आखिर कौन है ये भगतसिंह?
चंदन कुमार मिश्र, पटना
भगतसिंह- एक जाना पहचाना नाम विशेष रूप से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक्शन हीरो के तौर पर। इस नाम के बारे में मुझे क्यों कुछ कहने की जरुरत हो रही है जबकि इस नाम के उपर लाखों पन्ने भरे जा चुके हैं, करोड़ों रूपये का व्यापार हिन्दी सिनेमा कर चुका है। कुछ तो ऐसा है जरुर कि मैं कुछ कहना चाह रहा हूं। तो चलिए भगतसिंह की रेलगाड़ी में सैर करते हैं।
पहली बात ये कि हम भगतसिंह को कैसे जानते हैं, कितना जानते हैं तो हम सिर्फ़ यही जानते हैं कि “भगतसिंह एक क्रांतिकारी थे जो हिंसक तरीके से आजादी चाहते थे। उनका जन्म पंजाब में हुआ था। उन्होंने एक अंग्रेज अधिकारी सौंडर्स की हत्या, एसेम्बली में बम फेंकना जैसी घटनाओं को अंजाम दिया। उन्हें 23 मार्च 1931 को सुखदेव और राजगुरु के साथ फांसी दे दी गई। और गांधीजी ने उन्हें बचाने का कोई प्रयास नहीं किया। उनका नारा था इंकलाब जिंदाबाद!!” यही जानकारी अधिकांश लोगों को है जो भगतसिंह-भगतसिंह का शोर मचाते हैं और गांधी चोर था, गांधी ऐसा था, वैसा था कहते फिरते हैं। और कुछ उत्साह से 15 अगस्त और 26 जनवरी को उनके नाम पर कुछ गाने गाना, लोट-लोट कर नौटंकी करना, डांस करना और बहुत से बहुत हुआ तो किसी संगठन के बोर्ड पर भगतसिंह का फोटो लगाकर ब्रांड की तरह भगतसिंह का इस्तेमाल करना बस यही काम हमारे द्वारा किये जाते हैं। मैंने किसी मां-बाप को यह बताते हुए न देखा है न सुना है कि वो अपने बच्चों को भगतसिंह बनने की ओर प्रेरित करते हों। आप पूछ कर देख लें बच्चों से कि क्या बनना चाहते हो? जवाब होगा- सलमान खान, शाहरुख खान, सचिन तेंदुलकर, धोनी, मुकेश अंबानी, बिल गेट्स, डाक्टर, इंजीनियर, मिस इंडिया, हीरो, हीरोइन। बस यहीं तक सोच हो सकती है। इससे आगे कुछ सोचना तो दूर की बात है। मैं अक्सर देखता हूं कि युवा जिनका काम सुबह शाम शराब, गाली-गलौज, अभद्रता, ग्लैमर, बाइक और सिगरेट का इस्तेमाल करना होता है गांधी से जलते हैं क्योंकि गांधी ग्लैमरस नहीं हैं, बूढे हैं देख कर मन दुखी हो जाता है तो बेचारे भगतसिंह के नाम पर कूदते हैं कि हिंसा बहुत अच्छी चीज है पर दुख इस बात का है कि न तो उनको भगतसिंह के बारे में ज्यादा मालूम है न ही गांधी के बारे में। वैसे यह जरुर बता दूं कि भगतसिंह से ज्यादा वे गांधी जी के ही बारे में जानते हैं। मेरा दावा ये नहीं मैं बहुत ज्यादा जानता हूं दोनों के बारे में। गांधी का सम्पूर्ण वांगमय 50 हजार से ज्यादा पृष्ठों में भारत सरकार ने छापा है। और भगतसिंह का सब कुछ सिर्फ़ चार-पांच सौ पृष्ठों में सिमटा हुआ है। अगर आप भगतसिंह की किताब या विचारधारा की बात करेंगे तो ये भाग खड़े होते हैं। मैं बता दूं कि मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो भगतसिंह के नाम पर लड़ने को तैयार हो जाते हैं लेकिन मैंने जब भगतसिंह की किसी किताब या लेख पर उनका ध्यान दिलाया तो उन्होंने पलटी मार दी। भगतसिंह का पक्ष युवा वर्ग खूब लेता है लेकिन जैसे ही भगतसिंह जैसा बनने की बात आती है उसका ध्यान अमेरिका, इंग्लैंड, दौलत, ऐशो आराम पर चला जाता है।
पंजाब जिसे सुनते ही पगड़ी की याद आ जाती है जहां पहचानना मुश्किल होता है कि कौन कैसा है? सारे लोग एक ही जैसे दिखते हैं वहीं एक अलग सा दिखने वाला बच्चा पैदा होता है 28 सितम्बर 1907 को। चूंकि कोई देश या इतिहास इसके पीछे नहीं पड़ता कि लेनिन, मार्क्स, हिटलर, बुद्ध या कोई और किसका बेटा है, ठीक उसी तरह यह बच्चा किसका बेटा है मुझे बताने में कोई रूचि नहीं। यहां मैं एक बात कहना चाहता हूं कि अगर कोई ये समझे कि फलां आदमी या महापुरुष के माता –पिता बड़े महान थे जो उन्होंने किसी महापुरुष को जन्म दिया या पाला तो ये बिल्कुल ही मानने लायक नहीं है क्योंकि सब जानते हैं दुनिया के लगभग सारे महान या क्रांतिकारी आदमी के मां-बाप की वे इकलौती संतान नहीं थे। लगभग सभी के एक से ज्यादा संतान थी। तब अगर वे वाकई में महान थे और बहुत बुद्धिमान, शक्तिशाली या गुणवान थे तो उन्होंने अपने दूसरे बेटे को महान क्यों नहीं बना दिया। जहां तक मुझे याद आ रहा है, विवेकानंद दस से ज्यादा भाई-बहन थे तो क्यों नहीं उनके माता-पिता ने दूसरा विवेकानंद पैदा कर दिया। कोई आदमी अपने मां-बाप से शरीर लेकर पैदा होता है पर उसकी खुद की सोच, समय की जरुरत, उसका खुद का मंथन, खुद का संघर्ष आदि उसे महान बनाते हैं न कि किसी खास का बेटा होना।
उस बच्चे की जीवनी बताना मेरा लक्ष्य नहीं इसलिए यहां लम्बी जीवनी नहीं चलेगी। लेकिन उन घटनाओं का जिक्र जरुर होगा जिससे वह बच्चा भगतसिंह बना। घर में सदस्यों का आजादी के आंदोलन से किसी–न-किसी तरह से पहले से जुड़ा हुआ होना, बचपन में ही जलियांवाला बाग हत्याकांड को नजदीक से जानना, आंदोलनों का दौर होना ये सारे कारण उस समय मौजूद थे। लेकिन बेखौफ मौत, हंसते हुए फांसी पर चढना, फांसी के पहले चिंता नहीं होने की वजह से वजन का बढ़ जाना, लम्बी भूख हड़ताल, मरने के समय किसी भगवान, वाहे गुरु जैसे छलावे या सहारों का स्मरण भी न करना, अल्पायु में घोर अध्ययन, एक विचारक होना और सबसे महत्वपूर्ण साढे तेईस साल की उम्र में दुनिया से चले जाना- ये घटनाएं बताती हैं भगतसिंह नाम का युवक भगतसिंह क्यों और कैसे बना?
