सिविल सेवा परीक्षा विवाद का औचित्य
धर्मवीर कुमार, जमशेदपुर ।
संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा के वर्तमान पैटर्न का विरोध कर रहे हजारों छात्रों की अघोषित मांग अगर यह है कि इस परीक्षा में बैठने वाले सभी परीक्षार्थियों, कम से हिंदी भाषी सभी परीक्षार्थियों को सफल घोषित किये जाने का नियम लागू किया जाय तब तो किसी को कुछ नहीं कहना लेकिन अगर वे यह मानते हैं कि प्रत्येक साल लगभग एक हजार रिक्तियों के विरुद्ध ही परिणाम जारी किये जाने का रिवाज सही है तो फिर इस आन्दोलन के द्वारा उठाये जा रहे कुछ भावनात्मक मुद्दों पर पुनर्विचार करना उतना ही जरूरी है जितना जरूरी यूपीएससी द्वारा ‘घटिया अनुवाद’ के गंभीर और वजनी आरोप पर संज्ञान लेते हुए सुधारारात्मक कदम उठाना है।
आंदोलनरत भावुक मित्र यह भूल जाते हैं कि ‘रीजनिंग’ का प्रश्न किसी भाषा या विषय विशेष का प्रश्न न होकर ‘सहज – बुद्धि’ का टेस्ट है। यह ध्यान रहे कि सिविल सेवा परीक्षा के पुराने पैटर्न में भी रीजनिंग का कुछ सवाल रहता था। इतना ही नहीं एसएससी, रेलवे, बैंकिंग आदि जैसे परीक्षाओं में भी रीजनिंग के प्रश्नों की अच्छी ख़ासी संख्या होती है, बावजूद इसके हिंदी पट्टी वाले छात्र इन परीक्षाओं में अपनी सफलता का डंका बजाते आ रहें हैं। इसलिए रीजनिंग के प्रश्नों का विरोध कहीं न कहीं ‘सहज – बुद्धि ‘ का विरोध सा प्रतीत होता है.।
दूसरी बात, आन्दोलनकारी मित्र यह स्पष्ट करें कि वे परीक्षा के नए पैटर्न में अपने आपको असहज महसूस करते हुए अपनी रोजी – रोटी, इस सेवा से मिलने वाले प्रतिष्ठा, मान – सम्मान, दौलत – सोहरत को ध्यान में रखते हुए इसमें बदलाव की मांग कर रहें हैं, ताकि वे इसे पा सकें अथवा सच्चे दिल से राष्ट्रभाषा के प्रति या अन्य भारतीय भाषाओँ के प्रति आपका प्रेम उमड़ा है। अगर आप राष्ट्रभाषा या अन्य भारतीय भाषाओँ के प्रति सम्मान की भावना से आंदोलनरत हैं तो यूपीएससी की और सभी परीक्षाएं मसलन एनडीए, सीडीएस, इंडियन इंजीनियरिंग सेवा आदि परीक्षाओं के बारे में बात क्यों नहीं करते। कोई ऐसी अच्छी मानी जाने वाली नौकरी के बारें में बताइये चाहे वो सरकारी क्षेत्र की हों या निजी क्षेत्र की जिसमें अंग्रेजी के ज्ञान की जरुरत न पड़ती हो। हाँ , अगर आप अपनी रोजी–रोटी, पद-प्रतिष्ठा पाने के लिए लड़ रहें हैं तो आप भावुकता से बाहर निकलिए, परीक्षा का पैटर्न आपके सामने है, आप तैयारी कीजिये और सफल होने का प्रयास कीजिये । सनद रहे कि ‘तकनीकी’ विषयों के छात्रों को भी ‘मानविकी’ के प्रश्नों को हल करना पड़ता है. आप जहाँ कहीं भी रहतें हों अन्य विषयों की भी तो तैयारी करतें ही हैं, एक अंग्रेजी भी सही। यह भी ध्यान रहे कि आप भारत के इस सबसे प्रतिष्ठित परीक्षा के टॉप 1000 के लिए अपनी दावेदारी पेश करने जा रहें हैं, यहाँ अगर – मगर- लेकिन के लिये जगह नहीं होनी चाहिये।
