हार्ड हिट

चित बेजान करने वाला शब्द-पलायन

जहाँ से निकले वहाँ दिक्कत ….. जिनके चमन में पहुंचे उन्हें तकलीफ। आखिरकार मन में आशंकाओं के उफान को थामे ही कोई घर-बार छोड़ता है। चित बेजान करने वाला शब्द-पलायन–यानी किसी जन-समूह की वो तस्वीर जिसके हर पिक्सेल में भयावह दर्द तो है, लेकिन आज के दौर के राजनीतिक स्पेस में मुद्दा बनने की तपिश से महरूम ….यानी निरीह। लिहाजा ये झांकता है पर देखने वाले को बेदम नहीं करता। पिछले लोकसभा चुनाव के समय से अब तक पलायन की चर्चा गाहे-बगाहे हो रही है। नरेगा को महिमा-मंडित करने, उसे क्रांतिकारी कदम साबित करने के मंसूबों की वजह से भी ऐसा हो रहा है। लुधियाना, बम्बई, और दिल्ली में पलायनकर्ताओं के मौन चीत्कार समय-समय पर इस त्रासदी की याद दिलाते हैं। निश्चित तौर पर कुछ महीनो बाद बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव तक अखबार के पन्नो में इस शब्द को जगह मिलती रहेगी।

कहा जा रहा है कि नरेगा वो जादुई छड़ी है, जिसने पलायन को न सिर्फ रोका है, बल्कि उसका खात्मा करने वाला है। पलायन पर सालो काम कर चुके तमाम पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, और पोलिटिकल एक्टिविस्ट भौचक हो अपने अनुभवजन्य राय को फिर से टटोलने में मशगूल हैं। हाल ही में दिल्ली से बिहार जाना हुआ तो ये सारे सवाल जेहन में घुमड़ रहे थे।

नई दिल्ली स्टेशन पर अलग ही तरह की अफरा-तफरी का माहौल था….रिजर्वेशन टिकट के बावजूद यात्रियों में निरहट बिहारी हड़बड़ाहट के दर्शन हो रहे थे। खैर जैसे-तैसे अपनी बर्थ पर पहुंचा ही था कि कोई जोर से चिल्लाया….अबे हट यहाँ से…कुछ सोच पाता तब तक सामान से भरा प्लास्टिक का बोरा मेरे पैर से टकराया। जब तक चोट को सहलाता ….बोरा मेरी बर्थ के नीचे’ एडजस्ट’ कर दिया गया था। कुछ ही देर में सामान चढ़ाने वाले ओझल हो चुके थे और रह गए एक सज्जन ..पलथी मार मेरे सामने वाले बर्थ पर आसन जमा चुके थे। चेहरे पर पतली सी मुस्कान…बीच-बीच में मोबाइल पर दबती उनकी अंगुली। उनके हाव-भाव से इतना तो समझ आ ही गया था कि गाँव-घर छोड़कर पहली बार दिल्ली आने वालों की फेहरिस्त में शामिल नहीं हैं वे। बेतहासा पलायन के शुरूआती दौर में ही दिल्ली आ गए होंगे। अब तजुर्बा हो गया है…सो सफ़र के दौरान सावधान और ‘ कांफिडेंट’ दिखने की हरचंद कोशिश। खैर …कुछ ही घंटों में बात-चीत का सिलसिला शुरू हो गया। पता चला …नाम जगदीश साहू है और दरभंगा जिले के कुशेश्वर स्थान के नजदीक किसी गाँव के रहने वाले हैं। दिल्ली के आजादपुर इलाके में कई सालों से खीरा बेच रहे हैं। ‘ रेडी’ पर नहीं… आजादपुर मंडी में बजाप्ता एक पटरी मिल गई है। जगदीश बड़े गर्व से कहते हैं—गद्दी है…खीरा का होल सेल करते हैं। पांच किलों से कम माल वे जोखते ही नहीं हैं। आमदनी का सवाल सुनते ही हिसाब लगाने लगते हैं…वही नौ-दस हजार हो जाता है। उनके गाँव के तीन और यात्री ट्रेन में सफ़र कर रहे थे। थोड़ी ही देर में ये आभास हो चला कि जगदीश साहू ‘ मेठ’ की भूमिका में थे। अनायास ही उसने कहा- चार-पांच सौ रूपया ही साथ लेकर चलते हैं। ट्रेन में टीटीई की छीना-झपटी, और दरभंगा स्टेशन पर पाकिटमार गिरोहों के खतरे से वाकिफ ..जगदीश ने काफी रूपये पहले ही घर भेज दिए थे।

