अभय यादव की हत्या से बिहार के माओवादियों में दो फाड़ हो जाता
क्या माओवादियों ने तीन जवानों की रिहाई इसलिये की है कि उनमें से एक यादव था और दूसरा मुसलमान? यदि वे लोग अभय यादव की हत्या कर देते तो क्या वाकई में बिहार में माओवादियों के अंदर दो फाड़ हो जाता? क्या वाकई में एहसान खान की हत्या करने पर माओवादियों के खिलाफ एक बार फिर से माई (मुस्लिम+यादव) गठजोड़ अंदरखाते रन करने लगता ? क्या टेटे की हत्या और अन्य तीन जवानों की रिहाई के बाद आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय माओवादियों के दिलों में माओवाद के खिलाफ विद्रोह की चिंगारी भड़क रही है, जो कभी भी व्यापक स्तर पर खून खराबे के रूप में सामने आ सकती है या फिर आदिवासियों को माओवाद से पूरी तरह विमुख कर सकती है? पिछले कुछ दिनों से चल रहे नाटक के सुखांत अंत (टेटे की हत्या बीच में हुई थी, इसलिए इसे नाटक का मध्य भाग माना जाएगा) के बाद ये तमाम प्रश्न सामान्यतौर पर लोगों के दिलों और दिमाग में कौंध रहे हैं, और कुछ लोग तो काफी प्रखर होकर कह रहे हैं कि ये माओवादी सिर्फ छोटी और दुर्बल जाति के लोगों की ही हत्या करना जानते हैं, बड़ी जाति के लोगों के पुठ्ठे पर हाथ रखने की इनमें मादा नहीं है।
यदि पूरे प्रकरण को तार-तार करके देखा जाये तो निसंदेह इस ड्रामा के सूत्रधार के रूप में माओवादियों का एप्रोच काफी एक्सपेरिमेंटल था। 29 अगस्त को लखीसराय के कजरा में पुलिस बल माओवादियों के बीच में भिड़त हो गई थी, खूब गोलियों चली और बैकअप के अभाव में पुलिस बल के जवानों को हथियार डालना पड़ा। चार जवान माओवादियों के हाथ लग गये और इसी के साथ माओवादियों ने सरकार को तौलने के साथ-साथ जनसमुदाय का भी नब्ज टटोलने का प्रयोग शुरु किया। मुठभेड़ के पहले चरण के बाद माओवादी बचाव की मुद्रा में थे, और किसी से तरह अपने लिए सुरक्षति ठिकाने की तरफ निकलना चाहते थे। अत: अविनाश नाम के एक प्रवक्ता को उन्होंने आगे किया, जिसने मीडिया से संपर्क साधकर सरकार के सामने यह मांग रखा कि पुलिस बल पिछे हटेगा तो जवानों को रिहा कर दिया जाएगा। वे लोग पुरी तरह तात्कालिक परिस्थितियों से गाइट हो रहे थे। उनकी अच्छी खासी टीम फंसी हुई थी, और उनकी पहली प्राथमिकता थी हर हालत में पूरी टीम को वहां से सुरक्षित बाहर निकालना।
अगले दिन यानि 31 अगस्त को उन्होंने आक्रमण ही सर्वश्रेष्ट सुरक्षा है की नीति को अपनाते हुये सरकार के सामने यह मांग रखी कि वे चार बंधक जवानों को तभी छोड़ेंगे जब उनके आठ साथियों को रिहा कर दिया जाएगा। इसके लिए उन्होंने 1 अगस्त को शाम चार बजे तक का अल्टीमेटम दिया। इधर प्रशासनिक खेमे भी माओवादियों से लोहा लेने की पूरी तैयारी होने लगी थी, गुस्साये हुये जवान अपने आला अधिकारियों का मुंह ताक रहे थे, जबकि तमाम आला अधिकारी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे कि इस मामला का निपटारा सिर्फ हथियारों से नहीं होने वाला है। इसके लिए ऊपर से हरी झंडी मिलनी जरूरी है। वैसे तमाम पुलिस अधिकारी भी माओवादियों को राज्य से पूरी तरह से नेस्तनाबूत करने की मन स्थिति में आ चुके थे, बस इशारा का इंतजार कर रहे थे।
इधर आम जनता सारे ड्रामा को विभिन्न चैनलों पर देख रही थी, और तमाम चैनल वाले भी अपनी कुल बुद्धि और कौशल इस ड्रामा के विभिन्न दृश्यों और एक्ट्स को कवर करने में लगा रहे थे। बंधकों के परिवार वालों के एक्ट्स और डायलाग को प्रमुखता से दिखा रहे थे, चुंकि विजुअल्स के लिहास से इस तरह के बाइट्स आडियेन्स को जोड़ने वाला मालूम पड़ रहा था। अभय यादव की पत्नी और बेटी ने तो रुदाली मचा रखा था, जिसपर मीडिया वाले फिदा थे। इससे पहले बार-बार यह कह कर कि वे लोग अभय यादव की हत्या कर देंगे, सरकार के साथ- साथ आवाम के नब्ज को भी टटोलने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन संगठन के अंदर से ही उन्हें बहुत जल्द ही इस बात का अहसास हो गया कि अभय यादव के पक्ष में संगठन के लिए काम करने वाले यादव लोग खलबला रहे हैं। संगठन के बाहर तो कई स्तर पर अभय यादव को लेकर यादवों के बीच गोलबंदी भी होने लगी थी, सियासी लोग भी कनफूसियाने लगे थे कि यदि माओवादियों ने अभय यादव की हत्या की बिहार में माओवादियों को सीधे यादवों से टकराना पड़ जाएगा, और बिहार के यादवों का दायरा बहुत बड़ा है। संख्या बल तो इनके पास हैं ही, साथ ही हथियारों की भी कमी नहीं है। संगठन के अंदर भी यह महसूस किया जाने लगा कि अभय यादव की हत्या की स्थिति में बिहार में माओवाद का विस्तार प्रभावित हो सकता है, क्योंकि बिहार में माओवाद को थामने में यादव बल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है, चूंकि यादवों में गरीबी का स्तर पर भी व्यापक है।