इससे कौन इंकार कर सकता है कि अंग्रेजी आज की जरूरत हो गयी है। राष्ट्रभाषा सहित अन्य भारतीय भाषाओँ का सम्मान होना चाहिये वह अलग मुद्दा है, लेकिन सिविल सेवा के लिए अंग्रेजी का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है इसके लिए उदाहरण देने की जरूरत नहीं है। फिर आपका यह तर्क कि कोई भी भाषा बाद में सीखी जा सकती है, कमजोर और भावुकतापूर्ण ही लगता है क्योंकि यह परीक्षा ‘योग्यतम’ का चयन करने के लिए है न कि ‘योग्य’ बनाने हेतु चयन है।
एक और महत्वपूर्ण बात, आप यह क्यूँ भूल जाते हैं कि ये अंग्रेजी माध्यम वाले छात्र कोई अंग्रेज नहीं होते अपितु भारतीय ही होतें हैं और अंग्रेजी के साथ – साथ कम से कम एक भारतीय भाषा भी जरुर जानतें हैं. अंग्रेजी माध्यम से सफल होने वाले ये छात्र किसी न किसी भारतीय राज्य के ही होतें हैं और ऐसे छात्रों में हिंदी भाषी राज्यों के छात्रों की संख्या अच्छी ख़ासी होती है। स्वाभाविक है ये अंग्रेजी के साथ – साथ हिंदी या अपने राज्य में बोले जाने वाली भाषा या दोनों जानतें हैं। उपर्युक्त स्थिति में अग्रेजी भी जानना इनकी अतिरिक्त योग्यता है न कि एकमात्र योग्यता।
एक रोचक बात, इस आन्दोलन में शामिल अनेकों मित्र ऐसे भी हैं जो तथाकथित ‘मेरिट’ के आधार पर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को मिल रहे आरक्षण का विरोध करते हैं। तर्क देतें हैं कि सरकार के द्वारा पढाई की समुचित व्यवस्था हो, उन्हें योग्य बनाया जाय, उन्हें ‘सामान्य’ वर्ग के स्तर तक लाया जाये, लेकिन नौकरी हेतु परीक्षाओं में आरक्षण न हो। पर विडंबना ही है कि आरक्षण विरोधी वैसे मित्र आज अपने लिए अप्रत्यक्ष रूप से कुछ आरक्षण जैसा ही मांग करते नजर आ रहें हैं। आश्चर्यजनक है कि आरक्षण विरोध में दिए जा रहे अपने उपर्युक्त तर्कों के चश्में से सिविल सेवा परीक्षा के इस विवादित मामले को क्यूँ नहीं देखना चाहते हैं।
अंत में, ऐसा नहीं है कि आंदोलनकारियों के सभी तर्क कमजोर या भावनात्मक ही हैं। कुछ तर्कों में बहुत दम है मसलन मुख्य परीक्षा और इंटरव्यू में जवाब के स्तर से ज्यादा भाषा/माध्यम को महत्ता देना, प्रारंभिक परीक्षा में अनुवाद का घटिया स्तर आदि। इन सब सही मुद्दों का यूपीएससी द्वारा समुचित हल निकाला जाना बहुत ही जरुरी है, लेकिन साथ ही छात्रों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि परीक्षा का कोई भी पैटर्न परफेक्ट/पूर्ण नहीं हो सकता और न ही परीक्षा में शामिल सभी छात्र सफल घोषित किये जा सकते हैं। इस स्थिति में पदों की संख्या के अनुरूप प्रतिभागियों का चयन करने हेतु कोई न कोई माध्यम या पैटर्न अपनाना ही होगा।