मैं गुण-धुन में पड़ा रहा। कुशेश्वर स्थान तो कालाजार, मलेरिया, और बाढ़ के लिए जाना जाता है। उस इलाके में एटीएम काम करता होगा, सहसा विश्वास करना मुश्किल है। मनी आर्डर का भरोसा नहीं, क्योंकि पोस्ट मास्टर की जेब से कितने महीनो बाद ये जरूरतमंदों को मिलता होगा कहना कठिन । मेरी उत्सुकता का निराकरण जगदीश ने ही किया। दरअसल उसके गाँव में एक ही ब्राह्मण परिवार है, जिसके मुखिया हैं…बिलट झा। बिलट भी अब दिल्ली में ही रहते हैं। पहले कुछ काम-धंधा किया पर फ़ायदा नहीं हुआ। जैसे-तैसे पैसे जोड़कर मोटर साईकिल खरीदी। गाँव में बिलट का छोटा भाई रहता है। जिसके पास कुछ ‘ रनिंग मनी ‘ का इंतेजाम बिलट ने कर दिया है। बिलट का काम है दिल्ली में रह रहे उसके गाँव -जबार के लोगों से संपर्क करना। जिसे भी रूपये गाँव भेजने होते हैं वो बिलट को रकम दे देता है। तत्काल बिलट के भाई को इसकी सूचना दी जाती है। औसतन दो घंटे के भीतर संबंधित व्यक्ति को रूपया ‘ पे ‘ कर दिया जाता है। जगदीश के मुताबिक़ रूपये-पैसे भेजने का इस तरह का इंतजाम दिल्ली के हर उस इलाके में जड़ जमा चुका है जहां प्रवासी मजदूर बड़ी संख्या में रह रहे हैं। यानि बिहार के हर बड़े गाँव के जो लोग ‘ दिल्ली कमाते हैं ‘..उनके बीच का कोई एक सदस्य बिलट की भूमिका में है। बिलट होने के लिए कोई बंधन नहीं…महज गाँव में उसके परिजन के पास ‘ रनिंग मनी ‘ हो…साथ ही गाँव वालों का उस पर भरोसा हो। जात-पात-धर्म …का कोई बंधन नहीं। फिलहाल इस व्यवस्था को कोई नाम नहीं दिया गया है। कमीशनखोरी कह लें…निजी बैंकिंग सेवा कह लें…या फिर हवाला कारोवार का देसी संस्करण। अब थोड़ी बात लेन-देन के इस सरोकार के पीछे के फायदे की। जगदीश साहू जैसों को छह रूपये प्रति सैकड़ा अदा करना पड़ता है। यानि एक हजार के लिए 60 रूपये….ऐसे ही दस हजार रूपये घर भेजने के लिए 600 रूपये लगेंगे। कमीशन की रकम …संभव है…बहुतों को अधिक जान पड़े। लेकिन जगदीश साहू समय पर और सुरक्षित सेवा को ज्यादा अहमियत देते हैं। ये भी संभव है की दिल्ली के अन्य इलाकों में ये ‘ रेट ‘ कम-ज्यादा हो। वैसे भी दिल्ली में 25 फीसदी मजदूर ही परिवार के संग रह रहे हैं। शेष 75 फीसदी के लिए तो कमाई का अधिकाँश हिस्सा गाँव भेजना प्राथमिक मकसद है। पंजाब, गुजरात, मुंबई कमाने वालों के बीच भी लेन देन का ये चलन जोर पकड़ रहा है। पलायन के मुद्दे पर काम करने वालों को इस आर्थिक पहलू पर गहन पड़ताल करनी चाहिए। बिहार की फिजा इन दिनों बदली-बदली सी है। ड्राइंग रूम से लेकर चौक – चौराहों तक ‘ ग्रोथ रेट ‘ की चर्चा हो रही है। मन पर छाए ग्रोथ रूपी ‘ ओवर टोन ‘ के मुत्तलिक सबके अपने अपने दावे हैं…. तर्क और वितर्क में उलझे हुए। और इन सबके बीच ‘ मनी ऑर्डर इकोनोमी ‘ की मौजूदगी कहीं गुम हो गई है …..जी हाँ वही ‘ मनी आर्डर इकोनोमी ‘ जो ‘ जंगल राज ‘ के आरोपों के दौर में बिहार का संबल बनी। ‘ वाइल्ड इस्ट फेनोमेना ‘ का प्रतिफल थी ये।इस तरह की इकोनोमी का संबंध असहज परिस्थितियों में पलायन करने वालों के हारतोड़ मेहनत से उपजी गाढ़ी कमाई से है, जो राज्य की अर्थव्यवस्था को संभालती रही।

