लिटरेचर लव

विक्की और जैकी

विक्की और जैकी

(कहानी )

आज तो उसका रवैया देख मुझे कुछ समझ नहीं आया. वो दिखावा था, एक माँ का क्षणिक क्रोध था या फिर गरीबी से लड़ते लड़ते आई झुंझलाहट.

माँ से पिटने के बाद वो बालक आँखों में सतत अश्रुधार लिए बोला- “जानिये मार देबो.”

वो ये वाक्य बोले जा रहा था ओर लगातार रोये जा रहा था जैसे किसी का अपमान करके तुरंत खेद प्रकट कर देना चाहता हो.

मैंने बीच बचाव करते हुए जास्मिन को रोका- ” बच्चों को ऐसे मारना ठीक नहीं, वो ओर बिगड़ सकता है.ठीक से समझाओगी तो समझ जाएगा.मार खाकर तो इसका बचपन कुम्हला जाएगा.”

जास्मिन- अरे आपको नहीं मालूम, ऐसे बच्चे को ना पीटूं तो और क्या करूँ.ये रात भर घर से गायब हो जाता है.जुआ खेलता है.कुछ बनना तो दूर, एक दिन चोरी चकारी करके जेल की हवा खाएगा. इसे तो जन्म ही नहीं लेना चाहिए था.मन तो करता है इसे अभी जान से मार दूँ.

कोसते कोसते जास्मिन ने उसे दो तीन तमाचे और रसीद कर दिए. विक्की और जोर से रोने लगा. उसकी आवाज़ सुन कर नीचे बंधा मकान-मालिक का कुत्ता जैकी जोर-जोर से भूँकने लगा. उसे भूंकता सुन विक्की की रुलाई जैसे अचानक रुक गई.आंसू पोछ वो दौड़ कर बालकनी में गया.नीचे झांकते हुए उसने जैकी को हाथ हिलाया. जैकी भी गोल गोल घूम उससे संभवतः ना रोने की गुजारिश कर रहा था.

जैकी और विक्की की दोस्ती बड़ी गहरी थी.विक्की जब भी हमारे यहाँ से ब्रेड, या बिस्किट या खाने का कोई भी सामान ले जाता, नीचे जाते समय जैकी से भी बाँट आता था.जैकी भी जैसे उसकी दोस्ती का मुरीद था. आते जाते राहगीरों को देख ऐसा भूंकता की खुला छोड़ दो तो नोच ले. जैकी तो हम लोगों से भी ज्यादा परीचित नहीं था. एक साल से ज्यादा वक़्त से हमें ऊपर नीचे आता देखता था.पर कभी पूँछ तक नहीं हिलाई. पर विक्की में उसकी जान बसती थी.जिस दिन कभी विक्की अपनी माँ के साथ ना आता तो जैकी दिन भर यूँ ही उदास कोने में बैठा होता था.हमारे लाख कुछ देने पर नहीं खाता था.लाख छेड़ने पर भी कूँ तक नहीं करता था.

माँ से पिट कर विक्की बालकनी की रेलिंग से लटक कर जैकी की तरफ टकटकी लगाए देख रहा था. जाने किसी स्वप्न में खोया हो.आँखें सूजी थीं.पर मन एकदम साफ़.

इसी बीच जास्मिन पीछे से आई और उसने फिर उसकी कान ऐंठ दी. विक्की दर्द से तिलमिला उठा..और फिर से चीखने लगा.

जास्मिन पर मुझे बहुत गुस्सा आया- ये कौन सा तरीका है? हद होती है किसी चीज़ की..उसे ऐसे मत मारो .!

जास्मिन- नहीं! ये जुआ खेलता है.परसों पांच रूपए चुरा कर भगा था. मेहनत की कमाई ऐसे उडाएगा ? क्यूँ रे जुआ खेलना छोड़ेगा कि नहीं?

विक्की दर्द से तिलमिलाता हुआ भी मानो गुस्से से लाल हो रहा था- हाँ, खेलबो जुआ..कि करबी?

जास्मिन बिफर पड़ी- जो खिलाती है, उसी को जवाब देता है. मैंने तुम्हे पैदा किया है या तुमने मुझे पैदा किया है? तुम्हारा बाप भी तुमको छोड़ कर चला गया.बोल तुम्हे कौन पालता , अगर मैं ना होती?

