पहला पन्ना

बिस्मार्क की राह पर नीतीश कुमार

व्यवहारिक राजनीति का दक्ष खिलाड़ी जर्मनी का चांसलर बिस्मार्क राजनीति को संभावना की कला मानता था। उसकी नजर में कुशल राजनीतिक्ष वही है जो भविष्य में घटने वाली राजनीतिक घटनाओं का सही आकलन कर अपनी रणनीति पहले से ही बना लेता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी बिसमार्क के राह पर ही चलते हुये नजर आ रहे हैं। भ्रष्टाचार के मामले को लेकर जिस तरह से देश में माहौल बन रहा है उसका आकलन करके नीतीश कुमार अभी से ही राष्ट्रीय राजनीति में अपना जगह सुनिश्चित करने में लग गये हैं। नीतीश कुमार की नजर प्रधानमंत्री के पद पर है, हालांकि वे इस तरह के किसी भी दौड़ में शामिल होने से इंकार करते रहे हैं, लेकिन उनके राजनीतिक ग्राफ पर नजर डाला जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भावी राजनीतिक घटनाओं को टटोलते हुये वो अपना हर कदम फूंक-फूंककर रखते हैं, और यही वजह है कि किस्मत भी उनका साथ देती है।     

शुरुआती दौर में जब लालू यादव ने बिहारी की कमान संभाली थी तो नीतीश कुमार भी उनसे जुड़े हुये थे। सत्ता हासिल करने में उन्होंने लालू यादव के पक्ष में हवा बनाने में उनकी काफी मदद भी की थी। यही वजह था उन्हें उस समय बिहार का चाणक्य कहा जाता था। लेकिन जिस तर्ज पर लालू यादव सत्ता को हांक रहे थे उसे देखते ही नीतीश कुमार ने भांप लिया कि लालू यादव के साथ वो लंबी दूरी नहीं तय कर सकते हैं। और फिर उन्होंने अलग राह पकड़ ली, जो भापजा और कांग्रेस से इतर जाती थी। जब जार्ज फर्नांडिस के नेतृत्व जब समता पार्टी के गठन में नीतीश कुमार की महत्वपूर्ण भूमिका रही। व्यवहारिक राजनीति करते हुये नीतीश कुमार की नजर कहीं दूर टिकी हुई थी। एनडीए सरकार में रेलमंत्री रहने के दौरान वे हर उस घटक को समेटने की कोशिश करते रहे जिनका आने वाले दिनों में वे इस्तेमाल कर सकते थे।  

बिसमार्क की राजनीति की एक खास शैली थी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लोगों का इस्तेमाल छूरी और कांटे की तरह करना। प्लेट में खाना समाप्त होने के बाद जिस तरह से छूरी और कांटे छोड़ दिया जाता है वैसे ही लोगों का इस्तेमाल बिसमार्क राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए लोगों का किया करता था। इस मामले में भी नीतीश कुमार की राजनीतिक शैली भी बिसमार्क के करीब है। कई बार नीतीश कुमार ने उनलोगों को भी साइड लाइन किया है जो उनके बेहद करीबी माने जाते रहे हैं, और ऐसे लोगों को सामने लाते रहे हैं जिनके साथ उनके तल्ख संबंध रहे हैं। यही वजह है कि नीतीश कुमार के धूर विरोधी लालू यादव यहां तक कहा करते हैं कि नीतीश कुमार के पेट में दांत हैं।

व्यवहारिक राजनीति में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं होता, राजनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति सर्वोपरि होती है। विरोधियों की लाख आलोचानाओं के बावजूद नीतीश कुमार व्यवहारिक राजनीति की कसौटी पर खरे उतरते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ देशभर में माहौल बना रहे अन्ना हजारे के  साथ नीतीश कुमार की मुलाकात को भी इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये।