किताबों, भाषा, साहित्य और हिन्दी पर
21 फरवरी 1921 को 140 सिखों को महन्त नारायणदास ने बड़ी बेरहमी से मार डाला था ननकाना साहिब में। इसमें अंग्रेजों की मदद महन्त को मिली थी। बहुतों को जिंदा जला डाला गया था। इस घटना से आहत लोगों ने पंजाब में अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन शुरु कर दी। लोग पंजाबी सीखने पढ़ने, सीखने, लिखने लगे। भगतसिंह ने भी इस प्रभाव में आकर पंजाबी सीखी। यही पंजाबी भाषा एक बार उनके लेखन का विषय बनी। 1924 में पंजाब हिन्दी साहित्य सम्मेलन के लिए उन्होंने एक लेख लिखा था पंजाबी भाषा और उसके लिपि की समस्या पर। इस लेख भगतसिंह ने साहित्य और भाषा पर विचार किया है। अब आज के युवाओं के लिए साहित्य और भाषा का महत्व कितना रह गया है? जरा देखते हैं। अगर एक छात्र हिन्दी से एम ए कर रहा हो तो उसे और छात्र एवं लोग बड़ी नीची दृष्टि से देखते हैं। जब हमें पता चलता है कि मेरे बगल में एक लेखक रहते हैं तब हम उनके उपर हंसते हैं और कहते हैं- ‘वह कुछ नहीं बस टाइम बर्बाद करता है।’ मेरी मातृभाषा भोजपुरी है। लेकिन जब मैं घर में या बाहर भोजपुरी बोलता हूं तब कभी-कभी लोग या ज्यादातर मेरे रिश्तेदार मुझे मूर्ख समझते हैं। उन्हें मैं पुराना लगता हूं। पुराना जानकर अगर फेंकना ही किसी का उद्देश्य हो तब भगतसिंह भी 80 साल पुराने हो चुके हैं और उन्हें भी हमें हमेशा के लिए दफना देना चाहिए!
आज हमारी राष्ट्रभाषा हिन्दी नहीं, अंग्रेजी है। मैं यह बात होशोहवास में कह रहा हूं। हमारे देश में जब आप किसी के घर जाते हैं तो वहां बच्चों के माता-पिता क ख ग सुनाने को नहीं कहते, बच्चा ए बी सी डी अगर सुनाता है तब उनके कलेजे को ठंढक पड़ती है। अगर कोई ग्रामीण क्षेत्र का बच्चा अपने रिश्तेदार के यहां शहर जाता है और वह अच्छी अंग्रेजी नहीं जानता तो उसे मानसिक परेशानी और कुंठा का शिकार होना पड़ता है और फिर टूटी-फूटी ही सही लेकिन अंग्रेजी का उपयोग अपने दैनिक जीवन में वो शुरु कर देता है। इस देश में एक खासियत ये है कि यहां सैकड़ों भाषाएं बोली जाती हैं। हर भाषा के अपने-अपने तर्क और पक्ष हैं लेकिन भगतसिंह के अनुसार – ‘समस्त देश में एक भाषा, एक लिपि, एक साहित्य, एक आदर्श और एक राष्ट्र बनाना पड़ेगा; परन्तु समस्त एकताओं से पहले एक भाषा का होना जरुरी है ताकि हम एक-दूसरे को भली-भांति समझ सकें। एक पंजाबी और एक मद्रासी इकट्ठे बैठकर केवल एक दूसरे का मुंह ही न ताका करें, बल्कि एक दूसरे के विचार तथा भाव जानने का प्रयत्न करें, परन्तु यह पराई भाषा अंग्रेजी में नहीं, बल्कि हिन्दुस्तान की अपनी भाषा हिन्दी में।’ भाषा के लिए आखिर इतना जोर क्यों? भाषा ही हमारे बीच एक ऐसी माध्यम है जिसके सहारे हम एक दूसरे से सम्पर्क करते हैं। अपनी भाषा हम क्यों इस्तेमाल करें यह प्रश्न जिसके दिमाग में आता है उसे सोचना चाहिए क्या किसी देश ने अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा से अपना विकास किया है या नहीं। भगतसिंह ने हिन्दी को सर्वांगसम्पूर्ण लिपि वाली भाषा कहा है। यहां हम यह बता दें कि हिन्दी क्यों और कैसे अंग्रेजी से आसान और बेहतर है और कैसे यह भगतसिंह के बात को सच साबित करती है?
