जेठानी-देवरानी के रिश्तों से बंधे ये किन्नर
आश्चर्य,रहस्य,उपहास और उपेक्षा को समेटे हुए मानव का यह तीसरा रुप आज अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत है। जिंदगी और इसकी व्यवस्था की अलग सोच रखने वाली यह धारा भारतीय समाज में एक मजबूत सांस्कृतिक प्रवाह लिए हुए है। मानवीय मूल्यों के इस ऐतिहासिक धरोहर को आज भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं और इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है।
बिहार के समाज में किन्नरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी और बेचारगी का द्वंश झेलते ये किन्नर, समाज में विभिन्न संगठनों द्वारा नाच गाने के प्रदर्शन के लिए संचालित होते हैं। पारंपरिक गीतों के साथ किसी भी खुशी के अवसर को अपने आशीर्वाद से ये पूर्ण करते हैं। ऐसी मान्यता है कि नवजात शिशु को यदि इनका आशीर्वाद मिल जाए तो उसे ताउम्र कोई तकलीफ नहीं होती।
अपने रुप, स्वरुप और विचारों को अभिव्यक्ति देते पटना के किन्नर समुदाय की बातचीत के अंशः
साधु किन्नर के अनुसार उनकी जिंदगी आज पूरी तरह से समाज और उनके गुरुजी को समर्पित है। जैसी आज्ञा होती है वे उसका तहे दिल से पालन करते हैं। अपने परिवार,माता-पिता,भाई-बहन किसी की उन्हें याद नहीं है। उनका कहना है कि जब वे काफी छोटे थे तभी उनको इस शारीरिक स्थिति की वजह से काफी तकलीफ उठानी पड़ती थी, अतः भगवान बुद्ध की तरह गृह त्याग दिया और गुरु जी की शरण में आ गए। वे अहसानमंद हैं अपने गुरु के जो स्वयं भी किन्नर ही होते हैं जिनके शरण में जा कर उन्हें समाज में जीने का एक रास्ता मिलता है। सामान्य इंसानों की फेहरिस्त से बाहर दिखने वाले ये किन्नर इंसानी बीमारियों से अछूते नहीं हैं। मधुमेह (डायबटिज) से ग्रसित साधु किन्नर ने बताया कि अभाव और गरीबी की स्थिति में वे डॉक्टर और दवाई के लिए कोशिश भी नहीं करते। नाच-गाने के दरमयान चक्कर आने पर उन्हें डॉक्टरी जांच में अपनी इस बीमारी का पता चला परंतु फिर भी इसके इलाज के प्रति वे उदासीन बने हुए हैं।
उनके एक अन्य सहयोगी पूजा किन्नर का दर्द भी अमूमन यही है। उन्हें भी अपने परिवार के बारे में चर्चा करना अच्छा नहीं लगता है। परिवार की याद तो उन्हें है लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को वे याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर डबडबायी आंखों और भर्राए गले से पूजा किन्नर बताते हैं कि मेरे और भी भाई-बहन हैं जो सामान्य इंसानों की तरह हैं परन्तु मेरा उनसे मिलना-मिलाना नहीं होता। मैं भी उन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहती, मैं अपनी इसी दुनिया में मस्त हूं। जब ईश्वर ने ही हमारे साथ इंसाफ नहीं किया तो फिर दूसरों से कैसी शिकायत।
अपनी नाच-गानों की परिपाटी और अपने गुरु द्वारा दिए गए परिवार में ही वे मगन हैं। उन्होंने बताया कि महिलाओं के रिश्तों के प्रत्येक बंधन उनके परिवार की श्रृंखलाबद्ध शक्ति है। मसलन एक गुरु के सारे चेलों को प्रत्येक छह लोगो में विभाजित कर दिया जाता है जिसमें सभी जेठानी-देवरानी (गोतनी) के रिश्तों में बंधे होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है और पीढ़ियां बदलती जाती है, इनका पद उपर बढ़ता जाता है। बढ़ती उम्र के साथ ये गुरु के पद पर पहुंच जाएंगी तो इनके चेलों दर चेलों के साथ इनका रिश्ता सास-बहू का बन जाएगा। तीसरी पीढ़ी के संबंध स्थापित होते ही ये दादी भी बन जाएंगी। किन्नर होते हुए भी इनका रुप स्त्री का ही होता है। महिलाओं के लिबास,उनकी भाव-भंगिमा और नाज-नखरे इनका आभूषण होते हैं।