क्या ‘मनी आर्डर इकोनोमी’ आज भी बिहार की गतिशीलता का आधार है ? बिहार के पोस्ट-मास्टर जनरल आफिस के अधिकारियों से इस संबंध में बात हुई तो उन्होंने राज्य में आने वाले मनी आर्डर की संख्या में पिछले दस साल में दस फीसदी से अधिक कमी की और इशारा किया। उधर दरभंगा में पोस्टल डिपार्टमेंट के अधिकारियों ने जो आंकड़े दिए उसके मुताबिक़ जिले में आने वाले मनी आर्डर की संख्या में इस दौरान 11 से 12 फीसदी के बीच गिराबट दर्ज हुई। ये आंकड़े साल 2001 से 2009 तक के हैं। साल 2002 के आंकड़े को छोड़ दें तो साल दर साल की गिरावट एक ‘ पैटर्न ‘ बनाती है। ख़ास बात ये है की इस अवधि के दौरान राज्य में राबड़ी देवी और नीतीश कुमार की सरकारें रही हैं। क्या इस गिरावट का संबंध पलायन में लगे किसी प्रकार के ब्रेक से है ? पोस्टल अधिकारियों ने हालांकि मनी आर्डर की संख्या में कमी के अलग ही कारण बताए। इनकी माने तो राज्य में बैंकिंग सेवा के बढ़ने के कारण ये ‘ ट्रेंड ‘ दिख रहा है। आनलाइन बैंकिंग ने मनीआर्डर सेवा पर असर डाला है ….ऐसा उनका मानना है। इसके अलावा मनीआर्डर के जरिये अधिकतम 5000 रूपये भेजने की सीमा को भी वे इसकी वजह बताते हैं। अब सवाल उठता है की क्या बिहार में बैंकिंग सेवा का अपेक्षित और एकसमान विस्तार हुआ है ? जिन इलाकों से बड़ी संख्या में पलायन हो रहे हैं उस पर निगाह डालें। दरभंगा जिले के बिरौल, घनश्यामपुर, किरतपुर, कुशेश्वरस्थान, मधुबनी जिले के झंझारपुर और बेनीपट्टी, सीतामढ़ी और शिवहर जिलों के बाढ़ग्रस्त इलाके, मुजफ्फरपुर के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्र , समस्तीपुर का हसनपुर इलाका, खगड़िया जिले के सालो भर जलजमाव झेलने वाले अधिकांश इलाके, सहरसा और सुपौल जिले के पश्चिमी क्षेत्र , कोसी के पूर्वी और पश्चिमी तटबंध के बीच का विस्तृत भाग …. बैंकिंग सेवा के मामले में हतोत्साहित करने वाला परिदृश्य पेश करता है। इस बीच फरवरी महीने में ही रिजर्व बैंक की केंद्रीय बोर्ड की पटना में बैठक हुई। बैठक में हिस्सा लेते हुए रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बा राव ने बिहार के सभी ब्लाकों में बैंक की शाखा नहीं होने पर घोर चिंता जताई। इसी बैठक में भाग लेने आए तेंदुलकर कमिटी के अध्यक्ष-एस तेंदुलकर ने खुलासा किया कि राज्य में गरीबों की संख्या में इजाफा हुआ है। एक तरफ बैंकिंग सुविधा की कमी, दूसरी ओर गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी । तो फिर मनी आर्डर की संख्या में गिरावट का रूझान क्या दिखाता है ? दरअसल इसका जवाब जगदीश और बिलट के बीच पनपे लेन- देन में तलाशना होगा।