विक्की को इन कहानियों में कोई दिलचस्पी नहीं थी.शायद उसके लिए रोज़ का धंधा हो. जास्मिन के कान छोड़ते ही फिर से बालकनी में चला गया .विक्की कि तुनकपन में नासमझी तो थी ही, इस अल्हड़पन में कहीं एक साफ़ दिल बसता था. वो फिर से जैकी को हाथ हिला कर बालकनी से ही छकाने में मगन हो गया. जैकी भी गोल-गोल घूम नाच रहा था. दोनों खूब समझते थे एक दूसरे को.विक्की कि सूजी आँखों से बहे आंसुओं ने शायद उसके ह्रदय को परिष्कृत कर दिया था.

मुझे कुछ समझ ना आया.मैं पास लगे दूसरे कमरे में रहने वाले एक विद्यार्थी से गप्प-शप्प करने लगा.

जास्मिन तब तक कमरे में झाडू देने लगी.

मैं पढाई के सिलसिले में अपने छोटे से शहर से दूर रांची में रहता हूँ. बाहर भोजन की ठीक ठाक व्यवस्था के लिए जास्मिन को काम पर रखा है.प्रत्येक छात्र से २०० रुपये प्रतिमाह लेती है.उसके काम में में थोड़ी मदद उसका बेटा विक्की भी करता है.दिन में तड़के उठ कर विक्की चला आता है.पहले रात के जूठे बर्तन साफ़ करता है.फिर एक पतीले में दाल उबलने के लिए डालता है .दोपहर में जब जास्मिन आती है तो चावल और सब्जी बना कर दाल का तड़का कर देती है.

जास्मिन के नखरे भी कम नहीं.खाना बनाने की सारी सामग्री होने के बावजूद भी भोज्य सामग्रियों की किल्लत करा देती है. कभी दांत दर्द, कभी कमर दर्द कभी चोट तो कभी कुछ.कोई ना कोई बहाना बना कर छुट्टी लेना उसकी आदत है. महीने पुरे होने से पहले ही तीन चार महीने का एडवांस ले लेती है सभी से.उसपर उसे हंडिया(झारखण्ड के आदिवासी बहुल इलाके में मिलने वाली एक देसी शराब) पीने की लत है.कभी कभी दिन में ही हंडिया की बदबू उससे आती है.

कहती है- ” अरे वो पंजाबीन थी…तीन हज़ार पर रखा था मुझे, विक्की गोद में था तब.तीनो टाईम का खाना , मुफ्त का घर और एकदम अपना राज था समझिये. यहाँ क्या मिलता है? बस माँ बेटे का पेट भर जाता है बस. इसमें भी दवा दारु कपडा लत्ता सब देखना है.”

मैंने एक बार उसके पति के बारे में पूछा तो बड़ी भावनात्मक हो गई.

” इस विक्की का बाप भी मुआ दोगला था. बीच मझदार में छोड़ कर एक दूसरी औरत के साथ रहने चला गया.वो तो भगवान् को दया आई जो इस विक्की को मेरे पास छोड़ दिया वर्ना जाने किसके सहारे जीती.”

जास्मिन वैसे मनगढ़ंत कहानियाँ जोड़ने की महारथी है.उसकी इन कहानियों का उद्देश्य बस लोगों की दया का पात्र बनना है.और उसकी इन कहानियों से उसपर दया आ भी जाती है. जिन दूसरे लडको के घर वो काम करने जाती है वहां से अक्सर खाने पिने का सामन उठा लाती है. लडको को वैसे सब समझ आता है.पर उसकी गरीबी के चलते शायद सभी को उससे हमदर्दी हो जाती है. उसका पसंदीदा खाना है चिकन-बिरयानी. मैं चूँकि शाकाहारी हूँ. इसलिए मुझसे ज्यादा बनती नहीं उसकी.उसकी बहानेबाजी और झूठ बोलने की आदत से मुझे बहुत गुस्सा आता है.उसकी सारी कहानियों सुन कर दया मुझे भी आती है पर उसके पीछे झूठ और लालच मुझे उसके प्रति घृणा करने को मजबूर कर देते हैं.उसपर उसके रोज़ के नखरे. आज तो हद ही हो गई थी. मुझे उसके नखरों का खामियाजा भूखे रह कर भरना पड़ा. बिना बताये आज दोपहर में गायब हो गई.इसी कारण मैंने उसकी जमकर खिंचाई कर दी. बातों बातों में उसके दांत दर्द को ढकोसला बता दिया. जास्मिन पूरी तमतमा उठी और अटपटा बोलने लगी.चूँकि मुझपे और गुस्सा नहीं उतर सकती थी…इसलिए सारा गुस्सा शायद उस नन्हे विक्की पर उतार दिया.

