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मुंबई की भट्ठियों में झुलसता बचपन

तेवरआनलाईन, मुंबई

रोजी-रोजगार की तलाश में हर साल लाखों लोग देश की आर्थिक राजधानी मुंबई की ओर रुख करते हैं। इनमें बहुत बड़ी संख्या में दूर-दराज के वे बच्चे भी शामिल हैं जो गरीबी और भूखमरी से जूझते हुये अपनों का सहारा लेकर मुंबई में कदम रखते हैं और फिर यहां के कल करखानों में झोंक दिये जाते हैं। जोगेश्वरी वेस्ट के पास स्थित एसवी रोड में लोहे की कई फैक्ट्रियां हैं, जिनमें तमाम बाल श्रमिक कानूनों की धज्जियों उड़ाते हुये बहुत बड़ी संख्या में कम उम्र के बच्चों से कठोर काम लिया जा रहा है।

इन लोहे की फैक्ट्रियों में मकान निर्माण से लेकर मोटर गाड़ी आदि से संबंधित कई तरह के काम होते हैं। लोहे को तपती भट्टी में डालने के बाद उन्हें तोड़मरोड़ कर मांग के अनुसार उन्हें नये रूप और आकार में ढाला जाता है। चूंकि अनुभवी और परिपक्व कारीगर इस काम के लिए अधिक पैसों की मांग करते हैं, इसलिये इन फैक्ट्रियों के मालिक बहुत बड़ी संख्या में इन कार्यों के लिए उन  बच्चों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जो काम की तलाश में मुंबई आते हैं।

पिछले कुछ वषों से उत्तर प्रदेश और बिहार से बहुत बड़ी संख्या ऐसे बच्चों का पलायन हुया है, जो अपने इलाके में गरीबी की मार झेलते आ रहे थे, और जिन्होंने स्कूल का मुंह तक नहीं देखा है। अधिकतर बच्चे मुंबई में रहने वाले अपने उन सगे संबंधियों का सहारा लेकर यहां पहुंचे हैं, जो पहले से मुंबई में दोयम दर्जे के काम लगे हुये हैं। इन बच्चों को यही कह कर काम पर लगाया जाता है कि लगातार काम करने से उनके हाथों में हुनर आ जाएगा, और फिर एक बार हुनर सीख गये तो उनके लिए मुंबई में पैसा कमाना आसान हो जाएगा। एक बार लोहे की इन फैक्ट्रियों में लग जाने के बाद वर्षों काम सीखाने के नाम पर उनका शोषण होता रहता है। तमाम तरह के उपक्रमों के साथ तपती भट्टी के नजदीक काम करने के कारण जवान होने के पहले ही वे बुरी तरह से झुलस जाते हैं। लोहे की गर्मी और उनसे निकलने वाली चिंगारियों का नकारात्मक असर उनकी आंखों पर भी पड़ रहा है। इनमें कई बच्चे ऐसे हैं जिनके आंखों की रोशनी अभी से उनका साथ छोड़ रही है।         

लोहे की बारीक कटाई और छटाई करने वाली मशीनों पर भी इन बच्चों से काम लिया जा रहा है। जरा सा नजर चूकने की स्थिति में ये मशीने बच्चो की मांसपेशियों को चीरते हुये सीधे हड्डी तक को काट डालती हैं। यहा काम करने वाले अधिकतर बच्चों के शरीर पर कटे-फटे के निशान इस बात की गवाही दे रहे हैं कि वे किन खतरों के बीच अपनी रोटी के लिए जूझ रहे हैं।

 चूंकि इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले बच्चों को बाल श्रमिक कानूनों के भय से लिखित रूप में नहीं रखा जाता है, अत: किसी तरह की दुर्घटना होने की स्थिति में फैक्टरी के मालिक न सिर्फ साफतौर से इन्कार कर देते है बल्कि उन्हें गालियां भी देते हैं कि ठीक से काम करना आता नहीं है और पता नहीं कहां कहां से चले आते है।