1) हिन्दी के पास नये-नये शब्द बनाने की अपार क्षमता है अंग्रेजी के पास नहीं। तो हमारी हिन्दी में तो हर चीज के लिए बनायी जा सकती है।
2) हिन्दी के पास जितने वर्ण हैं उनमें संसार की लगभग सभी भाषाओं के शब्दों के उच्चारण की क्षमता है।
3) जैसे लिखे वैसे पढे ऐसी तो बहुत ही कम भाषाएं हैं उनमें से हिन्दी है। जर्मन, फ्रेंच और अंग्रेजी जैसी भाषाएं ऐसी नहीं हैं कि हम जो लिखें वहीं पढे। कुछ शब्द जैसे Manager जर्मन में मैनेजर पढा ही नहीं जाता।
4) तमिल में वर्णों के वर्ग में कुछ वर्ण होते ही नहीं। जहां तक मुझे याद है तमिल में गांधी को कांधी लिखना पड़ता है। बांग्ला में लक्ष्मी लिखते हैं पढ़ते हैं लोखी। भगतसिंह के अनुसार एक बार एक अनुवादक ने ॠषि नचिकेता को उर्दू में लिखा होने से नीची कुतिया समझकर ‘ए बिच आफ लो ओरिजिन’ अनुवाद किया था। इसमें दोष उर्दू भाषा और लिपि का था। उन्हीं के अनुसार पंजाबी में हलन्त और संयुक्ताक्षर के अभाव के कारण बहुत सारे शब्दों को ठीक से नहीं लिखा जा सकता है। चीनी की तो महिमा ही अपार है। वहां तो हर शब्द के लिए ही चिन्ह निश्चित किये गये हैं। उनमें शायद नये शब्दों को लिखने के लिए चिन्ह ही नहीं हैं। हमारे यहां अंग्रेजी पढ़ते समय बच्चों को अलग से याद कराना पड़ता है कि ये शब्द साइलेंस वाले हैं।
5) अंग्रेजी में एक होता है Article जिसका स्थान हिन्दी में है ही नहीं। ठीक इसी तरह से कैपिटल और स्माल अल्फाबेट्स का भी ध्यान लिखते समय रखना पड़ता है। लोग कहते हैं हिन्दी में वर्ण ज्यादा हैं तो क्या अंग्रेजी में लिखने के तरीकों को मिलाकर 104(26*2*2) अल्फाबेट्स नहीं हैं। और वर्ण ज्यादा होने का ही फायदा है कि हम अधिकांश भाषाओं के शब्द हिन्दी में सुनकर लिख सकते हैं।
6) एक विषय है विशेषण। अंग्रेजी में तो लम्बा-चौड़ा अध्याय है। साथ ही याद रखना पड़ता है कि किस शब्द को रूप अब क्या होता है। हिन्दी में तत्सम शब्दों के साथ तर या तम लगाने से ही काम खत्म। अगर शब्द तत्सम नहीं है तब उससे या सबसे जोड़ लीजिये और हो गया काम। जैसे- सुंदर से सुंदरतर या सुंदरतम और खराब से उससे खराब या सबसे खराब।
7) एक भयानक अध्याय है Preposition शायद अंग्रेजी का सबसे ज्यादा बड़ा और पूरा नहीं हो सकने वाला अध्याय। अब हिन्दी में देखते हैं। Over, On, At आदि का झंझट ही नहीं। अगर उपर है तो बस उपर है।
8) चाय बनाना, सवाल बनाना, दाढ़ी बनाना, खाना बनाना, मूर्ख बनाना, घर बनाना, सामान बनाना आदि के लिए To prepare tea, to solve, to shave, to cook food, to make fool, to build, to manufacture, to create इस्तेमाल किये जाते हैं। अब देखिए हिन्दी में बनाना मतलब बनाना, क्या बना रहे हैं इसको अलग से याद रखने का कोई काम नहीं।
9) हमारे यहां या किसी भी सभ्यता में आदर का होना आवश्यक है। अंग्रेजी में He was a teacher. थे या था पता नहीं। Suman is going. लड़का है या लड़की पता नहीं। You तुम है या आप कुछ पता नहीं। लिंग के मामले में भी अंग्रेजी कुछ खास नहीं। आदर की कोई भावना ही नहीं है अंग्रेजी में। फिर यह सभ्य कैसे हो गयी?
