अदालत की हर ईंट पैसा मांगती है
अविनाश नंदन शर्मा, नई दिल्ली
कानून, न्याय, व्यवस्था और समानता जैसे शब्दों से गढ़ी गई अदालत की मजबूत दीवारें कभी-कभी बहुत ही खोखली मालूम पड़ती हैं। कभी-कभी ऐसा मालूम पड़ेगा कि अदालत में सबकुछ है पर न्याय नहीं। न्याय की पूरी प्रक्रिया से भरी अदालत में इंसान न्याय तलाशता रह जाता है। अदालत परिसर में दलालों और बिचौलिये वकीलों के चक्कर में फंस कर एक व्यक्ति अपनी न्याय पाने की आधी इच्छा खो देता है। शायद इसलिये दिल्ली की लगभग सभी जिला अदालतों के गेट पर पहुंचते ही हर व्यक्ति की नजर उस बोर्ड पर जाएगी जिसपर लिखा होता है- “दलालों और बिचौलियों से सावधान।” उस व्यक्ति की बाकी बची हुई हिम्मत तब जवाब दे जाती है जब उसे पता चलता है कि अदालत में और मिलता क्या है, बस तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख।
एक प्रजातांत्रिक देश में राज्य का एक महत्वपूर्ण काम है कानून के शासन को स्थापित करना। लोगों के मन में यह विश्वास भरना कि कानून के सामने सभी बराबर है। चाहे वह गरीब हो या अमीर, शक्तिशाली हो या निर्बल। दिल्ली उच्च न्यायालय ने भ्रष्टाचार पर सुनाये गये अपने एक फैसले में कहा है कि आज आम जनता के बीच यह कहा जाता है कि अदालत की हर ईंट पैसा मांगती है। उच्च न्यायालय ने कहा है कि न्याय के मंदिर में वहां के कर्मचारी द्वारा पैसा मांगना जघन्य अपराध है। इसके लिए कोई माफी नहीं हो सकती।
आश्चर्य की बात तो यह है कि दिल्ली के प्रत्येक जिला अदालतों में ज्यादातर अहलमद, रीडर और अन्य कोर्ट स्टाफ 100 और 50 के पत्ते के बिना किसी तरह की गतिविधि आपके लिए नहीं करेंगे। पुलिस छानबीन के लिए नियुक्त अन्वेषण अधिकारी तथा सरकारी वकील पैसे के हरे-हरे नोट देखने के लिए लालायित रहते हैं। कानून की प्रक्रिया में फंसा इंसान एक निरीह प्राणी की तरह हो जाता है, जो एक साथ बहुत से भेड़ियों से घिर गया हो। एक व्यक्ति किसे-किसे संभालेगा, क्या-क्या संभालेगा ?
मजेदार बात यह है कि निचली से लेकर सर्वोच्च अदालत तक की पूरी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने में साधारणत: 22 साल लग जाएंगे। जवानी के बलात्कार की सजा बुढ़ापे में मिलेगी। शायद इसी कारण से पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन ने कहा है कि अगर न्याय प्रक्रिया इसी गति से चलती रही तो देश की जनता विद्रोह कर देगी। एक गरीब आदमी के लिए वकील की फीस देना बहुत ही मुश्किल है। अगर अच्छी फीस नहीं दी गई तो केस खराब हो जाएंगे। यह आम समझ वकीलों में बन चुका है कि वकालती दिमाग तभी चलता है जब मोटी फीस मिलती है। ऐसा कहा जाता है कि अदालत और अस्पताल आदमी की मजबूरी हैं। लेकिन गौर करने की बात यह है कि एक मरता हुआ आदमी यह कह सकता है कि वह अस्पताल नहीं जाएगा, पर विवाद या अपराध के आरोप से घिरा एक व्यक्ति के पास सिर्फ यही विकल्प है कि वह अदालत में उपस्थित हो या फिर खुद को फरार घोषित होने दे। आज देश में आजादी के 63 वर्षों के बाद भी न्याय घायलवस्था में कराह रहा है। देश की अदालतें ढांचागत और मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। छोटे शहरों के न्यायिक मजिस्ट्रेट अपनी कलम घीस-घीस कर परेशान हैं, न कंप्युटर है, न टाइप करने वाला कोई कर्मचारी। अदालतों में मुकदमों की संख्या बहुत बड़ी है, जो अंतिम निर्णय की बाट जोह रही है।
आज जिस तरीके से देश में बाजारीकरण फैल रहा है, वह अत्याधुनिक और सुविधापूर्ण अदालतों की मांग करता है। देश की अदालती व्यवस्था और इससे निकलने वाले निर्णय संवेदनशील और आश्चर्यजनक रूप से विश्लेषनात्मक हैं, जिसके कारण भारत का जनतंत्र आंतरिक रूप से मजबूत होता रहा है, लेकिन इस व्यवस्था की संचालन प्रक्रिया और प्रक्रिया के इर्द गिर्द घूम रहे भ्रष्टाचार और स्वार्थ देश की न्याय व्यवस्था की ऐसी तस्वीर दिखा रहे हैं, जो समाज के मन में अन्याय की भावना भर रही है। लार्ड ब्राइस ने कहा था, “अगर न्याय का दीपक बुझ गया तो वह अंधकार कितना भयानक होगा।” सोंचने की बात यह कि अगर न्याय का दीपक अन्याय फैलाने लगे तो उस अन्याय से निकलती चीख कितनी भयानक होगी। वास्तव में जरूरत है न्याय के दीपक को सजाने संवारने की ताकि उससे निकलती रोशनी हर तरफ बिखर सके, और शायद तभी देश की आजादी को सार्थक बनाया जा सकता है।
परिचय : अविनाश नंदन शर्मा सुप्रीम कोर्ट में वकालत कर रहे हैं।
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