जब अन्ना की मांग में ही दम नहीं है तो परिणाम क्या होंगे?
पंकज चतुर्वेदी, नई दिल्ली
कोई दो दशक पहले वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण ने :कालचक्र: के दिनों में एक डायलोग दिया था -“हर कोई चाहता है कि भगत सिंह पैदा हो, लेकिन मेरे घर में नहीं, पड़ोसी के यहाँ.” मेरे घर तो अम्बानी ही आये. उस दौर में हवाला पर बवाल था– लग रहा था कि सार्वजानिक जीवन में सुचिता के दिन आ गए- कई की कुर्सियां गईं, कुछ नए सत्ता के दलाल उभरे. फिर हालात पहले से भी बदतर हो गए, फिर आया राजा मांडा- वी पी सिंह का दौर- गाँव-गाँव शहर-शहर बोफोर्स तोप के खिलौनेनुमा मॉडल लेकर नेता घूमे- “तख़्त बदला, ताज बदला- बैमानों का राज बदला” या यों कहें कि केवल बेईमान ही बदले. हालात उससे भी अधिक बिगड़ गए.
आरक्षण, साम्प्रदायिकता की मारा-मार ने देश की सियासत की दिशा बदल दी और मंडल और कमंडल के छद्म दिखावे से लोगों को बरगला कर लोगों का सत्ता-आरोहन होने लगा-बात विकास, युवा, अर्थ जैसे विषयों पर आई और दलालों, बिचोलियों की पहुँच संसद तक बड़ी. आज सांसदों का अधिसंख्यक वर्ग पूंजीपति है, चुनाव जितना अब धंधा है.
अन्ना हजारे जन लोकपाल बिल की बात ऐसे कर रहे हें, जैसे एक कानून पूरे सिस्टम को सुधार देगा, हमारे पास पहले से कानूनों का पहाड़ है, समस्या उसको लागू करवाने वाली मशीन की है- सीबीआई पर भरोसा है नहीं- पुलिस निकम्मी है- अदालतें अंग्रेजी कानूनों से चल रही हें और न्याय इतना महंगा है कि आम आदमी उससे दूर है- अब तो सुप्रीम कोर्ट पर भी घूस के छींटे हैं, रादिया मामले ने बड़े पत्रकारों की लंगोट खोल दी है-अन्ना की मुहिम को रंग देने वाले वे ही ज्यादा आगे हैं जिनके नाम २-जी स्पेक्ट्रम में दलाली में आये हैं. उस मुहिम में वे लोग सबसे आगे है, जिन्होंने झारखण्ड में घोड़ा-खरीदी और सरकार बनवाने में अग्रणी भूमिका निभाई- जो येदुरप्पा और कलमाड़ी के भ्रष्टाचार को अलग-अलग चश्मे से देखते हैं.
बात घूम कर शुरू में आती है- हमारा मध्य वर्ग दिखवा करने में माहिर है- अपनी गाड़ी में खरोंच लग जाने पर सामने वाले के हाथ-पैर तोड़ देता है, अपने बच्चे का नामांकन सरकारी स्कूल की जगह पब्लिक स्कुल में करवाने के लिए घूस देता है, सिफारिश करवाता है- वह अपने अपार्टमेन्ट में गंदगी साफ़ करने- सार्वजनिक स्थानों की परवाह करने में शर्म महसूस करता है- उसका सामाजिक कार्य भी दिखावा होता है-उसे एक मसीहा मिल गया- मोमबत्ती बटालियन को मुद्दा मिल गया- यह तो बताएं कि एक कानून कैसे दुनिया को बदलेगा? जब तक खुद नहीं बदलोगे- अन्ना,किरण बेदी, रामदेव, रविशंकर- क्यों चुप हैं कि मुंबई हमले, मालेगांव, हैदराबाद और समझौता रेल धमाकों की जाँच सही हो?
उपवास के पीछे का खेल कुछ अलग है? हो सकता है कि कोई आदर्श सोसायटी की जाँच को प्रभावित कर रहा हो? हिन्दू उग्रवाद से लोगों का ध्यान हटा रहा हो? या सत्ता के कोई नए समीकरण बैठा रहा हो? जब मांग में ही दम नहीं है तो उसके परिणाम क्या होंगे?
नेशनल बुक ट्रस्ट के सहायक संपादक पंकज चतुर्वेदी द्वारा लिखी गई..