10) अपवादों की बात करें तो जिस भाषा में अपवाद कम हों वह उतनी ही अच्छी या वैज्ञानिक भाषा होती है।
11) एक बार मेरे एक शिक्षक ने कह दिया कि अंग्रेजी में सुंदर के लिए बहुत सारे शब्द हैं जैसे- नाइस, ब्यूटीफुल, फाइन आदि। मैंने कहा कि हिन्दी में पर्यायवाची शब्दों को देख लें तो पता चले। किसी-किसी शब्द के सौ से ज्यादा अर्थ हैं। इस मामले में अंग्रेजी हिन्दी से ज्यादा कैसे समृद्ध हो गयी। एक शब्द है- सारंग या हरि इनके अर्थ देख लें तो पता चले कि एक शब्द के लिए हमारे पास कितने शब्द हैं।
12) अनुवाद के मामले में भी अंग्रेजी बहुत गरीब भाषा है। जैसे सरकार सड़क बनवाती है का अंग्रेजी होता है कि सरकार बनी हुई सड़क प्राप्त करती है। यानि प्रेरणार्थक क्रियाओं के मामले में भी हिन्दी निर्विवाद अंग्रेजी से ज्यादा समृद्ध है।
13) जिस तकनीक की भाषा का हम शोर मचाते हैं उसमें तो अधिकतर शब्द लैटिन, जर्मन आदि से लिए गए हैं। रासायनिक तत्वों के नाम तो कुछ ही अंग्रेजी के होंगे या नहीं भी होंगे। इस तरह से रसायनशास्त्र तो अंग्रेजी ने उधार के शब्दों से चला रखे हैं।
14) एक Question Tags होता है जिसे सबको पढना पड़ता है लेकिन हिन्दी में इसके लिए कोई माथा पच्ची नहीं करनी होती।
15) छंद, रस या अलंकार के मामले में तो हिन्दी का कोई जोड़ ही जल्दी नहीं मिलेगा। कविता लिखने के इतने तरीके हैं हिन्दी में कि आप सारे में लिख ही नहीं पायेंगे।
16) भाषा सीखने के लिए शब्द और व्याकरण हम ये ही दो चीजें सीखते हैं। व्याकरण तो मैंने बता दिया। शब्दों के मामले में संयुक्त शब्दों को बनाने की या इस्तेमाल करने की परंपरा या जो छूट हिन्दी में है वो कभी अंग्रेजी देती ही नहीं। हम बहुत सारे शब्द हिन्दी में बिना जाने भी प्रयोग कर सकते हैं अग्र हिन्दी के शब्दों से हमारा थोड़ा भी अच्छा परिचय हो लेकिन अंग्रेजी में एक-एक शब्द सीखना पड़ता है तब जाकर हम अंग्रेजी सीखते हैं। ऐसा नहीं कि हर जगह अंग्रेजी कमजोर ही है बहुत जगह उसमें भी कुछ चीजें आसान हो जाती हैं।
17) नियमों के मामले में जिस भाषा के नियमों की संख्या जितनी कम हो उसे उतना ही सरल या आसान माना जायेगा। इस हिसाब से ये बताने की जरुरत नहीं कि हिन्दी में अंग्रेजी से कम नियम होते हैं या ज्यादा।
ये कुछ बातें जो अभी याद आईं मैंने लिखीं। अगर किसी भाषा की सरलता को जानना हो तो सबसे आसान और कारगर उपाय यह है कि हम किसी ऐसे आदमी से दूर-दूर तक जो हिन्दी और अंग्रेजी नहीं जानता उसे दोनों भाषाएं सिखाने के बाद देख सकते हैं कि कौन सी भाषा जल्दी सीखी जा सकती है। फिर भी हर जगह युवक स्पीकिंग कोर्स करते हुए पाए जाते हैं। वहां उन्हें 100 दिन में, 3 महीने, 4 महीने या 6 महीने में धाराप्रवाह अंग्रेजी सीखायी जाती है। यह एक बहुत बड़ा सच है कि कोई भी भाषा कठिन परिश्रम के बाद ही आती है न कि कुछ दिन हाय, हेल्लो, गुड मार्निंग, बाय आदि के इस्तेमाल से। आप चाहे कितनी भी अच्छी हिन्दी जानते हों आपसे कोई हिन्दी सीखने नहीं आता लेकिन एक नौसिखिये से अंग्रेजी सीखने के लिए भीड़ लग जाती है। कोई भी हिन्दुस्तानी बिना अपनी मातृभाषा में सोचे अपनी बात अंग्रेजी में तो कहता नहीं फिर सीधे हिन्दी में ही क्यों न कही जाय। दक्षिण के लोगों के लिए इतना ही कहना है कि जब वे अंग्रेजी सीखकर दूसरे राज्यों से सम्पर्क कर सकते हैं तब हिन्दी सीखकर क्यों नहीं। हिन्दी इसलिए कि यह भाषा भारत में लगभग 80 करोड़ लोग जानते, समझते, बोलते , पढते या लिखते हैं। क्या हमें यह याद नहीं करना चाहिए कि सात लाख बत्तीस हजार क्रांतिकारियों ने अपनी जान अंग्रेजों को भगाने के लिए दी थी और हम उसी अंग्रेजों की अंग्रेजी को अपने घर में आदर के साथ बिठाये हुए हैं।
न्याय शास्त्र पर भारत में बहुत पहले से किताबें लिखी जाती रही हैं फिर भी हम न्यायालयों की भाषा अंग्रेजी रखे हुए हैं। अंतर्राष्ट्ररीय स्तर पर हमारे देश का नाम शायद दुनिया में एक अनोखा उदाहरण है जिसे हम अपने देश की भाषा में नहीं बल्कि अंग्रेजी में रखे हुए हैं यानि इंडिया। हमारे देश का नाम भारत होना चाहिए था लेकिन अंग्रेजों की मानस संतानें हमारे देश में आज भी हैं। दुनिया में दो सौ से ज्यादा देश हैं। एक हमारा ही काम अंग्रेजी के बिना नहीं चलता। लगभग 10-12 देशों के अलावे अंग्रेजी किसी भी देश वह स्थान नहीं रखती जो हमारे देश में रखती है। जर्मनी, फ्रांस, रूस, जापान आदि देश क्या अपनी भाषाओं के दम पर आज सब कुछ नहीं कर रहे? फिर हमारे देश में अंग्रेजी का कुत्ता क्यों सबको काटे जा रहा है? अगर अंग्रेजी जानने भर से ही कोई नौकरी पा लेता तो क्या इंग्लैंड में कोई भी गरीब नहीं, भिखारी नहीं। गणित और विज्ञान के क्षेत्र में रूस का स्थान आप से छुपा नहीं है फिर भी हम क्यों अंग्रेजी के पिछलग्गू बने हुए हैं? अर्थशास्त्र भी चाणक्य के जमाने से है फिर भी हमें अंग्रेजी में अर्थशास्त्र क्यों पढाया जाता है? हमारे हिन्दी में जब यह खासियत है कि वह अन्य भाषाओं के शब्दों को अपने में मिला लेती है तब भी हमें विकलांग भाषा की जरुरत क्यों होनी चाहिए? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जगदीश चंद्र बसु के सारे शोध-पत्र बांग्ला में लिखे गये थे। हमें अपनी भाषा का इस्तेमाल करना ही होगा वरना एक दिन भाषायी रूप से हम सौ प्रतिशत अंग्रेजी के गुलाम हो जायेंगे।