कई मौकों पर नीतीश कुमार खुलकर कह चुके हैं कि देश में अगला लोकसभा चुनाव भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ा जाएगा। पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से एक के बाद एक भ्रष्टाचार के कई मामले सामने आये हैं उससे देश की जनता परेशान है, भ्रष्टाचार के खिलाफ फाइनल लड़ाई की मानसिकता में है। नीतीश कुमार हवा के इस रुख को अच्छी तरह से देख रहे हैं। अपने दूसरे कार्यकाल में वह जिस तरह से बिहार को मैनेज कर रहे हैं, उसे देखकर यही लगता है कि आनेवाले दिनों में समय देखकर गैर भाजपाई प्रधानमंत्री के रूप वे अपने को पुश करेंगे। प्रचारतंत्र का सफल इस्तेमाल करने की कला उनमें खूब है। देश के तमाम मीडिया घराने जिस तरीके से नीतीश कुमार का गुणगान करने में लगे हैं, वह नीतीश कुमार के कुशल मीडिया प्रबंधन का ही नतीजा है। रोटी और बोटी फेंककर अपने लिए मनचाहा परिणाम प्राप्त करना भी व्यवाहारिक राजनीति का एक अहम गुर है। खासकर डेमोक्रेटिक सेटअप जहां पर मीडिया पूरी तरह से बेलगाम होता है, इस हथकंडे का इस्तेमाल कर नीतीश कुमार मीडिया को पालतू बनाये हुये तो निसंदेह इसे एक बड़ी सफलता मानी जाएगी, भले ही इससे जनहितों की अनदेखी ही क्यों न हो रही हो।

एक सम्राट होने के बावजूद नेपोलियन बोनापार्ट प्रेस की शक्ति से डरता था, और लाख कोशिश के बावजूद प्रेस पर नियंत्रण नहीं कर सका था। इस मामले में नीतीश कुमार का हुनर नेपोलियन बोनापार्ट के हुनर से दो कदम आगे हैं, ये दूसरी बात है कि सूबे में प्रेस का चरित्र फ्रांस के प्रेस के चरित्र जैसा नहीं है। लेकिन इसके लिए दोषी वे मालिकान है जो इन प्रेसों को संचालित कर रहे हैं वो वे संपादक और खबरनबीस है जो अपना मूल धर्म का परित्याग कर हड्डी चाटने में लगे हैं, क्योंकि सत्ता का चरित्र हमेशा अपने खिलाफ भौंकने वाले प्रेस पर पाबंदी लगाने वाला होता है। अब जब हड्डी के लालच में वाच डाग्स भौंकना ही छोड़ दे इसमें सत्ता का क्या कसुर।

दिल्ली में अन्ना हजारे से मिलकर और बिहार में लोकायुक्त का गठन करने की बात कह कर नीतीश कुमार अपनी दूरगामी चाल चल चुके हैं। आने वाले दिनों में भ्रष्टाचार के खिलाफ की जाने वाली राजनीति नीतीश कुमार के लिए बेहतर बेस साबित होगी, इस संभावना को वह सूंघ चुके हैं। बड़ा लक्ष्य बड़ा समय मांगता है, और राजनीति में सर्वोच्च स्थान पाने के लिए पूरी उम्र छोटी होती है।

Related Articles

One Comment

  1. नीतीश प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे, यह तो तय है। उनकी छवि मीडिया चाहे जितनी भी बना ले लेकिन देश में राजनैतिक और लडने की शक्ति तो बिलकुल नहीं है उनके पास।

    भ्रष्टाचार, यह कोई मुद्दा नहीं है, हर जगह तमाशा दिखाया जा रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ़ लड़ने और हल्ला मचानेवालों लोगों में कौन है? सिर्फ़ वही दिल्ली जा सकता है जिसे दो-चार दिनों की चिन्ता नहीं है और पेट भरा है। जिस आन्दोलन में किसान और मजदूर शामिल नहीं हुआ वह आन्दोलन कुछ लोगों के फायदे के लिए किया जाने वाला नकली और घटिया आन्दोलन है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button