उत्तर- प्रदेश की पूर्वी सीमा से लगा एक रेलवे स्टेशन है- सुरेमनपुर। एक तरफ बिहार का प्रमुख शहर छपरा तो दूसरी ओर यूपी का बलिया । संपूर्ण क्रांति के अगुवा जेपी और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के इलाकों के बीच बसा है सुरेमनपुर । दिल्ली से बनारस होते हुए किसी सुपर-फास्ट ट्रेन से जब आप बिहार जाएं तो ग्रामीण आवरण समेटे इस स्टेशन पर ट्रेन का ठहराव आपको हैरान करेगा । बिना विस्मय में डाले आपको बता दें कि इस छोटे से स्टेशन पर दिल्ली के लिए टिकट की बिक्री छपरा से ज्यादा होती है। इसी आधार पर सुपर फास्ट ट्रेनों का ठहराव यहाँ दिया गया।

स्थानीय यात्री बिना लाग- लपेट आपको बताएंगे कि इस क्षेत्र से बड़ी संख्या में पलायन होता है। इनकी बातें ख़त्म होंगी भी नहीं कि सरयू नदी आपको यूपी की सीमा से विदा कर रही होगी। कुछ ही देर में आप छपरा में होंगे….. जी हाँ पलायन करने वालों का एक प्रमुख जिला । आपको याद हो आएगा ….. वो पुराना छपरा जिला जिसके सपूत बिहार के नीति- नियंता बनते रहे हैं। इन्होने राज्य की “डेस्टिनी” तो जरूर निर्धारित की, लेकिन बिहार की निज समस्याओं से कन्नी काटते रहने का दुराग्रह भी दर्शाया। छपरा से निकलें तो पांच-सात घंटे के बाद ट्रेन आपको दरभंगा स्टेशन पर उतार चुकी होगी ….. एक बड़ा सा स्टेशन….अपेक्षाकृत बेहतर फेसलिफ्ट लिए एक नंबर प्लेटफार्म….. काफी स्पेसियस । जिस रूट से आपकी ट्रेन आई है …. यकीनन आप बीच रात में पहुंचे होंगे। आपका सामना होगा एक नंबर प्लेटफार्म के फर्श पर लेटे हुए हजारों “लोगों” से। इन्हें इन्तजार है सुबह का …जब वे अपने ” गाम ” की बस धरेंगे। व्यग्रता के बीच कमा कर लौटने का संतोष। पलायन….संघर्ष….रूदन…सब पर भारी पड़ती बेसब्री की धमक। लेकिन “रूदन” से बेपरवाह यहाँ के रेल अधिकारी खुश हैं कि समस्तीपुर रेल मंडल में सबसे अधिक टिकट की बिक्री दरभंगा स्टेशन में ही होती है। इसी को आधार बना कर स्टेशन के विकास के लिए ” फंड ” की मांग भी की जाती है। टिकट काउंटरों पर यात्रियों की भीड़ को नियंत्रित करने क लिए नियमित पुलिस बंदोबस्त देखना हो तो यहाँ चले आइये। कमोबेश ऐसे दृश्य मुजफ्फरपुर, सहरसा, पटना और राजेंद्रनगर स्टेशनों पर आम हैं। ये दृश्य बिहार के हुक्मरानों, पत्रकारों, और अन्य सरोकारी लोगों को विचलित नहीं करते। पलायन को समस्या मानने वालों के बीच अनेक धाराएं मौजूद हैं। मोटे तौर पर बिहार में तीन तरह का विमर्श दिखेगा। इसके अलावा दिल्ली में बैठे सुधीजन की समझ अलग ही सोच बनाती है। पहली धारा पलायन से जुडी निर्मम परिस्थितियों का आकलन करती है जो असीम दुखों का कारण बनती। ये असहाय लोगों के अथाह गम को रेखांकित करता है…साथ ही पलायन के कारण घर-परिवार और समाज की समस्त अभिव्यक्ति पर पड़ने वाले असर पर भी नजर डालता। इस मौलिक विमर्श ने जो चिंता जताई वो पलायन के दूरगामी नतीजों पर हाहाकार है। इस धारा का मानना है कि बिहार के कर्मठ हाथ दुसरे प्रदेशों की समृधि बढ़ा रहे। इनके अभाव में…फिर अपने प्रदेश का क्या होगा? इनका आग्रह है की पलायन को किसी भी तरह रोका जाना चाहिए। इस धारा के अध्येताओं में अरविन्द मोहन प्रमुख नाम हैं।