विक्की को पिटे करीब घंटा भर हो चूका था. मुझे लडको से बात करने की धुन में ख्याल नहीं आया.शाम ढल चूकि थी.हल्का हल्का अँधेरा छाने लगा था. मैंने पास लगी दूसरी बालकनी से नीचे झाँक कर देखा. जैकी ने नाचना कब का बंद कर दिया था. चुपचाप एक कोने में बंधा गेट की तरफ टुकुर टुकुर देख रहा था.इसी बीच कुछ आवारा कुत्ते गेट के पास आकर भीतर झाँकने की कोशिश करने लगे.एक दो भूंक लगाईं और भीतर से कोई जवाब ना आता देख अपनी अंतहीन यात्रा पर निकल पड़े. शाम को कालोनी के आवारा कुत्ते अक्सर गेट के बाहर से भूंक भूंक कर जैकी को बंधे होने की उसकी मजबूरी का मानो एहसास कराया करते हैं .पर जैकी की एक भूंक से सब डर कर भाग जाते हैं . जैकी एक गबरू झबरू कुत्ता है . खोल दो तो कितने ढोलक छाप कुत्तों का काल बन जाए. पर उसके पास इन आवारा कुत्तों की झिडकी और ताने का कोई जवाब नहीं था आज शायद. जाने क्यूँ उदास कोने में लेटा था. पास पड़े एल्युमिनिअम के एक कटोरे में चिकन के कुछ चुसे हुए टुकड़े पड़े थे. शायद मकान मालिक ने रख छोड़े होंगे.

मैं वापिस अपने कमरे में आया.भीतर से प्रेसर कूकर की सिटी जोर से बजी. क्यों की जास्मिन निकलने की तैयारी कर रही थी तो आखिरी सिटी थी आज की.जास्मिन के चेहरे पर संवेदना का शेष मात्र भी नहीं था. मैं अपनी बालकनी में आया. देखा विक्की पेपर का बिछावन बना कर लेटा हुआ है. नींद में एकदम शान्तचित फूलती सिकुड़ती उसकी छाती, उसका सांस लेना सब मानो एक घंटे पहले की घटना को भूल गया हो .उसका भावशून्य मुखमंडल मानो बोल रहा हो..वो मेरी नियति है.

मेरा मन विचलित हो उठा. अगर मेरी माँ ने मुझे मारा होता तो मैं रुष्ट होता और बेशक अपनी माँ की मनौती की प्रतीक्षा करता.लेकिन यहाँ ना कोई प्रतीक्षा थी ना कोई खेद. उस बालक में ऐसा जरुर कुछ था जो मुझमे नहीं था.मैं निश्चय नहीं कर पा रहा था.

मैंने उसे जगाने की कोशिश की-“ओ विक्की ! ऐसे नीचे क्यूँ लेटा है.कान में कुछ घुस ना जाए.”

मैंने जोर से यही बात दुहराइ ये सोच कर की विक्की नींद में तन्मय था.पर उसने मेरी बात सुनी नहीं. या फिर सुन कर भी अनसुनी कर रहा था.

खाना बना कर जास्मिन इतने में बालकनी में आयी और धीरे से कहा- “विक्की चलो”

विक्की झट खड़ा हो गया और प्रतिदिन की तरह एक आज्ञाकारी बालक के समान हाँथ में छाता लेकर माँ के पीछे हो लिया.

मैं चकित हो गया.

नीचे जाते जाते उसने जैकी को सहलाया.अपनी जेब से बिस्किट के दो टुकड़े निकाले और उसकी तरफ लहरा दिया. जैकी ने अपनी जीभ लहरा कर हवा में ही बिस्किट लपक लिया. बिस्किट का दूसरा टुकड़ा विक्की ने खुद खा लिया.

दोनों पक्के दोस्त थे..या शायद हमदर्द..!

जैकी फिर से गोल-गोल नाचने लगा.

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Rishi Kumar

रिषी सम्पर्क: tewaronline@gmail.com वेबसाईट: https://tewaronline.com/

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7 Comments

  1. Really dear ……….u r great writer “kayal ho gye bhai”…………keep it up dear……….

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