लिटरेचर लव

अमृत कलश (लघुकथा)

उमेश मोहन धवन,

वह दफ्तर कुछ ऐसी जगह पर था जहाँ दूर दूर तक चाय की कोई दुकान नहीं थी इसीलिये दफ्तर में ही एक कैंटीन बनवा दी गयी थी जिसकी देखरेख चंदा किया करती थी. चंदा सारा दिन मुस्तैदी से चाय, काफी व हल्का नाश्ता इस सीट से उस सीट पर पहुँचाते थकती नहीं थी.

´´छोटू क्या बात है आज ग्यारह बज गये पर चाय अभी तक नहीं आयी ?´´ लम्बे इन्तजार के बाद सक्सेना जी ने चपरासी को आवाज दी

´´चंदा आज छुट्टी पर है साहब. उसकी तबीयत खराब है.´´ चपरासी संक्षिप्त सा उत्तर देकर निकल गया.

´´क्या´´ सक्सेना जी बेचैनी से इधर उधर टहलने लगे. बिना चाय के काम की शुरुआत करने की उनको आदत नहीं थी. वापस आकर उन्होंने एक फाइल के पन्ने बेवजह उल्टे पल्टे फिर बंद करके कुर्सी में ढेर हो गये.

´´अरे भई छोटू देखना चाय कहाँ रह गयी ´´ मिश्राजी ने भी वही सवाल दोहराया तथा उन्हें भी वही जवाब मिला.

आठ-दस चाय रोज पीने वालें लोगों के हाथों में आज जैसे जान ही नहीं रह गयी थी. चंदा दो दिन और नहीं आयी.

´´छोटू इधर आ´´ चौथे दिन वर्माजी ने छोटू को बुलाया और उस पर बुरी तरह फट पड़े ´´अरे तुम लोगों से चाय का कोई और इंतजाम नहीं हो सकता है  क्या ? तीन दिन हो गये एक फाइल तक आगे नही बढ़ी है. एक काम तुम लोगों से…. ´´

´´चंदा आ गयी है साहब किचन में चाय बना रही है.´´ छोटू नें मरते हुये लोगों को जैसे जीवनदान दे दिया हो.

इतने में चंदा चाय लेकर आ भी गयी. ट्रे में रखे चाय के प्याले अमृतकलशों जैसे लग रहे थें

´´चंदा क्या हो गया था तुम्हें. अब कैसी तबियत है तुम्हारी.´´ सब एकसाथ अपने अपने ढंग से उसका हाल पूछ रहे थे. पता नहीं वे उसका हाल पूछ रहे थे या उससे अपना हाल बताना चाह रहे थे. उन्हें देखकर ये पता लगाना तो कठिन था कि तीन दिन तक तबियत वास्तव में किसकी खराब थी पर आज उस दफ्तर में फिर से जान अवश्य पड़ गयी थी.
                                                                       ***

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button