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इरोम शर्मिला की एक मासूम जिद
महात्मा गांधी के आदर्श राज्य में कानून की जरूरत नहीं थी। राज्य की बढ़ती हुई शक्ति को वह व्यक्ति के हित के खिलाफ मानते थे। उनकी नजरों में राज्य अपनी शक्ति का विस्तार करके अंतत: व्यक्ति की स्वतंत्रता को ही आघात पहुंचाता है। इसलिए शांति और सुरक्षा के नाम पर बनने वाले तमाम तरह के कानूनों को भी शंका की नजर से देखते थे। मणिपुर की इरोम शर्मिला पिछले 12 वर्षों से गांधी जी के सिद्धांत पर चलते हुये पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने की मांग को लेकर आमरण अनशन कर रही हैं और इसकी वजह से उन पर खुदकुशी करने का मामला चल रहा है। अहिंसक संघर्ष में पूरी तरह से यकीन रखने वाली इरोम शर्मिला इस बात पर जोर देती हैं कि वह जीना चाहती हैं। मरने का उनका कोई इरादा नहीं है, लेकिन जिस तरह से पूर्वोत्तर राज्यों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के तहत नागरिक अधिकारों का दमन किया जा रहा है, उसे वह कतई पसंद नहीं करतीं और इस मसले पर अहिंसक तरीके से विरोध करने का उनका पूरा हक है।
कई गैर सरकारी संगठन इरोम के साथ हैं और दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि पूर्वोत्तर राज्य के आम लोग भी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ इरोम के साथ खड़े हैं। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या वाकई में पूर्वोत्तर राज्यों में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून की जरूरत है? इस कानून को किन परिस्थितियों में वहां लागू किया गया था और क्या आज वो परिस्थितियां बदल गई हैं? मणिपुर से लेकर दिल्ली तक इरोम शर्मिला के साथ सहानुभूति रखने वालों की कमी नहीं है। लंबे सघर्ष ने निस्संदेह उन्हें एक राष्टÑीय व्यक्तित्व का दर्जा प्रदान किया है, लेकिन मूल प्रश्न आज भी जस के तस हैं कि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के बिना हिंसाग्रस्त पूर्वोत्तर राज्यों में शांति बनाये रख पाना कहां तक संभव है?
सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून भारतीय संसद द्वारा 11 सितंबर, 1958 में पारित किया गया था, जिसके तहत सेना को ‘अशांत राज्यों’ में कुछ विशेष शक्तियां प्रदान की गई थीं ताकि पृथकतावादी और चरमपंथी शक्तियों से निपटने में सेना कारगर भूमिका निभा सके। अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा में इसे लागू किया गया, जहां पर उस वक्त अलगाववादी शक्तियां अपना पैर पसार रही थीं। बाद में थोड़ा बहुत संशोधन के बाद जुलाई, 1990 में इसे जम्मू- कश्मीर जैसे हिंसाग्रस्त राज्य में भी लागू किया। इस बात से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि इन राज्यों में उस वक्त के हालात के मद्देनजर इस कानून की जरूरत थी। अलगाववादी विचारधारा से ओत-प्रोत होकर इन राज्यों में कई हथियारबंद गुट खूनी लड़ाई छेड़ कर सीधे भारत की संप्रभुता और एकता को गंभीर चुनौती दे रहे थे। सीमावर्ती इलाका होने की वजह से अपने नापाक इरादों के साथ इन क्षेत्रों में विदेशी शक्तियां भी सक्रिय थीं। इन क्षेत्रों में धैर्यपूर्वक की गई लंबी कार्रवाई का ही नतीजा है कि वहां के तमाम हथियारबंद गुट आज हाशिये पर नजर आ रहे हैं। वहां स्थापित शांति का ही नतीजा है कि मानवाधिकार को लेकर हल्ला मचाने वाले संगठन पूर्वोत्तर राज्यों में कुकुरमुत्ते की तरह उग आये हैं। अपने चरम दौर में जब अलगावादी आमलोगों के साथ-साथ वहां स्थापित सैनिकों को निशाना बना रहे थे, उस वक्त इन मानवाधिकारवादी संगठनों का कोई पता नहीं था। अब जब इरोम शर्मिला पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून हटाने की मांग को लेकर 12 साल से आमरण अनशन कर रही हैं, क्या वह विश्वास के साथ यह कह सकती हैं कि इस कानून को हटाने के बाद इन राज्यों में पृथकतावाद का एक नया दौर फिर से नहीं शुरू होगा? यदि थोड़ी देर के लिए अलगाववादियों को छोड़ दिया जाये तो भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पूर्वोत्तर राज्यों में नस्लीय हिंसा का भी एक खौफनाक इतिहास रहा है। इन बातों के मद्देनजर क्या इरोम शर्मिला की ‘मासूस जिद’ पूर्वोत्तर राज्यों के हक में है?