हमारे यहां बिहार में दूरदर्शन पर उर्दू समाचार सवा सात बजे से प्रसारित किया जाता है। मैं हमेशा देखता हूं कि जिस शब्द का उर्दू में अभाव है उसे अंग्रेजी में कहा जाता है जैसे कार्यक्रम को प्रोग्राम। ऐसे अनेक शब्द हैं जिनके लिए अंग्रेजी के शब्द इस समाचार में इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसी भाषायी कट्टरता बिल्कुल ठीक नहीं है। जब हम हिन्दी में हरेक वाक्य में उर्दू के शब्दों का इस्तेमाल करते हों, हमारी फिल्मों की भाषा हिन्दी नहीं हिन्दी-उर्दू मिश्रित हिन्दुस्तानी हो तब इन उर्दू वालों की समझ पर दुख होता है। किसी भी तरह की संकीर्णता या कट्टरता का विरोध होना चाहिए। यह हमारे देश के लिए घातक है।
भारत एक ऐसा देश है जहां हमें तब अच्छा समझा जाता है, विद्वान समझा जाता है जब हमारे घरों में अंग्रेजी की किताबें हों और अंग्रेजी अखबार आता है लेकिन अन्य देशों में लोगों को तब सभ्य समझा जाता है जब उनके घरों में उनके अपनी भाषा की किताबें हों और उनकी भाषा का अखबार हर दिन आता हो। आंकड़े कहते हैं कि अंग्रेजी भाषा के कारण लाखो-करोड़ों बच्चे पढाई बीच में ही छोड़ देते हैं। फिर भी हम क्यों कुछ करोड़ लोगों के लिए ही सोचते हैं और अंग्रेजी को सब कुछ बनाने पर तुले हुए हैं। आज भी गांवों में लगभग 90 करोड़ लोग रहते हैं। आप चले जाइए और अंग्रेजी का एक छोटा सा अनुच्छेद उन्हें पकड़ा दीजिए और कहिए कि इसका अर्थ वे अपनी भाषा में बता दें तो मेरा दावा है कि कुछ गांवों को छोड़कर सारे गांवों में एक-दो आदमी भी ऐसा नहीं मिलेगा। पूरे भारत में दो करोड़ लोग भी ठीक से अंग्रेजी नहीं समझते-जानते हैं। हमारे देश का इतिहास या और किसी भी विषय की पाठ्यपुस्तक का मूल अंग्रेजी में लिखा जाता है फिर उसे हिन्दी में अनूदित करके छापा जाता है और इस अनुवाद के दौरान ऐसी मूर्खता भरी गलतियां की जाती हैं कि कभी-कभी शब्दों को समझना शिक्षकों के लिए भी बहुत कठिन हो जाता है। अपनी भाषा के प्रति कोई सम्मान अधिकांश लोगों में है ही नहीं। लेकिन हमारी सरकार जब किताब छापती है तब भगतसिंह को आतंकवादी करार दिया जाता है। ऐसी महान सरकार के सरदार जी जैसे प्रधानमंत्री का हिन्दी प्रेम सभी जानते हैं। हम जानते हैं कि दुनिया की सबसे अच्छी सोच अंग्रेजी में नहीं पैदा हुई। दर्शन या साहित्य के मामले में जर्मनी, फ्रांस या रूस ही आगे हैं। वैसे भी जब अंग्रेजी को इंगलैंड की राष्ट्रभाषा बनाया जा रहा था तब ठीक वही तर्क दिये गये थे जो आज हिन्दी के विरोध में दिये जाते हैं। वहां बुद्धिमान लोगों ने कहा था कि अंग्रेजों जाहिलों, गंवारों की भाषा है। इसका विरोध किया गया था।
एक और बहुत ही महत्वपूर्ण बात कि हमारी चिंता दुनिया के प्रति इस मामले में क्यों इतनी ज्यादा है कि हमारी बात दूसरे देश कैसे समझेंगे? जब सभी देश के नायक, राजनेता या लोग कहीं भी अपनी भाषा बोलते हैं और वे चिंता नहीं करते कि हम या कोई दूसरा उनकी बात कैसे समझेंगे तब हमें क्यों सोचना चाहिए कि वे कैसे समझेंगे? इस बात की चिंता से कोई लाभ नहीं होने वाला। एक और गम्भीर बात कि दूसरे देश अपने सारे दस्तावेज या पत्र अपनी भाषा में तैयार करते हैं तब हम अंग्रेजी में तैयार करके क्यों उन्हें बताना चाहते हैं कि हमारी सुरक्षा व्यवस्था से लेकर हमारी सारी योजनाएं अंग्रेजी में हैं और इन्हें वे आसानी से समझकर इनका इस्तेमाल आसानी से कर सकते हैं। एक बात ध्यान दें कि सारे देशों में राजदूत या दूतावास होते हैं जो एक दूसरे की भाषा समझने में भी काम आते हैं।
वैज्ञानिक यह बात कह चुके हैं कि संस्कृत कम्प्यूटर के लिए सबसे अच्छी भाषा है और सब जानते हैं कि हिन्दी का उद्भव संस्कृत से ही हुआ है।
लोगों का कहना होगा कि भगतसिंह के जमाने में अंग्रेजी की हालत दूसरी थी, अब हमारी जरुरत बन गयी है अंग्रेजी। लेकिन कोई भी आदमी जरा सोचें कि सिवाय हमारी मानसिक गुलामी के अंग्रेजी की क्या और कितनी जरुरत है? हिन्दी को विस्थापित करने की सोची समझी चाल के अलावे अंग्रेजी का प्रयोग क्या है? हम जरा गौर से देखें और सोचें तब हमें पता चलेगा कि अंग्रेजी का लबादा हमने बिना मतलब के ही ओढ़ रखा है। हमारे सारे काम हिन्दी या भारतीय भाषाओं से चलते हैं या चल सकते हैं। अंग्रेजी तो सिर्फ़ नौटंकी के लिए रखी गयी है। अंग्रेजी की आवश्यकता तो ऐसे बतायी जाती है जैसे खाना से लेकर सोना तक इसके बिना होगा ही नहीं। यानि अंग्रेजों के आने के पहले भारत में लोग कुछ करते ही नहीं थे। अगर हरेक आदमी अंग्रेजी पढने लगे तो ऐसा लगता है कि सारे लोग अमेरिका और इंग्लैड में ही नौकरी करेंगे। अगर विदेशों से या विदेशियों से बात करने की जरुरत होती है तो कितने लोगों की आवश्यकता है? क्या पूरे देश को ब्रिटेन की महारानी से मिलना है? हमें किसी भी निजी या सरकारी कार्यालय में हाथ पर गिनने लायक कर्मचारी मिलेंगे जिनको अंग्रेजी में बात करने की जरुरत है? एक उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए एक कम्पनी है भारत में जिसमें कुल 10000 लोग काम करते हैं। तो इन 10000 लोगों में सिर्फ़ 2-4 या पांच को ही अंग्रेजी के इस्तेमाल की जरुरत(बनावटी जरुरत, मैं नहीं मानता कि यह जरुरी है) होती है तब क्यों सारे देश को अंग्रेजी के कुत्ते से कटवाने पर हम तुले हुए हैं?
