मध्य प्रदेश में कुपोषण से मर रहे हैं बच्चे

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जन सुनवाई में खुली सरकारी विभागों की पोल

भूमिका कलम, भोपाल

ग्राम हरीपुर जिला शिवपुरी का दीपक आदिवासी इतना कुपोषित था की जुलाई 2009 में चार साल की उम्र में जीवन और मौत की लड़ाई में हार गया। सरकारी अस्पताल की कोई सुविधा नहीं मिलने के कारण इलाज के लिए उसके पिता और ताऊ पर 20 हजार रुपये का कर्ज चढ़ गया।
19 अक्टूबर 2009 को नया बालापुर में तीन साल की सपना आदिवासी ने इलाज के अभाव में अपने पिता की गोद में ही दम तोड़ दिया। सपना के पिता का विश्वास सरकारी सिस्टम से ऐसा उठा कि वो कर्ज लेकर टीबी का इलाज निजी अस्पताल में करवा रहे हैं।

प्रदेश में 210 पोषण पुनर्वास केंद्र होने के बावजूद एक साल के हरेंद्र को गंभीर कुपोषित होने पर एक दिन का भी इलाज नहीं मिला और 12 अप्रैल 2010 में उसकी मौत हो गई।

प्रदेश के मुख्यमंत्री बच्चों को बचाने के लिए चाहे रोजाना नई घोषणाएं करें और आश्वासन दें, लेकिन मध्य प्रदेश में कुपोषण की जमीनी सच्चाई एक बार फिर राष्ट्रीय बाल अधिकार सरंक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) के सामने जन सुनवाई के दौरान उजागर हो गई। इसके लिए आयोग ने  राज्य सरकार को ही जिम्मेदार मानते हुए विभाग के आला अधिकारियों को जमकर फटकार लगाई। शनिवार को राजधानी के टीटीटीआई सभागृह में आयोजित जन सुनवाई में कुपोषण और बीमारी से लगातार मर रहे बच्चों की मौत के कारणों का जवाब देते हुए स्वास्थ्य और महिला बाल विकास विभाग के अधिकारियों के पसीने छूट गए। आयोग ने स्पष्ट किया कि मध्य प्रदेश में बच्चों के लिए संचालित एक भी योजना सही तरीके से क्रियान्वित नहीं हो रही है। यहां एक साल पहले की गई आयोग की अनुशंसाओं का पालन भी नहीं किया गया जो कि राज्य शासन के लिए शर्मनाक और निराशाजनक है।

 कागजों पर नहीं मिला मौत का जवाब
दीपक आदिवासी की मौत पर उठे सवालों के जवाब में महिला बाल विकास संचालक अनुपम राजन और एनआरएचएम संचालक मनोहर अगनानी भी आयोग के सामने मौजूदा दस्तावेजों के आधार पर यह स्पष्ट नहीं कर पाए कि बच्चे को आंगनवाड़ी से एनआरसी में सही समय पर रेफर क्यों नहीं किया गया? और एनआरसी से बिना ठीक किए बच्चे को कैसे वापस भेज दिया गया जहां उसकी मौत हो गई? आयोग के इन सवालों में अधिकारी कागज खंगालते रहे लेकिन मृत बच्चे के पिता की सच्चाई को झुठलाने के लिए सबुत नहीं जुटा पाए। 

हर इंक्जेक्शन का पैसा लगता है मैडम”

मृत बच्ची सपना के पिता लच्छु आदिवासी ने आयोग के सामने शपथपत्र देते हुए बताया कि “सरकारी अस्पताल में हर एक सुई लागाने के पैसे लगते हैं मैडम, तो हमें बच्ची को ग्वालियर ले जाने के लिए एंबुलैंस कैसे मिलती?” आयोग में पैनल की सदस्य डॉ. वंदना प्रसाद ने  इस जानकारी के बाद सीएमएचओ डॉ. निसार अहमद से एंबुलैंस की जानकारी ली और कहा कि यह अस्पताल की जिम्मेदारी है कि गंभीर मरीज को रेफर करे तो एंबुलैंस से भेजा जाए।

 मिशन डायरेक्ट क्यों नहीं करते आडिट

सरकारी अस्पतालों में बार-बार गरीब और आदिवासी मरीजों द्वारा दवाएं खरीदने की बातें सामने आने पर पैनल के  सदस्य लव वर्मा ने कहा कि सरकारी मद से दवाओं के भारी भरकम खर्च के बाद भी मरीज दवाएं खरीद रहें हैं तो मिशन डॉयरेक्टर इसका आडिट क्यों नहीं करते?

स्वीकार करो की गलती हुई है

दोनों विभाग के अधिकारी जब बच्चों की मौत पर सफाई देने में नाकामयाब रहे तब स्वास्थ्य सचिव एसआर मोंहती ने  चार हफ्ते में मामले की जांच कर दोषियों को सजा देने की बात कह कर सभी का पीछा छुड़ाया। बाहर निकलते हुए उन्होंने अधिकारियों को नसीहत दे डाली की स्वीकार करो की गलती हुई है।

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