इसी कसमकश में 2 सितंबर को अभय यादव की हत्या की खबर को माओवादियों ने लिटमस पत्र के तौर पर इस्तेमाल किया, और इसके साथ ही एक शांत बयार की तरह माओवादियों के खिलाफ कोल्ड रियेक्शन भी होने लगा। चुंकि अभी तक अभय यादव की लाश नहीं मिली थी, इसलिये ग्राउंड लेवल पर रियेक्शन के लिए लोग तैयार नहीं थे। तीन सितंबर को बीएमपी के जमादार लुकस टेटे का शव मिला। माओवादियों को यह दिखाना था कि वो सिर्फ कोरी धमकी ही नहीं देते हैं, बल्कि हत्या भी करते हैं। उन्होंने टेटे को मार दिया, क्योंकि संगठन के अंदर और बाहर से मिल रहे फीडबैक से वे इतना तो समझ गये थे कि अभय यादव की हत्या बिहार में माओवाद की कब्र खोद डालेगा, हालांकि सार्वजनिकतौर पर उन्हें यह भी साबित करना था कि वे काफी मजबूत हैं और किसी भी तरह का कार्रवाई करने के लिए स्वतंत्र हैं।
इधर टेटे की हत्या के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खुद कमान संभाल ली , और तमाम आला पुलिस अधिकारियों के मन को समझते हुये उन्होंने सर्वदलीय बैठक बुला ली, हालांकि मनोवैज्ञानिक रूप से माओवादियों के खिलाफ आला अधिकारियों को खुली छूट देने के लिए वह तैयार हो गये थे, और तमाम पुलिस अधिकारी इससे कम पर राजी भी नहीं थे। वे आरपार की लड़ाई लड़ने के मूड में थे। माओवादी भी इस बात को अच्छी तरह से समझ रहे थे कि अभय यादव समेत अन्य दो जवानों की हत्या करने की स्थिति में उनपर होने वाले चौतरफा हमलों को कोई नहीं रोक पाएगा। इसके साथ ही उनके जनहित में कार्य करने के तमाम दावे तार तार हो जाएंगे। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सभी दल के नेताओं से बातचीत करते हुये माओवादियों से बंधक जवानों का रिहा करने की अपील की। साथ ही माओवादियों को भी बातचीत का न्योता दिया। इसके बाद माओवादियों की ओर यह कहा जाने लगा कि बंधकों को बिना शर्त रिहा कर दिया जाएगा। यादवों के बीच अपनी पैठ को मजबूत करते हुये अभय यादव की पत्नी से राखी बंधवाने के लिए 5 सितंबर को गेरुआ गमछा बांधे एक तथाकथित माओवादी भी पहुंच गया, और अगले दिन तीनों जवानों को छोड़ दिया गया।
एहतेशाम खान के साथ भी मुस्लिम फैक्टर काम कर रहा था, जबकि रुपेश कुमार को बोनस के रूप में छोड़ा गया। एहतेशाम खान को लेकर मुसलमानों से माओवादियों का पंगा होने की पूरी संभावना थी, क्योंकि माओवादियों का सुपरलेटिव डिग्री के नेता लोग अंतरखाते इस्लाम के साथ भी जोड़ घटाव करते रहते हैं, और वर्तमान स्थिति में वे लोग इस मोर्चे पर कोई रिस्क लेने की स्थिति में नहीं है। काफी जोड़ घटाव करने के बाद इनलोगों ने क्रिश्चचन टेटे को मार डाला, जो आदिवासी था। टेटे की हत्या से आदिवासी माओवादियों के बीच भी नये सिरे से विचार मंथन शुरु हो चुका है, देर सबेर इसका असर कई रूपों में दिखाई देगा।
shayad logon ko yaad nahee hai ki mcc me 60 % cadre yaadav hua karte the…..wo laloo ki signal milne par bhartee hue the….gaya ilake me yadav naxaliyon ki hee tooti boltee thee…..cpi(maoist) babne kebaad bhee wo sakriye hain…..abhay yadav ke liye laloo ki bechainee unke chehre par saaf dikh rahee thee…..bihar me maovaadiyon ka jati-aadharit samajh rakhnaa ek bada sach hai…..
sanjay mishra
This was interesting and ive forwarded it on to all my friends on planet zikzar45. IF they like what you have written they may spare your life
but if they dont, well you should prepare your will. Earthling.
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