रतिशत मंसूबों में कामयाब होने लगेंगे तो भारत की तस्वीर क्या होगी।
जैसा कि हर हर बड़ी आतंकी घटना के बाद होता है, देश और दुनिया के नेता भारत के प्रति सहानुभूति जुटा रहे हैं। सहानुभूति शब्द भारत के लोगों के लिए गाली सी हो गई है। आंतकवाद के सामने भारत की दीन हीन छवि उभर कर सामने आ रही है। अब तो स्थिति यह हो गई है कि हम खुद को चाहकर अपने आप को सम्मान से नहीं देख पा रहे हैं। हां फिल्मी गानों में देशभक्ति गीतों पर हम बेहतर तरीके से झूम सकते हैं, स्टेडियम में बैठकर क्रिकेट देखते हुये हम अपने चेहरों को तिरंगा से पोतकर अपनी देशभक्ति जाहिर कर सकते हैं, लेकिन भारत की सबसे बड़ी चुनौती आतंकवाद के सामने हम घुटने टेकते हुये नजर आते हैं। हमारी व्यवस्था इतनी सड़ी हुई है कि पकड़े गये आतंकी तक को पूरे मान और सम्मान के साथ करोड़ों रुपये खर्च करके उनकी खिदमत में लगे रहते हैं, और वे बेखौफ होकर हमें दांत दिखाते हैं।
सवाल ये नहीं है कि इस बार के आतंकी हमले में 21 लोग हलाक हुये हैं और 113 लोग घायल हुये हैं, सवाल ये है कि बार-बार इस तरह के आतंकी हमलों को झेलने के लिए हमलोग क्यों अभिश्त हैं? आतंकी हमलों के चपेटे में अक्सर सड़कों पर चलने वाला आम आदमी ही आता है। और इस आम आदमी की सुरक्षा की 100 प्रतिशत जिम्मेदारी सरकार और व्यवस्था की है। ऐसे में राहुल गांधी का यह कहना कि आतंकी घटनाओं पर 99 प्रतिशत तो काबू पाया जा चुका है एक बचकानी बात है। राहुल गांधी को यह समझना चाहिए कि खुफियातंत्र की नाकामयाबी की वजह से ही उनके पिता राजीव गांधी की जान गई थी। उनकी दादी इंदिरा गांधी की हत्या के मामले में भी कहीं न कहीं व्यवस्था ही दोषी था।
भारतीय खुपियातंत्र का इतिहास नाकामयाबियों से भरा हुआ है। जन अधिकारों के लिए लोकपाल जैसे बिल को लेकर आंदोलन छेड़ने की बात तो यहां हो रही है लेकिन समग्र सुरक्षा को लेकर कोई व्यापाक पहल होता नहीं दिख रहा है, खासकर आतंकवाद को लेकर।
आतंकवाद की जड़ें भारत में कहीं गहरी धंसी हुई हैं। इन संगठनों के लिए खाद पानी यहां पर मौजूद है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि आतंकवाद की जड़ों को काटा जाये। जड़ों तक पहुंचने के लिए एक कुशल खुफिया संगठन निहायत ही जरूरी है। इस मामले में हम औरंगजेब के शासन काल से भी सबक ले सकते हैं, जिसने अपने राज्य में चलने वाले षडयंत्रों पर काबू पाने के लिए खुफिया संगठन का कुशल इस्तेमाल किया था। या फिर नाजीवादी व्यवस्था के तर्ज पर भी गेस्टापो जैसी कोई संस्था का गठन कर सकते हैं, जो आतंकवादियों को चिन्हिंत करके उन्हें एलिमिनट करता जाये। आतंकवादी सीधे लोगों की जान से खेल रहे हैं, इसलिये उन्हें भी जीने का कोई अधिकार नहीं है। यदि शहादात ही उनकी मंजिल है तो घटनाओं को अंजाम देने के पहले ही उन्हें जहन्नुम रसीद करने की पुख्ता व्यवस्था की जाये। गिरफ्तारी के बाद आतंकियों को लेकर चलने वाले प्रोस्ड्यूर थकाऊ होते हैं। इस मामले में इजरायल भी हमारे सामने एक बेहतर उदाहरण पेश करता है।
भारत सिर्फ बाबा (रामदेव) जैसे निहत्थों पर अपनी धौस दिखा सकता है।