दूसरी धारा के प्रणेताओं में अग्रणी हैं हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत । इनके विश्लेषण में संदर्भित बदलाव देखा जा सकता है पर मूल स्वर अभी भी वही है। इस धारा का मर्म लालू युग के दौरान परवान चढ़ा। पलायन को समस्या तो माना गया लेकिन इस शब्द से इस धारा के लोगों का ” असहज ” होना जगजाहिर है। इनकी नजर में पिछड़ावाद का अलख जगाने वाले लालू को पलायन के ” विकराल ” रूप का आइना नहीं दिखाया जाना चाहिए। वे मानते रहे हैं कि लालू का वंचितों को जगाना पुनीत काम था, लिहाजा पलायन के कारण किसानी चौपट होने और लालू राज में “अविकास” के सरकारी क़दमों को ” माइनर एबेरेशन” माना जाना चाहिए। इस धारा के घनघोर समर्थक आपको याद दिलाएंगे कि पलायन तो पहले से होता आया है। श्रीकांत जोर देते हैं कि पलायन करने वालों में कुशलता बढ़ी है।

बेशक उनकी कुशलता में निखार आया है। जो अनस्किल्ड थे वो स्किल्ड हुए। पर इसका फायदा किसे मिल रहा? योजना आयोग ने कुछ समय पहले बिहार टास्क फ़ोर्स का गठन किया। इसके सदस्यों ने जो रिपोर्ट सौंपी उसके मुताबिक़ बिहार में रह रहे ” कमासूत ” लोगों की कुशलता बढ़ाए बिना राज्य का अपेक्षित विकास संभव नहीं। पलायन करने वाले इस मोर्चे पर वरदान साबित हो सकते हैं। पर उन्हें रोकेगा कौन ? निश्चय ही नीतीश और उनके सिपहसालारों को “पलायन” शब्द अरूचिकर लगता है। नीतीश ने सत्ता संभालते ही घोषणा की थी कि तीन महीने के भीतर पलायन रोक दिया जाएगा। ऐसा हुआ नहीं….घोषणा के पांचवें साल तक भी नहीं। नीतीश के कुनबे को डर सताता रहता है कि कोई इस घोषणा की याद न दिला दे। ये तीसरी धारा के पैरोकार हैं जो मानते हैं कि पलायन पर अंकुश लगा है। इनका आवेस है की राज्य के सकारात्मक छवि निर्माण की राह में पलायन की सच्चाई ” बाधक” न बने। राज्य के ग्रोथ रेट पर वे बाबले हुए जा रहे हैं। ग्रोथ की ये बयार आखिरकार पलायन पर समग्र लगाम कसने वाला साबित होगा… ऐसा भरोसा वे दिलाएंगे। वे बताएंगे कि सामाजिक न्याय के साथ विकास ज्यादा अहम् है इसलिए पलायन जैसी समस्याओं पर चिंता करने की जरूरत नहीं। नीतीश के रूतबे में आंच न आ जाए …. इसलिए ये खेमा मीडिया को छवि निर्माण के लिए राज्य का ” पीआर ” बनने की नसीहत भी दे रहा। पटना की हिन्दी मीडिया का बड़ा वर्ग इस ” रोल ” से आह्लादित भी है।

ये उस समय की बात है जब ” कालाहांडी ” की मानवीय विपदा ने दुनिया भर में चिंतनशील मानस को झकझोर दिया। इस त्रासदी को “कवर” करने गए पत्रकार याद कर सकते हैं उन लम्हों को जब संवेदनशील लोगों का वहाँ जाना मक्का जाने के समान था। कुर्सी पर बैठे लोग भी तब हरकत में आये थे। वहाँ एक स्त्री इसलिए बेच दी गई थी ताकि उन पैसों से अपनों का पेट भरा जाता। उड़ीसा में भूख मिटा नहीं पाने की बेबसी आज भी है। हार कर लोगों ने पलायन का रूख किया है। पलायन करनेवालों में आदिवासियों की संख्या अधिक है। कई आदिवासी महिलाएं ब्याह के नाम पर हरियाणा में बेच दी जाती हैं। उड़ीसा की ही सीमा से लगे छतीसगढ़ की एक आदिवासी महिला को पिछले साल इसी तरीके से बेचा गया। मामले ने इतना तूल पकड़ा कि छतीसगढ़ सरकार को हस्तक्षेप करना पडा।