सवाल सिर्फ़ भाषा का नहीं, हमारे अपने स्वाभिमान,शहीदों के सम्मान, राष्ट्रीय अस्मिता का भी है। इसलिए हम अंग्रेजी का विरोध करते हैं। आगे यह बात भी आयेगी अंग्रेजी सीखने के पीछे लोगों की मानसिकता क्या होती हैं?
अब सवाल है साहित्य का। भगतसिंह के जेल की डायरी में लगभग 43 लेखकों और 100 से ज्यादा किताबों का जिक्र आया है। यानि भगतसिंह युवावस्था में ही किताबों और साहित्य के प्रति रुचि रखते थे और भरपूर अध्ययन भी करते थे। क्योंकि उन्हें मालूम था कि भाषा को जानने के बाद अध्ययन ही वह रास्ता है जो हमें चिंतन के उन सारे घरों से हमारा परिचय कराता है जो बहुत समय लगाने के बाद, बहुत सोचने के बाद और लम्बे और कठिन मानसिक परिश्रम से बनाया गया है। उन्होंने इतनी कम उम्र में ही दुनिया के लगभग सभी प्रमुख लोगों को पढा जो उस समय चेतना और चिंतन संसार में छाये हुए थे जैसे- मार्क्स, लेनिन, टाल्स्टाय, गोर्की आदि। अध्ययन और लेखन से उनका गहरा नाता रहा है। वे हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाएं अच्छी जानते थे। वे कभी बलवंत तो कभी विद्रोही नाम से भी लिखा करते थे। इन नामों की वजह से हो सकता है कि अभी भी उनका लिखा बहुत कुछ प्रकाश में नहीं आया हो। यहां सवाल है कि आज के युवा अध्ययन और साहित्य का कितना महत्व समझते हैं? इस विषय पर थोड़ा विचार करते हैं।
भगतसिंह का मानना था कि किसी भी देश या समाज का साहित्य ही उसकी धरोहर है। और इसलिए साहित्य का संरक्षण और संवर्धन रुकना नहीं चाहिए। हम खुद सोचें कि आखिर हम अपने बीते कल को कैसे जानते हैं या भगतसिंह को ही कैसे जानते हैं? सीधा सा उत्तर है किताबों से। मौखिक जानकारी के साथ छेड़छाड़ होने की उम्मीद ज्यादा आसान होती है। वैसे यह छेड़छाड़ किताबों के साथ भी मुश्किल नहीं। लेकिन मौखिक चीजों को बचाकर रखना किताबों या साहित्य की तुलना में बहुत कठिन होता है। मानव ने अपने विकास के मार्ग में कौन-कौन से रोड़े देखे या क्या-क्या पाया चाहे वह विज्ञान की उपलब्धि हो, इतिहास या गणित की हो चाहे कला, संगीत आदि की हो इन सारे चीजों को साहित्य और किताबें ही बचाकर रखती हैं। लेकिन अब सवाल यह है हम आज कितना साहित्य पढते हैं? कितनी किताबें पढी जाती हैं? युवाओं के पास जवाब है कि उन्हें समय नहीं मिलता, फिल्म देखना है, रोमांस करना है, कोर्स और पढाई पर ध्यान देना है, टीवी, रेडियो या फिर इंटरनेट भी हैं, मोबाइल जैसा असुर भी है ही, आखिर पढाई करें तो कैसे? अगर कोई पढता है या अध्ययन में रुचि रखता है तो उसे उसी के मित्र पढाकू, किताबी कीड़ा कहते हैं या चिढाते हैं। बात वास्तव में रुचि की है। मां-बाप बचपन से ही चाहते हैं कि स्कूल की पढाई ही सब कुछ है। नंबर लाने के लिए तो पढाई करनी होती है। शहरों में हर जगह मुझे यही लगता है कि मां-बाप बच्चों को मशीन बनाने के लिए पढा रहे हैं। ट्यूटर आता है, उससे कहा जाता है सिलेबस पूरा करा दीजिये। अगर नंबर आ गये तो बस हो गई पढाई। बहुत से लोग कहते हैं कि पढनेवाले कम नहीं हैं। कुछ का कहना है कि अब साहित्य जैसी चीज कौन पढेगा? विज्ञान पढने क जमाना है। एक बात गौर करने लायक है कि हाल के वर्षों में वैज्ञानिक कम हो रहे हैं। कमाऊ इंजीनियर ज्यादा। सभी जानते हैं कि विज्ञान नया कुछ देता है तो सिर्फ़ जिज्ञासा और खोजी स्वभाव, कठिन परिश्रम और रुचि होने से। विज्ञान का पढने का एक अच्छा उदाहरण दे रहा हूं। पटना में बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी है। अकादमी ने ऐसी किताबें छापी हैं जो दुर्लभ हैं। रसायन, गणित या भौतिकी ही नहीं चिकित्सा और अभियांत्रिकी पर हिन्दी में ऐसी-ऐसी किताबे हैं जो बहुत खोजना पड़ता है तब जाकर मिलती हैं। एक से एक देशी-विदेशी लेखकों की किताबें। लेकिन अगर वह किताब 1973 में छपी थी 1000 प्रति तो आज भी खत्म नहीं हुई और अभी भी वही संस्करण मिलता है। अब कहा जायेगा कि लोगों को मालूम नहीं है कि ऐसी किताबें मिलती हैं। तो बता दूं कि पुस्तक मेले में लाखों लोग आते हैं हर साल फिर भी उन किताबों की प्रति बची हुई ही है।