इन फैक्ट्रियों में काम करने की कोई समय सीमा भी निर्धारित नहीं है। सुबह से लेकर देर रात तक बच्चों को यहां पर काम करना पड़ता है। काम करने का माहौल भी काफी खतरनाक है। लोहे की उड़ती हुई गर्म बुरादों के बीच उन्हें काम करना पड़ता है। फैक्टरी के अंदर चारो ओर फैले विभिन्न तरह के रसायनिक अवयवों से उनका शरीर लिपटा रहता है। इन रासायनिक अवयवों का उनके शरीर पर क्या-क्या प्रभाव पड़ रहा है, इससे बच्चे पूरी तरह से अनभिज्ञ हैं और फैक्टरी के मालिक लोग भी इस विषय पर सोचने की जहमत नहीं उठाते हैं। उन्हें तो बस लिये गये आर्डर को समय पर पूरा करने की पड़ी रहती है।    

इन फैक्ट्रियों में काम करने वाले अनुभवी कारिगर मालिकों से नजरें बचा कर काम सीखाने के नाम पर इन बच्चों का यौनशोषण भी से कर रहे हैं। काम सीखने और अधिक पैसा पाने की लालच में ये बच्चे बड़ी सहजता से उनके झांसे में आ जाते हैं। चूंकि विभिन्न उम्र के बच्चों को एक ही साथ काम पर लगाया जाता है, इसलिये समय से पहले ये बच्चे विकृत यौन प्रवृतियों के शिकार हो रहे हैं। पड़ताल करने पर पता चला है कि इनमें अधित्तर बच्चे अपने दूर के उन सगे संबंधियों के पास रहते हैं, जो पहले से मुंबई में रहते आ रहे हैं। ये दूर के सगे संबंधी इन बच्चों को खुलकर यौन शोषण कर रहे हैं।   

एसवी रोड के पास लोहे की ये फैक्ट्रयां नाले के किनारे स्थित हैं, जिसमें पूरे इलाके की गंदगी गिरते रहती हैं। इस नाले से निकलने वाली दमघोंटू बदबू ने लोहे की फैक्टरियों में अपना डेरा जमा रखा है। इसी दमघोटू बदबू के बीच इन बच्चों को काम करना पड़ता है। सबसे बुरी स्थिति तो खाने के समय होती है। एक तो इन्हें स्वास्थ्कर खाना उपलब्ध नहीं होता है, दूसरी बात यह कि जब ये खाने के लिए बैठते हैं तो ऐसा लगता है कि खानों से ही बदबू आ रही है। इन सब के बावजूद अन्य राज्यों से बच्चों के यहां आने का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा है। किसी किसी फैक्टरी में तो एक ही परिवार के तीन चार बच्चे हाड़तोड़ मेहनत कर रहे हैं। इस संबंध में पूछने पर ये बड़ी सहजता से बताते हैं कि अपने गांव में गरीबी और भूखमरी झेलने से अच्छा है यहां काम कर के कुछ कमा ले रहे हैं। अभी भले ही पैसा कम मिल रहा है लेकिन आगे चलकर इतना पैसा उन्हें जरूर मिल जाएगा कि कुछ घर भेज सकेंगे। इन फैक्टरियों में नियमित काम करने के बावजूद इनका भुगतान एक दिहाड़ी मजदूर की तरह ही होता है। बच्चे की उम्र और काम सीखने की काबिलियत के मुताबिक इन्हें प्रतिदिन 30 रुपये से लेकर 50 रुपये तक दिये जाते हैं।

मुंबई में बाल अधिकारों पर कार्य करने वाली बहुत सारी संस्थायें हैं, लेकिन इन फैक्टरियों में जाकर इन बच्चों को देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं है, और इन बच्चों की सबसे बड़ी मजबूरी यह है कि यदि ये यहां पर काम न करे तो कहां जाये।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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