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सनद है ? “भारत सोने की चिड़िया था”

भरत तिवारी//

हालिया राजनीति में राजनीति के ना चाहते हुये भी जो बदलाव हो रहा है उसे सलाम … अब बदलाव – बदलाव यह कि इतिहास गवाह है राजनीति / कूटनीति ये हमेशा ही छुपी हुई नीतियाँ रही हैं. जिनका पता सिर्फ सत्ताधारी या सत्तापलट करने वाले और उनके साथियों को ही रहा है … ऐसा नहीं है कि इन नीतियों का खुलासा नहीं हुआ है अब जिनका नहीं हुआ उनके बारे में तो खैर पता नहीं या ऐसे कहें कि वो सफल राजनीति रही
कुछ खुलासे होते रहे हैं लेकिन ये तब हुये है जब उनके पता चलने से फ़र्क सिर्फ इतिहासकारों और इतिहास की किताबों को पड़ा, मतलब कि राजनीति तब सफल रही थी जब की गयी थी अब  20-30 या  200-500 साल बाद पता चल भी गया तो क्या , पीढियाँ बदल गयीं , सवाल बदल गये यहाँ तक कि जीने मरने के कारण तक बदल गये तो क्या फ़र्क पड़ता है हमें या हमारे जीवन पर .
खैर हालिया राजनीति को इस बदलाव का सामना करना पड़ रहा है और तिलमिलाहट वाजिब है क्योंकि चाणक्यनीति में ये चैप्टर नहीं थे ये सवाल सारे ही आउट-ऑफ-सिलेबस हैं तो राजनीति हुई फेल . अभी तक ये था कि भारतीय प्रजातंत्र में यदि आप चुनाव की परीक्षा पास करके आये हैं तो पाँच साल आपसे कोई सवाल नहीं पूछा जायेगा अगले पाँच साल के लिये आप का राजतन्त्र चलेगा … लेकिन शायद 50 साल की इस 5-5 सालाना राजतंत्र की गद्दी में हमारे नेता भूल गये थे कि आज नहीं तो कल प्रजा को इस बात का अहसास हो जायेगा कि उसे प्रजातंत्र की थाली में राजतंत्र परोसा जा रहा है
अब पोल खुल गयी तो – सारी कु-नीतियों का पर्दाफाश , सब कुछ जनता के सामने … करी गयी सारी चोरियों के चोर जनता के आगे बेनकाब . पहले तो जनता ने विश्वास नहीं किया ना करना भी वाज़िब था क्योंकि उस पर अविश्वास कैसे करें जो इतिहास की किताबों में दर्ज़ आदर्श महापुरुषों की विचारधारा को आगे ले जा रहे हों – लेकिन – तब , जब ये पता चला कि नहीं ये सिर्फ दिखावा है और जिस विचारधारा के चलते जनता उन्हें अपना हीरो, अपना नेता मान रही थी वो सिर्फ पीली पड़ती पपड़ी छोड़ती दीवार में टंगी एक तस्वीर भर है जिसपर चढ़ी धूल की पर्त ने “उस” विचारधारा को कहीं बहुत नीचे दबा दिया है और तस्वीर जिस कील पर टंगी है वो जंग खा कर टूटने को है …
ये अहसास का वो वक्त हुआ जब जनता को मालूम हुआ की अगर अब भी इन पर विश्वाश किया तो कील टूट जायेगी और और तस्वीर मलिन हो जायेगी गर्त में चली जायेगी वो विचारघारा जिसे प्रजातंत्र कहते हैं … इसे भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता मिलने के बाद सो गयी जनता का जागना कहा जाये जाये तो बेहतर होगा .
इतिहासकारों से कहना चाहूँगा कि किताबों को ठीक करें और जहाँ ये लिखा हो “भारत सोने की चिड़िया था” उसे ठीक कर दें क्योकि अब हम सब के सामने इस झूठ का भी पर्दाफाश हो गया है और हमें पता चल गया है कि “भारत सोने की चिड़िया है और हमेशा रहेगा” और हमें ये भी पता चल गया है कि – अब इस सोने की चिड़िया को कौन लूट रहा है .

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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5 Comments

  1. A BIG SALUTE !!!!!!!!!!!!!!!!!! to Bharat Tiwari

    The Most Spectacular Work !!!!!!

    Hats Off !!!

  2. बात भाई जी सोने की चिड़िया का ही नही है …एक चिड़ियाँ का है …इन्सान ने इन्सान को सुचारू रूप से चलने और उसका जीवन दोनों दिन अवरल चलता रहे उसके लिए बनाया है प्रकृति कहे विधाता कहें ने ….अब वो उस चिडयाँ को जिव को कितना सहेज पात है उसी पर निर्भर।।।यहाँ हुआ क्या की …इन्सान ने खुद का वजूद तो मटियामेट करही दिया है जो अलंकार उसको दिए गए उसको भी वो पचा नही पा रहा है …इसी लिए प्रकृति वो अलंकर लेती जा रहि या और उन जीवा को भी अपने पास बुला लिया है या बुलाती जा रही है दिनों दिन ..आप देखिये हर जीव चिड़ियों की के साथ गायब होते जा रहे है …सो उस अलंकर को सहजने ..की सोने की चिड़िया थी है रहेगी ..बात अब गोण हो चली ..अब इन्सान खुद का वजूद बचाले वही बहुत है इस माहोल में ..अब भी वक्त है इन प्रजात्रंत्र और इस शब्द को जानने का सही रूप जान ले वरना समय किसी को नहीं बक्श्ता है …सुंदर विवाचन आप का आज के हालतों पर !!!!शुक्रिया जी ,,,Nirmal paneri

  3. परिभाषाएं जब टूटतीं हैं,तो गढ़नेवालों को दुःख होता है। आपकी भाषा में कहें तो वाजिब है। आज जो जम्हूरियत का सूरत-ए-हाल है ,उसमें जब ये बदलाव आये कि आवाम सवाल करने लगी,सत्तासीन लोगों को बौखलाना ही था। आपका लेख सारगर्भित है। बंद ज़ुबान में बहुत कुछ कहते हैं,जिसे अदब की जुबां में कहते हैं ‘ख़ामोश रहकर भी बहुत कुछ कहना’।

  4. सुंदर आलेख…सशक्त अभिव्यक्ति….

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