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किरायदार – एक खामोश वर्ग

किरायदार होने का अपना एक अलग ही दर्द है। रोटी, कपड़ा और मकान इंसान की मूलभूत आवश्यकता मानी गई है। हर इंसान को छत की जरुरत है। ठीक उसी तरह जैसे हर इंसान को रोटी और कपड़ा चाहिए। बहुत बड़ी संख्या को अपनी पनाह में लिए हुए दिल्ली एक बड़ी आबादी को किरायदार बना देती है जिनके दर्द को समझने की ना तो व्यवहारिक कोशिश की गई, ना ही साहित्यिक प्रयास किए गए।

किरायदार कार्ल मार्क्स के मजदूर की तरह क्रांति के वाहक भी तो नहीं हैं जबकि इनकी स्थिति भी उन मजदूरों की तरह ही है जिनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं। लेकिन एक मायने में वे मजदूरों से अलग भी हैं क्योंकि इनके पास पाने के लिए छोटे–छोटे सपने भी हैं। एक दिन अपना मकान होने और उसके मालिक बनने के सपने हैं। एक मजदूर के पास पूंजीपति बनने का सपना नहीं है। एक किरायदार का वर्गीय चरित्र भी ऐतिहासिक रुप से कभी विश्लेषित नहीं किए गए। दुनिया के महान क्रांतिकारी लेनिन ने अपनी जिंदगी के एक बहुत बड़े समय को रुस से निष्कासित हो कर लंदन और अन्य स्थानों पर किरायदार के रुप में बिताए थे। मक्सिम गोर्की की आपबीती तो एक किरायदार की आपबीती मालूम पड़ती है। लेकिन पूंजीपति और सर्वहारा के वर्गीय विभाजन में किरायदार का स्वरुप ऊभरकर नहीं आ सका।

    दिल्ली में अगर सबसे बड़ी संख्या में कोई संबंध चल रहे हैं तो वह है- मकानमालिक और किरायदार का। इस शहर में आसानी से किराए की खोली की तलाश भी नहीं की जा सकती। इसके लिए यहां दलालों और प्रोपर्टी डीलरों की पूरी फौज खड़ी है।उनकी कमीशन के रेट अलग-अलग इलाकों के अनुसार बंधे हुए हैं। करीब-करीब सभी ओर हर तीन-चार दुकानों के बाद प्रोपर्टी डीलर की दुकानें खड़ी हैं जो मकानमालिक और किरायदार के संबंधों की पूर्ण व्यवसायिक नींव स्थापित करती हैं।

    “भईया ! नल की टोटी खुली रखी है क्या ? पानी तो टंकी में पहुंच ही नहीं रहा”। मकानमालिक के ये शब्द किरायदार की रोज की जिंदगी से आत्मसात हो जाते हैं। आप पानी बहुत ज्यादा बहते हो, आपके कमरे की बत्ती भी रात भर जलती रह जाती है। एक किरायदार के पास इसका कोई भी जवाब नहीं हो सकता। अपने पक्ष में वह कोई सबूत भी नहीं तलाश सकता क्योंकि न पानी का बहाव दिखाई देता है, न बिजली की गति। किरायदार की खामोश निगाहें सबकुछ सुन लेती हैं क्योंकि अगर चिकचिक और बड़ी, तो मकानमालिक के तरफ से ही स्पष्ट जवाब मिल जाएगा – “भईया!  अपने लिए कमरा कहीं और देख लो”। उसे किसी भी पल नंगा किया जा सकता है। पैसे की खोखली बुनियाद पर खड़ा यह संबंध एक पल में बिखर जाता है।

इधर दिल्ली रेंट कंट्रोल एक्ट के तहत कानूनी पेंच लगाकर इस संबंध को स्थापित करने की कोशिश की गई है। इस एक्ट की बिडम्बना यह है कि यह पैंतीस सौ रुपय तक के रेंट पर लागू होता है जो दिल्ली के लिए मजाक है। वास्तव में यह सरकार के लिए इस मामले में अपना पल्ला झाड़ने वाला कदम है क्योंकि राजनीतिक दलों और नेताओं के लिए ये किरायदार स्थायी वोटर भी नहीं हैं। जनतांत्रिक राजनीति में मजदूरों की तो कोई कीमत हो सकती है पर किरायदारों की कोई कीमत नहीं है। मजदूरों का संगठन है, किरायदारों का कोई संगठन नहीं होता है।

वक्त के थपेड़ों को झेलता,गुमनामी की जिंदगी बिताता यह किरायदार वर्ग, समय के साथ नए लोगों को जोड़ता तथा कुछ लोगों को निष्कासित करता दिल्ली के बाजार का हिस्सा बन गया है। इस महानगर में मकानमालिकों का एक ऐसा समुदाय तैयार हो गया है जिनका पूरा परिवार मकान के किराये पर झूम रहा है,उनको कुछ भी करने की जरुरत नहीं। ऐसे कुछ परिवार के बच्चे पढाई-लिखाई का भी जहमत नहीं ऊठाते। वहीं एक खामोश वर्ग के रुप में किरायदार सदियों से जिंदा है पर यह दिल्ली में अपनी पहचान का अहसास भी नहीं करा पाता ।

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