आखिर किसकी है दिल्ली !

भारत की राजधानी दिल्ली, देश के इतिहास की एक लम्बी दास्तान है। इसे देश का दिल भी कहा जाता है। समय के थपेड़ों ने दिल्ली को कितनी बार उजाड़ा और बसाया है। जिसके कारण ऐतिहासिक रुप से यह कभी तय नहीं हो पाया कि दिल्ली किसकी है।

जब मुगलिया सल्तनत ने सीना तान कर कहा कि अब यह दिल्ली पूरी तरह हमारी है तो शेरशाह सूरी की तलवार उठ खड़ी हुई जिसकी धार को उसने बिहार के सासाराम में सालों तक एक छोटी सी रियासत को चलाते हुए तेज किया था। हुंमायू किसी तरह अपनी जान बचा कर भागा। हाथ से दिल्ली खिसक गयी और प्रश्न खड़ा हो गया ,किसकी है दिल्ली। हुंमायू का मकबरा और शेरशाह का किला आज भी दिल्ली में खड़े आसमान से बातें कर रहे हैं। इससे भी पहले सल्तनत काल में सनकी बादशाह के नाम से पहचाने जाने वाले मोहम्मद बिन तुगलक ने पूरी दिल्ली उजाड़ दी और इस बात पर अड़ गया कि अब देश की राजधानी दक्षिण भारत में  दौलताबाद होगी। बादशाह के दिल्ली खाली करने के आदेश का किसी समुदाय या वर्ग ने विरोध करने की हिम्मत नहीं की। वहाँ भी यह मौलिक प्रश्न बना हुआ था कि आखिर किसकी है दिल्ली।

भारत में जब अंग्रेजी हुकूमत का परचम लहराया तो आधुनिक दिल्ली के निर्माण की कहानी चल पड़ी। अंग्रेजी व्यवस्था की एक मजबूत अभिव्यक्ति के रुप में संसद भवन , सुप्रीम कोर्ट और अन्य इमारतें खड़ी हो गयीं। ब्रिटिश संस्कृति के तामझाम की दिल्ली साम्राज्यवाद की नींव पर खड़ी होकर चहकने लगी। गवर्नर  जनरल और वायसराय के दरबार लगने लगे लेकिन मौलिक प्रश्न वहीं खड़ा था, आखिर किसकी है दिल्ली।

 आज दिल्ली एक बड़े बाजार का रुप ले चुकी है। यह शहरीकरण का एक बड़ा बिस्तार है। विभिन्न वर्ग, जाति, समुदाय और धर्म को समेटे दिल्ली विभिन्न संस्कृति और जीवन-शैली का मिलन स्थल भी है। इस महानगर की हवा अपने और पराये का भेद नहीं जानती। दिल्ली में हर साल देश के अन्य क्षेत्रों से एक बड़ी संख्या का जुड़ाव हो रहा है। वे सहजता से यहां की गति और प्रगति में ढल जा रहे हैं। व्यापार और उद्योग से जुड़कर जीविका चलाने का रास्ता यहां आने वाले लोगों को मिल जाता है। ऊँची और तकनीकी शिक्षा के केन्द्र के रुप में भी दिल्ली काफी समय मे चर्चा में है जो छात्रों के एक बड़े हुजूम को इधर बहा रहा है।

आजादी के समय जो देश के विभाजन की प्रक्रिया चली उसमें बड़ी संख्या में सिक्खों का दिल्ली की ओर पलायन हुआ। उस समय अपने घर-बार से बेदखल वे दिल्ली के खाली पड़े क्षेत्रों में कैंप लगा कर रहने लगे। उत्तरी दिल्ली के वैसे ही एक क्षेत्र को किंग्सवे कैंप कहा जाता है। बाद में सरकार ने पूरी जमीन इन्हें दे दी  और इस तरह ये दिल्ली में बस गये। इन लोगों की स्थिति काल मार्क्स के उस मजदूर की तरह थी जिनके पास खोने के लिये कुछ भी नहीं था पर पाने के लिये पूरी दुनिया थी। सिक्खों ने अपनी मेहनत और व्यापारिक काबिलियत से दिल्ली में अपनी स्थिति संपन्न और प्रभावशाली बना ली। एक दौर था जब इन्हें लगा कि दिल्ली तो मेरी ही है। सिक्ख समुदाय पैसों पर अंगड़ाई ले रहा था, तभी 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही दो सिक्ख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गयी और इस घटना ने दिल्ली में तूफान खड़ा कर दिया। सिक्खों को निशाना बना कर उनकी दुकानें लूटी और जलायी गयीं साथ ही बड़ी संख्या में सिक्खों की  हत्या का गवाह बना दिल्ली। खौफ का यह खेल दिल्ली में निर्दोष सिक्खों को अपना शिकार बनाता रहा। इस घटना ने फिर वही सवाल खड़े कर दिये किसकी है दिल्ली। दिल्ली भौगोलिक रुप से हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जुड़ा क्षेत्र है। हरियाणा से बड़ी संख्या में लोग दिल्ली में बसे हैं। विशेष रुप से जाट और गुर्जर समुदाय के लोगों का फैलाव दिल्ली के अंदर हुआ है जो इतिहास की वही गलती दुहराते हुये कह रहे हैं कि दिल्ली तो हमारी  है। इनमें राजनीतिक सक्रियता ज्यादा है जो इनके राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाता है। राजनीतिक मंडली और धरना-प्रदर्शनों में ये बड़ी संख्या में पाए जाते हैं। इस वर्ग में शैक्षणिक योग्यता कम है इसलिए ये बौद्धिक रुप से मुखर नहीं हो पा रहे हैं। इन में व्यापारिक कुशलता का भी अभाव है। इन सब के बावजूद हरियाणा के पारंपरिक और संपन्न परिवार  एवं समाज का आधार इनकी दिल्ली में अच्छी स्थिति बनाए रखने में बहुत बड़ा सहयोगी है।

दिल्ली में उत्तर प्रदेश से आ कर रहने वालों की संख्या भी बहुत बड़ी है। ये शांतिपूर्वक अपना फैलाव कर रहे हैं। व्यापार के अलावा ये पत्रकारिता, वकालत और दूसरे बौद्धिक कार्यों में लगे हुए हैं। मीडिया घरानों में इनकी राजनीति चल रही है। ये वकालत के भी प्रणेता बने हुए हैं। इस प्रदेश से कुछ संख्या में श्रमिक  वर्ग भी हैं।

पिछले दस सालों में दिल्ली के लिए बिहार से भी बड़ा पलायन हुआ है। जिसमें सबसे ज्यादा शारीरिक श्रम से जुड़े लोग हैं , जो मजदूर एवं रिक्शा-ठेला चलाने वाले हैं। छात्रों की एक बड़ी संख्या भी दिल्ली पहुंची है जो धीरे-धीरे अपनी जगह बना कर बसने लगे हैं। कुछ सरकारी पदों पर भी अपनी पढ़ाई की मेहनत से काबिज हैं।

इन सब के अलावे आज दिल्ली में हर राज्य एवं क्षेत्र के लोग मिल जाएंगे एवं सभी भाषाएं वहां बोली जा रही हैं जो देश की मिश्रित संस्कृति का अहसास दिलाती है। ऐतिहासिक भवनों की उंचाई आज भी इतिहास को चित्रित कर रही है लेकिन यह प्रश्न अभी भी वहीं है कि आखिर किसकी है दिल्ली  !