जर्नलिज्म वर्ल्ड

भस्मासुर में तब्दील होती जा रही मीडिया

दयानंद पांडेय//

ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी और बिज़नेस हेड समीर आहुलवालिया की आज हुई गिरफ़्तारी का स्वागत किया जाना चाहिए। मीडिया के लिए यह बहुत अच्छा सबक है। यह और ऐसा कुछ बहुत पहले होना चाहिए था। आगे यह सिलसिला जारी रहना चाहिए। भस्मासुर में तब्दील होती जा रही मीडिया और उस के सरोकार जिस तरह हमारे सामने है, यह झटका बहुत पहले मिलना चाहिए था। जिस तरह मीडिया पर प्रबंधन और उस का व्यवसाय हावी होता जा रहा है, संपादक नाम की संस्था अब दलाल, लायजनर, मैनेजर और मालिकों का पिट्ठू बन कर जन-सरोकारों से मुह मोड़ कर सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवसाय देखने में लग गई है, वह हैरतंगेज़ है। सिर्फ़ और सिर्फ़ मीडिया मालिकों के हित साधने में लगे संपादकों को उन की इस कुत्तागिरी के लिए जितनी सज़ा दी जाए कम है। मीडिया को बचाने के लिए यह बहुत ज़रुरी हो गया है। गिरफ़्तार तो ज़ी न्यूज़ के मालिक सुभाष गोयल को भी किया जाना चाहिए। और ऐसे तमाम मालिकों और संपादकों को गिरफ़्तार किया जाना चाहिए जो समाचार और व्यवसाय का फ़र्क भूल कर सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवसाय जानते हैं। मालिकों की तिजोरी भरना जानते हैं। और फिर सुधीर चौधरी तो पेशेवर ब्लैकमेलर हैं। सांसद और उद्योगपति नवीन ज़िंदल तो कोयला स्कैम में गले तक धंसे पड़े हैं, उन की भी जगह जेल ही है। कानून अगर ठीक से काम करेगा तो ज़िंदल भी एक-न-एक दिन जेल में ज़रुर होंगे। लेकिन दिक्कत यह है कि कानून बड़े अपराधियों के खिलाफ़ काम करते समय सो जाता है और यह बड़े अपराधी बेल ले कर मज़े लेते हैं। अब देखिए न कि फ़ेसबुक पर कमेंट करने वाली लड़कियां कितनी जल्दी गिरफ़्तार हो जाती हैं, पुलिस और जज सभी एक साथ सक्रिय हो जाते हैं। पर बाल ठाकरे जीवन भर कानून हाथ में लिए रहे पर उन का क्या हुआ? उन्हें तिरंगे में लपेट कर विदा किया गया। यह देश और देश के स्वाभिमान पर एक गंभीर तमाचा है। जूता है देश-प्रेमियों के मुह पर। पर मीडिया इस पर खामोश है।

खैर, सुधीर चौधरी और समीर की तो गिरफ़्तारी हुई है और समूची ज़ी टीम इसे गलत ठहराने में पिल पड़ी है। और तो और पुण्य प्रसून वाजपेयी जैसे लोगों की आत्मा इतनी मर गई है कि इस घटना को इमरजेंसी से जोड़ने में अपनी सारी प्रतिभा उड़ेल कर रख दी है, अपनी सारी साख मिट्टी में मिला दी है। सफलता की चांदनी रात के इन उल्लुओं को बाज़ार और अपनी नौकरी के सिवाय कुछ दिखता ही नहीं, यह तो हद है। समूची पत्रकारिता को मालिकों की पिछाड़ी धोने में खर्च करने वाले यह बेजमीर लोग पत्रकारिता की मा-बहन करते हुए देश की सेलीब्रेटी बनने की मुग्धता में सारे सामाजिक सरोकारों को तिलांजलि दे कर उसे राजनीति, कारपोरेट, क्रिकेट और सिनेमा में ध्वस्त करने में जी-जान से लगे पड़े हैं। यहीं उन की दुनिया शुरु होती है, और यहीं खत्म होती है। इन्हीं के आंगन में उन का सूरज उगता है, और इन्हीं के नाबदान में इन का सूरज डूबता है। इस और ऐसी कृतघ्न मीडिया की क्या इस भारतीय समाज को ज़रुरत है? वह मीडिया जो बीस रुपए कमाने वाले लोगों की ज़रुरत को नहीं जानती। वह जानती है ठाकरे जैसे गुंडों और देश-द्रोहियों को महिमामंडित करना। अमिताभ बच्चन, सचिन तेंदुलकर जैसे पैसे के पीछे भागने वाले लोगों की खांसी-जुकाम की खबर रखना। अंबानी, ज़िंदल जैसे लुटेरों, देशद्रोहियों के हित की रक्षा करने वाली यह मीडिया, ब्लैकमेलर मीडिया जो अपने ही यहां काम करने वाले लोगों की सुरक्षा नहीं जानती, जिस मीडिया में काम करने वाले तमाम लोग मनरेगा से भी कम मज़दूरी में काम करते हैं, उस मीडिया में जहां सुधीर चौधरी और समीर आहुलवालिया जैसे ब्लैकमेलर ऐश करते हैं, वह मीडिया जो नीरा राडिया जैसी दलालों के इशारे पर नाचती है, वह मीडिया जो अमर सिंह जैसे खोखले और दलाल लोगों के आगे गिड़गिड़ाती है, मौका पड़ने पर रंग बदलने में गिरगिट को भी मात दे देती है, वह मीडिया अगर सचमुच इमरजेंसी के टाइम में रही होती तो सोचिए कि भला क्या हुआ होता? और यह बेशर्म और ब्लैकमेलर मीडिया आज अपनी ब्लैकमेलिंग को इमरजेंसी की तराजू पर तौलने में जिस बेशर्मी से लगी है, यह तो मीडिया को मार डालने की कोशिश है।

