रूट लेवल

भावी प्रधानमंत्री की दौड़ में राहुल और मोदी, किसमे कितना है दम

भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी की छवि एक हार्डकोर नेता की है। लगातार तीन बार गुजरात के मुख्यमंत्री बनने के बावजूद गुजरात में वर्ष 2003 में हुये दंगों के लिए गाहे-बगाहे उन पर उंगली उठती ही रहती है। पिछले कुछ अरसे से उनका नाम भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में भारतीय राजनीति में खूब उछल रहा है और हाल ही में जिस तरह से उन्होंने देश का कर्ज उतारने की बात की है, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि  नरेंद्र मोदी भी मानसिक तौर पर खुद को इसी रूप में देख रहे हैं। दूसरी तरफ कांग्रेस की ओर से बार-बार राहुल गांधी का नाम भावी प्रधानमंत्री के उम्मीदवार के रूप में पेश किया जा रहा है। यहां तक कि भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी दबी जुबान से यह कहने से नहीं हिचक रहे हैं कि वह राहुल गांधी के लिए रास्ता छोड़ने को तैयार हैं। दोनों दलों के नेता जिस तरह से नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को लेकर लगातार बयानबाजी कर रहे हैं, उसे देखते हुये कहा जा सकता है कि आगामी लोकसभा चुनाव का रंग एक हद तक नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी होने की पूरी संभावना है। ऐसे में अवाम के बीच दोनों नेताओं की मकबूलियत का तुलनात्मक अध्ययन लाजिमी हो जाता है।
नरेंद्र मोदी की गिनती आज भाजपा के चोटी के नेताओं में हो रही है। गुजरात में हैट्रिक लगाकर उन्होंने सिद्ध कर दिया है कि आज भी गुजरात में उनकी पकड़ बरकरार है। भाजपा के एक सामान्य कार्यकर्ता से शुरुआत करने वाले मोदी आज राष्टÑीय राजनीति में मजबूत दखल रखते हैं। एक सोची समझी रणनीति और स्ट्रेटजी के तहत पार्टी के अंदर भी प्रधानमंत्री पद की महत्वाकांक्षा रखने वाले भाजपा के तमाम धाकड़ नेताओं को ‘बैकफुट’ पर ढकेलने में वह कामयाब रहे हैं। अब पार्टी के अंदर उनके धुर विरोधी नेता भी उनके खिलाफ जुबान खोलने से कतराने लगे हैं। संघ भी उनकी पुश्त पर मुस्तैदी से डटा हुआ है। ऐसे में पूरी संभावना है कि भाजपा की ओर से उन्हें विधिवत भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाये, हालांकि अभी इसमें कई ‘इफ और बट’ लगे हुये हैं। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने की होगी। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहले ही प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर नरेंद्र मोदी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ चुके हैं। यदि भाजपा मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करती है तो भाजपा की एक मजबूत सहयोगी जद-यू मुखतलफ राह पकड़ने के लिए बाध्य हो जाएगी। बिहार में भाजपा-जदयू गठबंधन की सरकार है। ऐसे में पूरी संभावना है कि यह गठबंधन चरमरा जाये। हालांकि इस स्थिति से बचने के लिए नरेंद्र मोदी सेक्यूलर छवि अख्तियार करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह वक्त ही बताएगा कि भाजपा के सहयोगी दल उन्हें एक सेक्यूलर नेता के रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार है या नहीं।
दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी में राहुल गांधी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करने में कोई समस्या नहीं है, हालांकि राहुल गांधी खुद नहीं चाहते कि उन्हें अभी इस रूप में प्रस्तुत करके कांग्रेस चुनाव मैदान में जाये। फिलहाल राहुल गांधी बार-बार संगठन को मजबूत करने की बात कर रहे हैं। कांग्रेस की राजनीतिक शैली पर नजर रखने वाले जानकारों का कहना है कि कांग्रेस कभी भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर चुनाव मैदान में नहीं उतारेगी। ऐसा करने की स्थिति में कांग्रेस की नैया पार लगाने की पूरी जिम्मेदारी राहुल गांधी पर आ जाएगी। और यदि कांग्रेस की पराजय हो गई तो राहुल का राजनीतिक कैरियर पूरी तरह से डगमगा सकता है। हालांकि एक रणनीति के तहत इस तरह का माहौल जरूर बनाया जाएगा, जिससे लगे कि कांग्रेस की जीत के बाद अगला प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही होंगे और कमोबेश इसकी शुरुआत हो चुकी है। तमाम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को यह यकीन हो चला है कि राहुल गांधी देश के भावी प्रधानमंत्री हैं और आगामी चुनाव में उन्हें राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए अपना पूरा दमखम लगाना है।
कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के विपरीत भाजपा कार्यकर्ता अभी इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि पार्टी की ओर से नरेंद्र मोदी को ही आगामी चुनाव में प्रधानमंत्री के तौर पर पेश किया जाएगा। इसके अलावाभाजपा कार्यकर्ता भी मोदी समर्थक और मोदी विरोधी खेमों में बंटे हुये हैं, यह दूसरी बात है कि पार्टी के अंदर मोदी समर्थक कार्यकर्ताओं की संख्या ज्यादा है। कई वरिष्ठ भाजपा कार्यकर्ता दबी जुबान से इस बात को स्वीकार करते हैं कि विगत में सत्ता में आने के लिए भाजपा द्वारा अयोध्या में राममंदिर का निर्माण, धारा 370 और सिविल संहिता के मुद्दों को छोड़ना गलत कदम था। इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है। इन मुद्दों को लेकर बड़ी संख्या में भाजपा कार्यकर्ता आज भी खुद को ठगा हुआ महसूस करते हैं, लेकिन पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता की वजह से वे अपना मुंह नहीं खोलते हैं। ऐसे भाजपा कार्यकर्ताओं को नरेंद्र मोदी में उम्मीद की एक नई किरण दिखाई दे रही हैं। नरेंद्र मोदी को लाल किला पर झंडा फहराते हुये देखने के लिए ये अपनी एड़ी-चोटी का जोड़ लगाने की भावना से लबरेज हैं।
यदि पार्टी की अंदरूनी कमी-बेशी से बाहर निकल कर राष्टÑीय स्तर पर नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के वजूद का आकलन करें तो पाएंगे कि कम से युवाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी की तुलना में ज्यादा पसंद कर रहा है। राहुल गांधी भी युवाओं से लगातार राब्ता बनाने की कोशिश करते आ रहे हैं। अब देखना होगा कि इन युवाओं को राहुल गांधी वोट के रूप में कहां तक तब्दील कर पाते हैं, क्योंकि नरेंद्र मोदी भी इन युवाओं को लेकर खासे सजग हैं। इन युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए मोदी और उनकी टीम द्वारा इंटरनेट पर सघन अभियान चलाया जा रहा है और इसका असर दिख भी रहा है। विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में मुख्य वक्ता के तौर पर आज मोदी की जबरदस्त मांग है। देश का युवा उन्हें अधिक से अधिक सुनने के लिए लालायित है। देश में युवा मतदाताओं की संख्या अच्छी- खासी है। चुनाव में इनका मत निर्णायक साबित हो सकता है। अब देखना यह है कि आगामी चुनाव में इनका झुकाव राहुल गांधी की ओर होता है या फिर मोदी की ओर।
हिटलर कहा करता था कि दुनिया में बड़ी-बड़ी क्रांतियां भाषण से हुई हैं। मोदी के आलोचक मोदी को हिटलर के रूप में चित्रित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते हैं। हिटलर की शैली में मोदी भी बेहतर भाषण देना जानते हैं। राहुल गांधी की तुलना में नरेंद्र मोदी मंच से सीधे जनता को संबोधित करते हुये अक्सर ज्यादा स्पष्ट और आक्रामक होते हैं। जनता के मिजाज को समझकर उसके अनुकूल भाषण देने की कला में मोदी माहिर हैं, जबकि राहुल गांधी मंच से जनता के दिलो-दिमाग को झकझोड़ पाने में सफल नहीं हो पाते हैं। हालांकि संगठन की सक्रियता की वजह से दोनों की सभाओं में अच्छी-खासी भीड़ जुट जाती है। मंच से बेहतर भाषण देने के हुनर की वजह से मोदी इस मामले में राहुल गांधी पर भारी पड़ेंगे, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता है। वोटिंग पैटर्न पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों की मानें तो चुनाव के अंतिम क्षणों में ‘स्वीप वोटिंग’ काफी मायने रखता है। मोदी अपने भाषणों की वजह से बड़ी संख्या में ‘स्वीप वोट’ हासिल करने की क्षमता रखते हैं, जबकि राहुल गांधी को इसके लिए नाको चने चबाने पड़ सकते हैं।
मोदी के राजनीतिक पहलू का सबसे नकारात्मक पक्ष अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय की नाराजगी है, हालांकि मोदी तमाम प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल करते हुये यह संदेश देने की पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उनको लेकर अल्पसंख्यकों के दिलों में कोई मलाल नहीं है। अब अल्पसंख्यक उन्हें एक सहज और प्रगतिशील नेता के तौर पर स्वीकार करने लगे हैं। लेकिन अल्पसंख्यकों की राजनीतिक शैली के जानकारों का मानना है कि आज भी मोदी को लेकर मुस्लिम समुदाय सशंकित है। मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर कबूल करने के लिए वे जेहनी तौर पर तैयार  नहीं हैं। ऐसे में जरा सी चूक होने पर मोदी के खिलाफ मजबूती से गोलबंद हो सकते हैं और इसका फायदा एक हद तक राहुल गांधी को मिल सकता है। कांग्रेस लगातार इस कोशिश में है कि अभी से ही धर्मनिरपेक्षता का नारा बुलंद करके अल्पसंख्यकों को मोदी के खिलाफ खड़ा रखा जाए। मजबूत ‘थर्ड फ्रंड’ के अभाव में कांग्रेस के पक्ष में वोट करना मुसलमानों की मजबूरी हो जाएगी। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर एक साथ कई महाजों पर जूझना होगा। हालांकि चुनाव प्रचार इन दोनों पर केंद्रित होने की वजह से भारत के आर्थिक मसले नेपथ्य में चले जाएंगे, जिसका खामियाजा  अंतत: अवाम को ही भुगतना पड़ेगा।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also
Close
Back to top button