चलिए एक और पहलू सामने आया। लेकिन कोई यह बताये कि आखिर कोई आदमी कैसे सारी चीजों पर ध्यान देकर कुछ कह या कर सकता है? जो भ्रष्टाचारी हैं अगर वे भी इस आंदोलन में शामिल हैं तो उन्हें बिल्कुल ही निकाल फेंकना चाहिए। लेकिन इन बातों को सुनकर सिर्फ़ निराशा होती है कि आखिर कौन सही है? कौन है जिसे अच्छा माना जाय। क्या सारे लोग गलत कर रहे हैं तो हम भी उन्हीं में शामिल हो जायें। वैसे आपका लिखा लोगों को भटकाने वाला है। मैं मानता हूं अधिकांश लोगों ने कोई न कोई जालसाजी की होगी लेकिन क्या यह संभव है कि एक ही आदमी मुंबई धमाकों से लेकर आपके गली के झगड़े और अत्याचार तक को बता पाए या दिखा पाये? मेरी नजर में तो संभव नहीं। बात अगर कुछ कहने की ही है तो शायद सारे आंदोलनकर्ता अपन एक लक्ष्य तय करते हैं। कुछ मुद्दों को उठाते हैं, जिनपर उनका कुछ अधिकार हो (समझने के मामले में)। एक इतिहासकार वैज्ञानिक पर या चित्रकार भूगोल पर सवाल खड़ा करे तो आप ही कहेंगे कि इसे कौन यह अधिकार देता है कि यह इन मुद्दों पर सवाल पूछे।
मैं एक बात और याद दिला दूं कि सचिन और लता मंगेशकर जैसे महान लोगों को मुंबई धमाके पर रुलाई आती है लेकिन जब राज ठाकरे जैसा देशद्रोही आदमी बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों पर घोर अत्याचार करता है तब ये सारे लोग जिनके लाखों-करोड़ों प्रेमी इन राज्यों में भी रहते हैं, चैन से सोये रहते हैं। तब इन्हें कोई दुख नहीं होता। इनकी जबान तब बन्द हो जाती है। फिर किसे और कैसे हम ईमानदार मानें। जब आपका मीडिया, खेल, कला, राजनीति सारे विभाग ही भ्रष्ट हैं तो किसे लोग अपना नेता मानेंगे? क्योंकि लोग पिछलग्गू होते हैं। किसी को तो आगे आना ही पड़ता है। यहां लोग महान कहकर या दो फूल चढ़ाकर अपना कर्तव्य पूरा कर डालते हैं। अगर इस आलेख का लेखक 30 साल से ज्यादा उम्र का हो तब मैं जानना चाहता हूं सिर्फ़ कलम घिसते हैं या आपने भी भगतसिंह बनने की कोशिश की है? वैसे आपकी बात सही हो तो अच्छी बात कही है आपने लेकिन बहुत से लोग इसे टांगखींचू अभियान भी कह सकते हैं।
कुछ जगहों पर पढ़ने को मिल रहा है किरण बेदी ने भी कुछ गड़बड़ी शायद अपने बेटे को प्रवेश दिलाने में की थी नागालैंड में। स्वामी अग्निवेश, रामदेव, रविशंकर जैसे बहुत सारे लोगों पर आरोप लग सकते हैं लेकिन पता कैसे चले कि ये आरोप सही भी हैं या नहीं? अन्ना क्या सोचते हैं यह लोगों को नहीं पता लेकिन लोक लुभावन नीति तो अपनानी ही होती है जनमत के लिए। यह बिल क्या है ठीक से लोग जानते भी नहीं पर साथ या समर्थन दे रहे हैं।
एक कमजोर आलेख जिसमें बिना मीमांसा के ही ‘मांग में ही दम नहीं है’, यह घोषित कर दिया गया है। और, किसी कुत्िसत भावना के चलते पाठक का ध्यान अन्य असंगत मुद्दों की ओर भटकाने का प्रयास किया गया है। ‘पंकज जी’ पंकिल होने से बचें। ‘इस नदी के छोर से ठण्डी हवा आती तो है, नाव जर्जर ही सही लहरों से टकराती तो है’, आपको फिर परेशानी क्यों भाई।
हेडिंग तेवरआनलाईन की ओर से लगाया गया है, पंकज जी ने नहीं।
अन्ना जिसे जन लोकपाल बिल बता रहे हैं , उस बिल को खुद उन्होने पढा है और समझा है या नही इसपर मुझे शक है । कोई पागल हीं उस बिल के प्रावधानो से सहमत होगा । बिल के अनुसार सतर्कता आयुक्त से लेकर सेन्ट्रल एड्मिनिस्ट्रेटिव ट्रिबनल तथा न्यायालयों के सभी काम वह लोकपाल करेगा , यानी बाकि संस्थाओं को बंद कर देना होगा । यही नही उस बिल की धारा ३५ के अनुसार सभी अन्य कानून उस जनलोकपाल में सम्माहित हो जायेंगे। This Act shall override the provisions of all other laws. केजरीवाल जैसे को सिर्फ़ आवेदन लिखना चाहिये कानून बनाना बच्चों का खेल नही है । गलत प्रावधान होने से न सिर्फ़ मुकदमा लंबित होगा बल्कि न्यायालयों के चक्कर लगाते -लगाते लोग परेशान हो जायेंगे । गनीमत है य्ह पागलपन सिर्फ़ भारत में हो रहा है , दुसरे किसी मुल्क का कानून का जानार जब बिल पढेगा तो हमे महा गदहा और जाहिल समझेगा।