जिस तरह मीडिया मालिकों ने सिर्फ़ और सिर्फ़ व्यवसाय को ही अपना मुख्य लक्ष्य बना रखा है वह किसी भी सभ्य और लोकतांत्रिक समाज और देश के लिए शुभ नहीं है। ज़िंदल चाहे जितने बड़े बेइमान हों पर अभी पहले दौर में तो उन्हों ने सुधीर चौधरी और समीर आहुलवालिया का स्टिंग कर उन की ब्लैकमेलिंग का जो वीडियो जारी किया है वह सुधीर चौधरी और समीर को अपराधी साबित करने के लिए बहुत है। अब कुछ वकीलों और संपादकों के मुंह में अपनी बात डाल कर ज़ी न्यूज़ के एंकर सुधीर-समीर को चाहे जितना जस्टीफ़ाई कर लें, कानून और समाज की नज़र में हाल-फ़िलहाल तो वह अपराधी हैं। जिस भी किसी ने वह वीडियो देखा होगा, सुधीर, समीर का ब्लैकमेलर चेहरा साफ देखा होगा। क्या तो हेकड़ी से सौ करोड़ रुपए सीधे-सीध मांग रहे हैं। और वह लोग रिरिया कर बीस करोड़ दे रहे हैं और कोयला स्कैम न दिखाए जाने का आदेश भी फ़रमा रहे हैं। ऐसे ब्लैकमेलरों को मीडिया-जगत को खुद-ब-खुद शिनाख्त कर उन्हें उन की राह दिखा दी जानी चाहिए। शुचिता, नैतिकता और मीडिया के प्रति निष्ठा का तकाज़ा यही है कि सुधीर चौधरी और समीर आहुलवालिया की इस ब्लैकमेलिंग को जितना कोसा जाए कम है, और उन की इस गिरफ़्तारी का दिल खोल कर स्वागत किया जाए, न कि इसे कंडम कर घड़ियाली आंसू बहाने में ज़ी घराने को कंधा दिया जाए। दिल्ली पुलिस को बधाई दी जानी चाहिए।

साभार : http://sarokarnama.blogspot.in

दयानंद पांडेय

अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। वर्ष 1978 से पत्रकारिता। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई 26 पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नहीं पर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का प्रेमचंद सम्मान, कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान तथा फ़ेसबुक में फंसे चेहरे पर सर्जना सम्मान। लोक कवि अब गाते नहीं का भोजपुरी अनुवाद डा. ओम प्रकाश सिंह द्वारा अंजोरिया पर प्रकाशित। बड़की दी का यक्ष प्रश्न का अंगरेजी में, बर्फ़ में फंसी मछली का पंजाबी में और मन्ना जल्दी आना का उर्दू में अनुवाद प्रकाशित। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हज़ार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास),सात प्रेम कहानियां, ग्यारह पारिवारिक कहानियां, ग्यारह प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ़ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), कुछ मुलाकातें, कुछ बातें [सिनेमा, साहित्य, संगीत और कला क्षेत्र के लोगों के इंटरव्यू] यादों का मधुबन (संस्मरण), मीडिया तो अब काले धन की गोद में [लेखों का संग्रह], एक जनांदोलन के गर्भपात की त्रासदी [ राजनीतिक लेखों का संग्रह], सिनेमा-सिनेमा [फ़िल्मी लेख और इंटरव्यू], सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से तथा पॉलिन कोलर की 'आई वाज़ हिटलर्स मेड' के हिंदी अनुवाद 'मैं हिटलर की दासी थी' का संपादन प्रकाशित। सरोकारनामा ब्लाग sarokarnama.blogspot.in वेबसाइट: sarokarnama.com संपर्क : 5/7, डालीबाग आफ़िसर्स कालोनी, लखनऊ- 226001 0522-2207728 09335233424 09415130127 dayanand.pandey@yahoo.com dayanand.pandey.novelist@gmail.com Email ThisBlogThis!Share to TwitterShare to FacebookShare to Pinterest

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