पहला पन्ना

अफ़जल को मिले नोबेल शान्ति पुरस्कार

चंदन कुमार

 महान क्रान्तिकारी अफ़जल साहब ने ऐसा क्या कर दिया कि सरकारें उन्हें हर दिन सरका रही हैं। पहले भाजपा ने और अब कांग्रेस ने, दोनों ने काम तो एक ही किया है सजा को सरकाते रहने का। नोबेल शान्ति पुरस्कार जो अधिकतर अशान्ति फैलाने वालों को दिया जाता है, ओबामा को दिया गया है। वह भी राष्ट्रपति बनने के तुरंत बाद ही। आखिर क्या किया है उसने? मैंने तो सुना है कि जिस समय नोबेल की घोषणा की गई उस समय भी अमेरिका युद्ध के विचारों में या युद्ध में डूबा हुआ था। उसका नेतृत्त्व तो ओबामा ही कर रहा था। लेकिन उसे यह पुरस्कार दिया गया। यह बताता है कि अमेरिका का नोबेल समिति पर कितना दबदबा है। पिछले बीस सालों में अमेरिका ने इतने नोबेल झटके हैं कि उसके पास नोबेल पुरस्कार रखने के लायक जगह भी कठिनाई से बन पाती है।

      अभी कुछ दिन पहले जब ओबामा भारत आया था तब भारत के लोग, भारत के सबसे कुपात्र छात्रों में से कुछ छात्र और हमारा कुपात्र मीडिया सब के सब अमेरिका की भक्ति में डूबे हुए थे। किसी भी चैनल पर ओबामा के सिवा ओबामा ही दिखता था। यह तो संभव नहीं है वरना भारत के चैनल ओबामा के नहाते समय और मुँह धोते या कुल्ला करते समय के भी फुटेज बिना दिखाए रह नहीं सकते थे। वैसे अगर सुबह-सुबह शौच करते समय का वीडियो भी मिल जाता तो बेचारे चैनल वाले अमृत का पान कर लेते लेकिन ये गई गुजरी व्यवस्था इन चीजों को तो दिखाने ही नहीं देती। ओबामा के नाचने से लेकर नचाने तक की खबर को भारत के मीडिया ने जम कर परोसा।

      मैं तो विषय से भटक गया! आइए वापस। जब सबसे ज्यादा युद्ध लड़ने वाले, हथियार बेचने वाले, परमाणु बम का लाइव परीक्षण करने वाले अमेरिका को शान्ति के नोबेल मिल सकते हैं तब अफ़जल भाई को क्यों नहीं? वैसे भी अफ़जल साहब ने गलत काम किया नहीं है। गाँधी की बात तो छोड़ दें। नोबेल के हकदार तो नेहरु भी थे। पंचशील, गुट निरपेक्ष, नि:शस्त्रीकरण या निरस्त्रीकरण के बावजूद वे नोबेल नहीं पा सके। अच्छा उनकी बात अभी नहीं।उन्होंने(ओबामा को उसने और अफ़जल को उन्होंने) तो भगतसिंह और गाँधी जी दोनों की इच्छाओं को एक साथ पूरा करने का प्रयास किया। यह कैसे? सबूत है भाई! गाँधी जी की इच्छा थी कि संसद भवन की बिल्डिंग को उड़ा दिया जाय, यह गुलामी का प्रतीक है। यह इच्छा तो अफ़जल भाई की कृपा से पूरी होने वाली थी लेकिन क्रांतिकारियों की तरह बेचारे पकड़ लिए गए। और अब भगतसिंह की बात। भगतसिंह ने सभा में बम फेंक कर कहा था कि बहरों को सुनाने के लिए धमाके की आवाज चाहिए। उस हिसाब से भगतसिंह के काम को और अधिक विस्तार देकर अफ़जल भाई और उनकी टीम ने तो पूरी संसद को उड़ाने की कोशिश की। यानि भगतसिंह से चार कदम नहीं, कई किलोमीटर आगे निकल गए। भगतसिंह ने किसी को मारने के लिए बम नहीं फेंका लेकिन अफ़जल भाई ने तो पूरी संसद के सारे भूत-प्रेतों को ही खत्म करने का निश्चय कर लिया था। समय भी तो 70 साल आगे जा चुका था। इसलिए भगतसिंह के सिद्धान्तों और योजनाओं को बदलकर और ताकतवर बनाना पड़ा।

      यह तो विश्वास हो गया कि अभी भी अंग्रेजी सरकार ही चल रही है जो किसी क्रान्तिकारी को छोड़ने वाली नहीं है। अब 1947 के पहले के इतिहास को हम सब समझ सकते हैं वो भी एक नए उदाहरण के साथ।

      अब बताइए कि अफ़जल साहब ने क्या गलत किया है? उन्होंने एक साथ भगतसिंह और गाँधी जी के सिद्धान्तों को पूरा करने की कोशिश की जो किसी दूसरे से सम्भव ही नहीं था। तो ऐसे भारत की शान्ति के लिए भगतसिंह के पदचिन्हों पर चलनेवाले के लिए नोबेल पुरस्कार की मांग के बारे में आपका क्या खयाल है?

            फिर भारत के सबसे प्रसिद्ध दो क्रांतिकारियों के पदचिन्हों पर चलनेवाले इस शख्स को भारत रत्न भी तो मिलना ही चाहिए। देश का सवाल है। भगतसिंह जिंदा होते संसद पर हमले के लिए अफ़जल की पीठ ठोकते लेकिन यह सरकार भगतसिंह की बात मानती और समझती ही कहाँ हैं? आज के भारत में अफ़जल का कदम उठाना सिर्फ़ एक सवाल ही छोड़ता है। क्योंकि यह कदम तो किसी भारतीय नागरिक को उठाना चाहिए लेकिन देश का युवा बेकार है। वह ऐसे महान कदम उठाएगा कहाँ से? उसे क्रिकेट और बॉलीवुड से फुरसत हो तब तो? एक भारतीय होने के नाते किसी ने यह शुभ काम तो किया नहीं। लेकिन जब अफ़जल साहब ने यह करने की कोशिश की तो हम सब भारत के स्वतंत्रता आंदोलन पर ध्यान देते ही नहीं हैं।

 अन्तरराष्ट्रीय राजनीति और आतंकवाद पर लम्बा चौड़ा व्याख्यान देनेवालों के लिए यह आलेख नहीं है। क्योंकि आतंकवाद कोई नई समस्या नहीं है और मेरे नजर में इतनी बड़ी समस्या भी नहीं है कि इस पर प्रधानमंत्री से लेकर चपरासी तक दुख जताते रहें। वैसे शायद वे मन में सुख ही जताते हों।

editor

सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button