बिहार के कई पत्रकार भी उस दौर में कालाहांडी हो आए थे। वे हैरान हैं कि बिहार से होने वाले पलायन पर राज्य के हुक्मरानो का दिल क्यों नहीं पसीजता ? कुछ महीने पहले लुधियाना में हुई पुलिस फायरिंग में कई बिहारी मजदूर मारे गए। कहीं कोई हलचल नहीं ……. सब कुछ रूटीन सा। मरनेवालों के परिजन यहाँ बिलखते रहे…नेताओं के बयान आते रहे। इन मजदूरों को पता है कि उनकी पीड़ा से राज-काज वाले बिदकते हैं। यही कारण है कि इनकी प्राथमिकता अपनी काया को ज़िंदा रखने की है … चाहे कहीं भी जाकर कमाना पड़े। पेट की आग के सामने सामाजिक दुराग्रह- पूर्वाग्रह टूटते गए हैं। पलायन पहिले भी होता था। मोरंग, धरान, और ढाका जैसी जगहों पर इनके जाने का वर्णन आपको मिल जाएगा। शुरूआती खेप में उन लोगों ने बाहर का रास्ता पकड़ा जो स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था में छोटे और मझोले किसानों के मजदूर थे। इन्हें हम इतिहास में बंधुआ मजदूर कहते हैं। ये खेती-बाडी में किसान के सहयोग में दत्त-चित रहते। इनकी स्त्रियाँ किसान के घरों की महिलाओं की सहायता करती। बदले में किसान अपनी जमीन पर ही इन्हें घर बना देते और इनके गुजर-बसर की चिंता करते। इन मजदूरों को दूसरे किसान के खेत में काम करने की इजाजत नहीं होती। मुक्ति की कामना, सांस लेने लायक आर्थिक साधन जुटाने, अकाल, रौदी, और बाढ़ जैसी मुसीबतों के चलते वे गाँव त्यागने को मजबूर होते।

बिहार के साहित्यिक स्रोतों में “कल्लर खाना” और” खैरात ” जैसे शब्द इन कारणों पर बहुत कुछ बता जाते हैं। बाद के समय में भूमिहीन खेतिहर मजदूर भी इनके साथ हो लिए। इनके साथ समस्या हुई कि किसानी से होने वाली आमदनी साल भर का सरंजाम जुटाने में नाकाफी होती। कष्ट के समय में बंधुआ मजदूरों को अपने किसान से जो आस रहती वो भूमिहीन मजदूरों को नसीब नहीं । आजादी के बाद योजनाबद्ध विकास की हवा बही। इसमें गाँव को आर्थिक इकाई के रूप में देखने पर कोई विचार नहीं हुआ। नतीजतन स्वावलंबी ग्रामीण अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। जातिगत पेशों से जुड़े लोगों पर इसका मारक असर हुआ। हर परिवार के कुछ सदस्य परदेस जाने लगे। प्राकृतिक मार से भी जिन्दगी तबाह हुई…. गृहस्थी चलानी मुश्किल। इस दौर में ब्राह्मण भी बाहर जाने लगे। पुरनियां ( पुर्णियां ), कलकत्ता, और असम के चाय बागानों में इनकी उपस्थिति दर्ज हुई। फूल बेचने , पंडिताई करने, भनसिया ( खाना बनाने का काम ) बनने से ले कर हर तरह के अनस्किल्ड काम वे करने लगे ।

कलकत्ता, ढाका और असम जैसी जगहों पर इन्होने आधुनिक आर्थिक गतिविधियों के गुर सीखे। इसके अलावा एक वर्ग बाल मजदूरों का उभरा जो भदोही के कालीन उद्योग में भेजे जाने लगे। समय के साथ इस फेहरिस्त में कई जाति के बच्चे शामिल हो गए। वे अपने परिवार की दरिद्रता मिटाने में संबल बने। बिहार की सत्ता में लालू का आधिपत्य यहाँ के जन-जीवन में अनेक तरह के बदलाव लेकर आया। इसी दौर ने पलायन की पराकाष्ठा देखी। आम-जन से संवाद की देसज शैली के कारण लालू राजनीति में नए तेवर कायम करने में सफल हुए। लीक से हट कर सोसल इंजीनियरिंग को आजमाया। पिछड़ों के उभार में जबरदस्त कामयाबी मिली….और उनका डंका बजने लगा। लेकिन स्पष्ट ध्रुवीकरण ने गाँवों में सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर दिया। बटाईदारों को बटाई वाली जमीन दे देने की सरकारी प्रतिबद्धता से किसान भयभीत हुए। नतीजतन अधिकतर किसानो ने बटाई वापस ले ली। खेत ” परती ” जमीन में तब्दील होते गए। किसानी चौपट हो गई। आखिरकार बटाई से विमुख हुए खेतिहर मजदूर पलायन को बाध्य हुए। खेती के अभाव में किसानो की माली हालत खराब होती गई। कुछ साल संकोच में बीता । बाद में वे भी पलायन करने लगे।