कई धार्मिक पत्रिकाएं दस हजार से लाखों की संख्या में छपती हैं और बिकती हैं। पर साहित्य या अन्य चिंतन जैसे समाज, दर्शन आदि पर किताबें छपती हैं सैकड़ों की संख्या में और वो भी ज्यादा कीमत की। लेकिन अंग्रेजी में एक सनक चल रही है कि कोई भी नया लेखक कुछ भी लिखता है तो हजारों प्रतियां छपती हैं और बिकती भी हैं। पढनेवाले हैं तो वह बस वही लोग हैं जो उस क्षेत्र के हैं जैसे हिन्दी साहित्य का शिक्षक, लेखक या छात्र ही हिन्दी की किताबें पढते हैं। यानि हमारे युवा वर्ग में पढने की प्रवृत्ति घटी है। इसके विपरीत शोर मचाने की प्रवृत्ति बढी है। मैं ऐसे बहुत से लोगों से मिला हूं जो घर, सड़क, स्कूल आदि में बिना अध्ययन किए या कुछ जाने खूब बहस करते हैं लेकिन जब कहता हूं कि यह किताब पढो या खरीदो तब बहाना शुरु हो जाता है। ऐसा नहीं कि वो मेरे द्वारा बतायी गयी किताबों के अलावा दूसरी किताब खरीदते हैं या पढते हैं। अखबार या टीवी से छूटते ही क्रिकेट या दूसरा नशा उन्हें घेर लेता है। फिर दोस्त भी हैं। यहां तक कि अगर कोई किताब आप किसी को पढने को दें तो वह महीनों रखी रह जाती है। यानि न तो खरीदकर पढते हैं न ही किसी से मांगकर। अब सवाल पैदा होता है कि वैचारिक या मानसिक खुराक मिलेगी कैसे जो वे सोचें! इसमें अधिकांश दोष होता है मां-बाप का। बचपन से कोर्स में डुबाने का नतीजा यही होता है कि बच्चे जब युवा होते हैं तब कोर्स के अलावे, रोजगार आधारित या व्यावसायिक पढाई के अलावे वे दूसरी किताबों को बेकार समझते हैं। अगर युवा चाहते हैं कि उन्हें चिंतन के लिए अच्छा खुराक मिले तो उन्हें पढना तो पड़ेगा ही। क्योंकि किताबों में स्याही और कागज नहीं विचार होते हैं। भगतसिंह ने कहा था- ‘ क्रांति की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।’ और विचार पढने से आते हैं। ऐसा नहीं कि पढने से ही विचार आते हैं। लेकिन जब हम पढते हैं तो समझते हैं कि हम क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए? अगर हम किताबों को कचरा समझकर फेंक देंगे तो भविष्य का क्या होगा।
किताबें जीवन में रोशनी का संचार करती हैं। जब आप किसी की जीवनी या विचार पढते हैं तब आप महसूस करते हैं कि वह आदमी या योद्धा या क्रांतिकारी या महापुरुष हमारे साथ है, हमारा दोस्त बन गया है। हमें जीवन के संघर्ष के दिनों में इनकी सहायता मिलती है। और कहा भी गया है कि किताबें हमारी सबसे अच्छी दोस्त हैं। पुस्तकालयों की बुरी स्थिति के जिम्मेदार हम हैं। जब हमने वहां जाना छोड़ दिया तब उसकी हालत बिगड़ गयी। जीवन को बेहतर बनाती हैं किताबें। एक अलग समझ विकसित करती हैं किताबें। किताबें हमें बहुत बार रास्ता भी दिखाती हैं। भगतसिंह ने अपनी छोटी आयु में ही डान ब्रीन की आत्मकथा का अनुवाद किया था। और जब आप उसे पढेंगे तो लगेगा कि भगतसिंह के बहुत से विचार या कार्य उस किताब से प्रेरित हैं। भगतसिंह का एसेम्बली में बम फेंकना अनायास ही नहीं था। यह घटना फ्रांस में घटित बम फेंकने की घटना से ही प्रेरित होकर अंजाम दी गयी थी। कहा जाता कि आदमी जैसा सोचता है वैसा ही बन जाता है। और सोचने के लिए दिमागी खुराक चाहिए। गांधी के उपर भी बहुत सी किताबों का असर पड़ा था। उन्हीं किताबों ने गांधी का निर्माण होता है।
एक बात अक्सर आप देखेंगे। जिंदा आदमी महान नहीं माने जाते। और जब आप किसी भी क्षेत्र के महान आदमी से मिलना चाहते हैं तब पता चलता है कि वह तो मर चुका है। ऐसा हमेशा नहीं लेकिन ज्यादातर होता है। तब एक ही उपाय बचता है उस आदमी की किताबें जिनमें वह अपने अनुभवों, उपलब्धियों, विचारों को समेटे रहता है। पढने के बाद ही पता चलता है कि किताबें क्यों पढी जानी चाहिए। सुभाषचंद्र बोस ने भी विवेकानंद की किताबों को पढने के बाद ऐसा ही कहा था। यहां तक सारे धर्मों के अपने अपने ग्रंथ हैं जिन्हें वे अपना आधार मानते हैं। कई बार हम पढने के नाम पर कुछ कचरे भी पढ जाते हैं। लेकिन हमें किसी चीज को पढने के बाद उसपर खुले दिमाग से सोचना चाहिए तब जाकर उस किताब के प्रति अपनी धारणा बनानी चाहिए।