अपने बेमिशाल संघर्ष की वजह से इरोम शर्मिला को ‘मणिपुर की लौह महिला’ भी कहा जाने लगा है। इंफाल हवाई अड्डे के पास मलोम इलाके में असम राइफल्स के जवानों द्वारा 10 लोगों को हलाक किये जाने के बाद साल 2000 में उन्होंने आमरण अनशन शुरू किया था, जो आज तक जारी है। उन्हें न्यायिक हिरासत में रखकर नाक में लगी एक नली के माध्यम से तरल पदार्थ देकर जिंदा रखा जा रहा है। आमरण अनशन शुरू करने के तीन दिन बाद ही उन्हें हिरासत में ले लिया गया था और उन पर खुदकुशी का मामला दर्ज किया गया था। उसके बाद से उन्हें कई बार रिहा किया गया। फिर भी वह कुछ भी खाने से साफ तौर पर इन्कार करती आ रही हैं। वर्ष 2006 में वह दिल्ली में थीं। राजघाट में महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि देने के बाद उन्होंने जंतर- मंतर पर आयोजित एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन में भाग लिया था। जहां उन्हें खुदकुशी करने की कोशिश करने के आरोप में हिरास्त में लेकर एम्स पहुंचाया गया था। इसके बाद उन्होंने एम्स से ही राष्टÑपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को पत्र लिखकर पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाने की मांग की थी। अहिंसक रास्ता अख्तियार करने की वजह से उनके आंदोलन को सम्मानजनक नजर से देखा जा रहा है और देशभर में दिन प्रति प्रति दिन उनके समर्थकों की संख्या बढ़ती जा रही है। अब तक उन्हें कई तरह के छोटे-बड़े राष्टÑीय व अंतरराष्टÑीय पुरस्कार भी हासिल हो चुके हैं, लेकिन अभी तक पूर्वोत्तर राज्यों से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून को हटाया नहीं गया है और देश के उस हिस्से में अभी जिस तरह के माहौल हैं, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि इसे निकट भविष्य में हटाया भी नहीं जाएगा।
इरोम बार-बार जोर देते हुये कहती रही हैं कि वह उस सरकार के खिलाफ हैं, जो शासन करने के लिए हिंसा का सहारा लेती है। वह नागरिक अधिकारों और न्याय की बात तो करती हैं लेकिन अलगाववादियों द्वारा की जाने वाली हिंसा पर खामोश रहती हैं। इसके साथ ही अपने आंदोलन को वह एक क्रांति के रूप में देखती हैं, जिससे पूर्वोत्तर राज्यों के सारे लोग जुड़े हुये हैं, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों में जारी हिंसा में मारे गये भारतीय सैनिकों की चर्चा नहीं करती हैं। इरोम एक भावुक बच्ची की तरह लंबे समय से जिद करके खाना-पीना छोड़े हुये हैं। स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों को लेकर उनके और उनके समर्थकों के साथ-साथ तमाम मानवाधिकारवादी संगठनों के पास तमाम तरह के तर्क हो सकते हैं, लेकिन चरमपंथियों की गोलियों का जवाब इनके पास नहीं होगा। अधिकतम सुरक्षा की गारंटी के लिए यदि मानवाधिकारों का न्यूनतम हनन होता है तो कोई भी राज्य इसी रास्ते पर चलना बेहतर समझेगा। अहिंसा के पुरोधा महात्मा गांधी को एक सुविचारित हिंसा का शिकार होना पड़ा था। हिंसा के तमाम उपदेश धरे रह गये थे। सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून की वजह से ही पूर्वोत्तर राज्य हिंसा के दौर से बाहर निकल रहे हैं। ऐसी स्थिति में इरोम की भावना के साथ सहानुभूति तो रखा जा सकता है, लेकिन उसे अमलीजामा पहनाने का रिस्क नहीं लिया जा सकता। व्यावहारिक राजनीति का तकाजा यही है।