सुप्रीम कोर्ट के चुनाव में वैचारिक अपील का अभाव है

 

                            सुप्रीम कोर्ट  अपने बार एसोसिएशन के चुनाव में झूम रहा है। जिसे देखो उसे वोट चाहिए। कोई अध्यक्ष के पद पर तो कोई उपाध्यक्ष और मेंम्बर एग्जिक्यूटिव के पद पर खड़ा है और अपनी चहतों का पीटारा ले कर घूम रहा है। बड़े-बड़े कानूनी दिग्गज चुनाव के मैदान में जूझ रहे हैं। 11 मई 2011 को होने वाले इस चुनाव का प्रचार- अभियान जोरो पर है क्योंकि वोटरों की लिस्ट भी लंबी-चौड़ी है और हर वोटर को टच करना है। साथ ही भव्य पार्टियों का दौर चल रहा है जिसमें खाने-पीने की पूरी व्यवस्था है। लेकिन इन सब के बावजूद इस चुनाव में वैचारिक अपील और मुद्दों के प्रचार-प्रसार का अभाव है।

जहां एक ओर अध्यक्ष पद पर रामजेठमलानी खड़े हैं वहीं पी.एच. पारेख और अदिश अग्रवाल सुप्रीम कोर्ट में अपनी मजबूत पकड़ के लिए जाने जाते हैं। एक लंबे दौर में पी.एच. पारेख का कोई मजबूत प्रतिद्वंदि ढूंढ पाना मुश्किल था। उस स्थिति को बदलने की कोशिश में अदिश अग्रवाल लगे हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष पद पर रह चुके अदिश अग्रवाल इस बार अध्यक्ष पद पर अपनी विजय के लिए काफी मेहनत कर रहे हैं। पिछली बार अध्यक्ष पद के चुनाव में जीतने वाले प्रसिद्ध विधिवेत्ता रामजेठमलानी एक बार फिर इस पद के लिए खड़े हैं। अपनी वैचारिक छवि को आधार बना कर वे अपना संपर्क अभियान चला रहे हैं।

पिछली बार, एसोसिएशन में नए सदस्य बनाए जाने के मुद्दे पर काफी हो – हंगामा मचा था। जहां  बहुत से लोग अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए अपने पैसे से सदस्य बनाने का अभियान चला रहे थे, वहीं इस प्रकिया में ऐसे-ऐसे सदस्य बनाए जाने लगे जिन्होंने कभी सुप्रीम कोर्ट देखा नहीं होगा। स्थिति उलझती चली गई और एसोसिएशन के पदाधिकारियों के बीच ही तनाव होता चला गया। इस खींचतान में जो अच्छे लोग भी सदस्य बनना चाहते थे उनका भाग्य अधर में लटक गया। रामजेठमलानी के अध्यक्ष-काल में इस समस्या को कानूनी दिमाग लगा कर सुलझाया गया। उन लोगों को सदस्य तो बना लिए गए  जिनके फार्म जमा हो गए थे लेकिन दो साल तक उनके वोटिंग अधिकार को समाप्त कर दिया गया। इसके बाद से सदस्यता फीस भी काफी बढ़ा दी गई है और सदस्य बनने की प्रक्रिया कठिन कर दी गई है।वर्तमान चुनाव में इन विवादों की झलक भी जरुर दिख रही है। लेकिन चुनाव के परिणाम पर इसका कितना असर पड़ता है यह देखना अभी बाकी है। मजेदार बात तो यह है कि इस विवाद के पक्ष और विपक्ष दोनों पर राजनीति हो रहे हैं।

चुनाव में वकीलों का एक तबका ऐसा है जिसे किसी चीज से मतलब नहीं है, जो सिर्फ यह तलाश करता रहता है कि आज किसकी पार्टी है और वहां खाने-पीने के क्या – क्या आइटम होंगे। उनके लिए यह चुनाव खाने पीने और जश्न मनाने का चुनाव है। यह मुडी तबका भी है जो किसके लिए वोट करेगा पता नहीं। शायद अंत पल में इनके निर्णय होते हैं। लेकिन गौरतलब है कि अगर ये न हों तो पार्टियां सूनी पड़ जाएंगी क्योंकि गंभीर वकालती जीवन जीने वाले लोग ऐसी चुनावी पार्टियों में सिरकत ही नहीं करते। इनसे प्रत्यासी को वोट मिले या न मिले उनके पक्ष में एक महौल जरुर बनता है।

वोट मांगने के लिए प्रत्याशियों ने एक आसान सा रास्ता तलाश रखा है, सभी को एस.एम,एस. भेजते रहो जिसकी सेवा सस्ते दर पर कंपनियां उपलब्ध करा रही हैं। पूरे चुनाव में वोटर मेसेज से परेसान रहता है। दिक्कत ये है कि महत्वपूर्ण चुनाव होने के वाबजूद इसे कोई मीडिया कवरेज नहीं मिलता क्यों कि छोटी-छोटी रिपोर्ट पर प्रत्यासी और उसके समर्थक अदालत में केस कर देते हैं। इस स्थिति में मीडिया को एक ही रास्ता दिखता है कि इस चुनाव को कवर ही न करो, कौन इन कानूनी पचड़ों में फंसे।

देश में एक वैचारिक उंचाई छू रहा सुप्रीम कोर्ट अपने बार एसोसिएशन के चुनाव में वैचारिक रुप से कमजोर दिखता है। मजबूत मुद्दों का अभाव है, खाने पीने की सतही संस्कृति हावी है। पूरी प्रकिया चुनाव के मजे हुए खिलाड़ियों के हाथों में नाच रही है। पैसे और पार्टियों की गंगा बह रही है जिसे वकालत के चुनाव का सहज अंदाज बताया जाता रहा है।

1 COMMENT

  1. अविनाश जी ,
    वकालत के चुनाव का नहीं, सभी चुनावों का यह सहज अंदाज है।

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