मान लीजिए कि किसी भी तरह अंग्रेजी स्पोकेन आप सीख लेते हैं। अब सीखने के बाद आप बोलेंगे क्या? बोलने के लिए ही तो सिखा था। अब इतना तो तय है कि बोलने के लिए कुछ बात चाहिए। और वह बात कहां से मिले यह फिर एक समस्या है। जवाब आसान है कि पढने से। किताबों को पढना ही भगतसिंह, सुभाष, गांधी या वैज्ञानिक बनाता है। क्योंकि हमारे आस-पास ऐसे लोग आसानी से मिलते नहीं जो सही रास्ता दिखायें तब किताबें जीवन के रास्ते में उजाला बनकर आती हैं। याद रहे आदमी मर जाते हैं, विचार जिंदा रहते हैं। अमर शहीद भगतसिंह शरीर से हमारे पास नहीं हैं लेकिन विचार से वे हमारे पास हैं। तो पढना और लिखना बिल्कुल आवश्यक है वैचारिक प्रगति के लिए। लेकिन लिखने को भी हमारे समाज और मां-बाप ने रोक दिया है। युवक तो लिखना चाहते ही नहीं। इसके पीछे कारण तलाशने पर मिलता है कि बचपन से हमने खुद से लिखना सीखा ही नहीं। शिक्षक प्रश्नों का उत्तर लिखा देते हैं। उसे रट कर परीक्षा में जाकर लिख देते हैं और इस तरह से लिखने का जो मौलिक तरीका था हम उसे मशीनी अंदाज में करते हुए अपनी प्रतिभा और सोच को छिन्न-भिन्न कर डालते हैं।
हमें क्रांति की तलवार को विचारों की सान पर तेज करने के लिए घोर अध्ययन और चिंतन की जरुरत होती है। इसलिए पढना और लिखना आवश्यक कार्य हो जाते हैं। हमें कहानी-कविता कहकर साहित्य का अपमान नहीं करना चाहिए। जब तक हम साहित्य को समझेंगे नहीं तब तक भगतसिंह की बात हमसे कोसों दूर रहेगी। भगतसिंह कहते हैं-‘यह तो निश्चय ही है कि साहित्य के बिना कोई देश अथवा जाति उन्नति नहीं कर सकती, परन्तु साहित्य के लिए सबसे पहले भाषा की आवश्यकता होती है।’
भगतसिंह साहित्य को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं यह समझने के लिए उन्हीं के शब्दों में-‘जिस देश के साहित्य का प्रवाह जिस ओर बहा, ठीक उसी ओर वह देश भी अग्रसर होता रहा। किसी भी जाति के उत्थान के लिए ऊंचे साहित्य की आवश्यकता हुआ करती है। ज्यों-ज्यों देश का साहित्य ऊंचा होता जाता है, त्यों-त्यों देश भी उन्नति करता जाता है। देशभक्त, चाहे वे निरे समाज-सुधारक हों अथवा राजनीतिक नेता, सबसे अधिक ध्यान देश के साहित्य की ओर दिया करते हैं। यदि वे सामाजिक समस्याओं तथा परिस्थितियों के अनुसार नवीन साहित्य की सृष्टि न करें तो उनके सब प्रयत्न निष्फल हो जाएं और उनके कार्य स्थाई न हो पाएं।’
भगतसिंह कहते हैं कि रूसो और वाल्टेयर के साहित्य के बिना फ्रांस में तथा कार्ल मार्क्स, मैक्सिम गोर्की, टाल्स्टाय के साहित्य के बिना रूस में क्रांति नहीं हो पाती। इन लेखकों ने वर्षों तक लिखा तब जाकर इनके लेखन ने क्रांति में अपनी अहम भूमिका निभायी। इसलिए युवकों को चाहिए कि वे साहित्य पर ध्यान दें, साहित्यिक रचनाएं पढ़ें और खुद भी हो सके तो रचें। लेखक बहुत परिश्रम से लिखता है, काफी सोचने के बाद लिखता है फिर हमें उन्हें बेकार नहीं जाने देना चाहिए। क्या प्रेमचंद को पढने से हमें उस समय के समाज का पता नहीं चलता? हमें अच्छी रचनाएं जरुर पढनी चाहिएं। इससे हमारे समय का सदुपयोग भी होता है।
sri maan,
aapaka Saheed Bhagat Singh Ka lekh bhaut pasand aaya.
krapya aise lekh mere e-mail address par bhejane ka kasht karen.
dhanyawad
aapaka
pramod sharma
प्रमोद शर्मा जी,
पढ़ने के लिए शुक्रिया, तेवराआनलाइन पर पढते रहें। भगतसिंह पर अभी और जल्द ही पढ़ने को मिलेगा। आप अपना ईमेल पता देंगे तो शायद आपकी इच्छा पूरी की जा सकती है।
चंदन कुमार मिश्र
अत्यन्त विचारोत्तेजक लेख है। एक दम झकझोर देने वाला।