लालू युग ” किसान के मजदूर ” बन जाने की गाथा ही नहीं कहता ….इसी समय ने ” विकास नहीं करेंगे ” की ठसक भी देखी। सरकारी उदासीनता के कारण एक-एक कर चीनी, जूट, और कागज़ की मिलें बंद होती गई। कामगार विकल हुए। ये उद्योग नकदी फसलों पर टिके थे । लिहाजा किसानो ने इन फसलों से मुंह फेर लिया। समय के साथ उद्योगों से जुड़े कामगारों और किसानों की अच्छी खासी तादात दिल्ली …. बम्बई जाने वालों की टोली में शामिल हो गई। निम्न मध्य वर्ग के अप्रत्याशित पलायन ने गाँव की उमंग छीन ली है। वहां बच्चे, बूढ़े, और महिलाएं तो हैं लेकिन खेत काबिल हाथों के लिए तरस रहा है।

पहले तीन फसल आसानी से हो जाता था । अब दुनिया दारी एक फसल पर आश्रित है। पलायन करने वालों ने भी सुना है कि बिहार का विकास हुआ है…और ये कि अगले पांच सालों में ये विकसित राज्य बन जाएगा। वे बस …बिहुंस उठते हैं। वे जानते हैं कि पिछले दो विधान सभा चुनावों की तरह इस बार भी चुनाव के समय उनसे गाँव लौट आने की आरजू की जाएगी। अभी तक ये आरजू अनसूनी की गई हैं । पलायन करने वालों को नेताओं का अनुदार चेहरा याद है। उजड़ने का दुःख ….संभलने की चुनौती …और ठौर जमाने की जद्दोजहद को वे कहाँ भूलना चाहते ।

संजय मिश्रा

लगभग दो दशक से प्रिंट और टीवी मीडिया में सक्रिय...देश के विभिन्न राज्यों में पत्रकारिता को नजदीक से देखने का मौका ...जनहितैषी पत्रकारिता की ललक...फिलहाल दिल्ली में एक आर्थिक पत्रिका से संबंध।

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One Comment

  1. मैं कुछ और कहूँ तो कैसे ?

    ……लेकिन कहना चाहता हूँ …..और कहूँगा.
    लम्बे इंतजार ने मुझे भले ही बोझिल बना दिया है लेकिन शब्दों का गणित बुद्धि के फलक पे घूम रहे हैं |
    कुछ कहने को बेताब मन कहाँ कुछ सुनने को चाहता है !

    पञ्च बर्ष बाद जब आप मिले तो सोंचा कि कुछ यादें ताज़ी कर ली जाये..माया नगरी से नीतिनगर [पाटलिपुत्र] तक का रास्ता इतना उलझ चूका है
    लेकिन प्रश्नों कि क्या औकात कि लवों से छलक जाएँ ! कि पूछ बैठें ….कि कहाँ थे आप?
    कहाँ छोड़ दिया था हमें…..एक नयी दुनिया क्या अकेले लिखने को स्वार्थी हो चला था मन..!!!

    पत्रकारिता घूँघट से बहार रहती है सो लज्जा तसलीमा के लिए ९२ कि कथा का विश्राम ले रही होगी !
    ऋषि दक्षिण में कहीं कत्थक कि राग लगा रहा होगा..आप सरस्वती से मशविरा कर पश्चिम को निकल गए ..
    किसी ने इतना भी न सोंचा कि राग के बगैर गाने वाला इन्द्रप्रश्था की धरती पर अकेले कैसे लडेगा ?

    खैर बहोत अच्छा लगा की कहीं चिंगारी जलती रही ……कही लौ तेज़ तो कभी नीरव…

    प्रकुठा
    9811224623

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