पूजा किन्नर और साधु किन्नर के दो सहयोगियों ने छठ व्रत कर रखा था। उनकी अनुपस्थिति पर पता चला कि वे अभी छठ महाव्रत के अनुष्ठान में लगी हुईं हैं। छह लोगों में चार नाचने-गाने एवं गानों के सहयोग के लिए दो ढोलकिए भी इनकी गोष्ठी में होते हैं।
रामाशीश और राज वल्लभ दोनों ढ़ोलक की थाप देते हुए इन्हें गाने में सहयोग करते हैं। ये ढोलकिए किन्नर नहीं हैं। ये वे नन्हें लावारिस बच्चे हैं जिन्हें कभी जन्म देने वाली इनकी माँ ने भी नहीं अपनाकर सड़को के हवाले कर दिया था। उन्हीं लावारिस,लाचार और समाज से ठुकराए(बहिष्कृत) बच्चों को ये किन्नर समाज अपनाते हैं और उन्हें दो जून की रोटी तथा तन पर कपड़ा मुहैया करा कर उनके अमूल्य जीवन की रक्षा करते हैं। वही नौनिहाल बड़े होकर इनके संगठन में ढोलकिए के रुप में एक स्तंभ का काम करते हैं। इनके अनुसार ये बच्चे सामान्य होते हैं इसलिए इनकी जरुरतें भी सामान्य होती हैं। बड़े होने पर पारंपरिक तरीके से इनका विवाह कर दिया जाता है। रामाशीष कहते हैं कि उनका एक बेटा है जो शादी-शुदा है और अपने परिवार के साथ खुश है। इनसे मिलने तथा इनकी जरुरतों को पूरा करने वह प्रायः आता रहता है। राजबल्लभ को भी अपने परिवार का पूरा सहयोग मिलता है। इस पेशे को छोड़ने के संदर्भ में इनका कहना है कि उनकी पूरी जिन्दगी इसी में कट गई तो इस अंतिम पहर में इसे नहीं छोड़ सकता।
पूरे संगठन के प्यार व्यवहार तथा अपनापन को देखकर ऐसा लगा मानों इनसे संबंधित जितनी भी भ्रांतियां लोगो के मन में है उसका कोई औचित्य नहीं है। इनकी शारीरिक बनावट जैसी भी हो उनके सीने में धड़कने वाला दिल एक आम इंसान का ही है। हृदय को छू जाने वाली इनकी कहानी और किसी के दुख में इस्तेमाल किए जाने वाले इनके कोमल शब्द,खुशी (खासतौर से बेटे के जन्म पर) में बड़ी रकम के लिए इनकी नाराजगी तथा रुठने-मनाने का दौर फिर परिस्थितियों के अनुकूल इनका मान जाना एक अलग ही अनुभूति देता है।
राजनैतिक सवालों पर सभी ने एक मत से कहा कि हम लोगों का भी वोटर कार्ड बना हुआ है और सब ने इस बार के बिहार विधान-सभा चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग किया है। किसे मत देने के सवाल पर चुप्पी और मुस्कुराहट के साथ गोपनीयता की बात कर सभी ठहाके लगाते हैं। नीतीश राज की सराहना करते हुये लालू के शासन में खेली गयी होली को भी वे नहीं भूल पाते ।
किन्नरों के बारे में पढ़कर बहुत अच्छा लगा। कहानी मर्मस्पर्शी है।
Thanks for some great thoughts there. I am kind of new to online , so I printed this off to put in my file, any better way to go about keeping track of it then printing?
This is not a story rather a true story about eunuchs’ miserable plight in our society. It is highly deplorable that they are abandoned by their parents/families and they have to depend upon cheap profession of singing and dancing in the joys and happiness of others while keeping their personal griefs inside themselves. The government should at least ensure free medical facilities to them so that they can survive like normal human beings. Anita Gautam deserves all praise for highlighting this social problem before us.
It is a nice and touching story. I came to know several unseen pages of their life. Thanks Anita ji for such a investigative and informative story.