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आसान नहीं है नेपाल में लोकतंत्र की राह
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संजय राय, नई दिल्ली
नेपाल में बीते शनिवार यानि पांच मई को राष्ट्रीय सरकार का गठन हुआ। तीन मई को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने के बाद माओआदी नेता बाबूराम भट्टराई ने विभिन्न राजनीतिक दलों के 12 नेताओं के साथ राष्ट्रीय सरकार के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। तीन मई को इन राजनीतिक दलों के बीच हुए समझौते के तहत 27 मई से पहले नेपाल के नये संविधान का मसौदा तैयार कर लिया जाना है। इससे पहले चार बार संविधान सभा का कार्यकाल बढ़ाने के बाद उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अब इसका कार्यकाल 27 मई से आगे नहीं बढ़ाया जायेगा।
लेकिन नेपाल के जमीनी राजनीतिक और सामाजिक हालात को देखकर ऐसा लगता है कि वहां के राजनेता तय समयसीमा के भीतर संविधान का मसौदा नहीं पूरा कर पायेंगे। जाहिर है आने वाला समय नेपाल मे उथल-पुथल से भरा रहेगा। पहले ही कई संगठन जाति, क्षेत्र, भाषा और धर्म के आधार पर राज्य के गठन की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। मुसलमान भी नये संविधान में अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के लिये मांग पर अड़े हुए हैं। राजनीतिक दलों के बीच नये संविधान के तहत नेपाल के स्वरूप और शासन पद्धति को लेकर मतभेद इतने गहरे हैं कि निकट भविष्य में इसके समाधान का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा है।
नेपाल के राजनीतिक विश्लेशकों के मुताबिक वहां के राजनीतिक दल 27 मई के बाद के हालात पर विचार नहीं कर रहे हैं। राष्ट्र का नये सिरे से गठन हो या संघीय विभाजन के तहत नयी शासन व्यवस्था बनायी जाय, इसे लेकर खुद सबसे बड़े दल सत्तारूढ़ माओवादी पार्टी में गहरे मतभेद हैं। पार्टी के उपाध्यक्ष मोहन बैद्य किरण के गुट ने 27 मई के बाद पूरे देश में विद्रोह करने की धमकी दे रखी है। सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि मोहन बैद्य को शीर्ष माओवादी नेताओं पुष्प कमल दहल प्रचंड और प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई के राजनीतिक गुरू सीपी गुजरैल का पूरा समर्थन हासिल है। उन्होंने पार्टी के चेयरमैन प्रचंड पर समझौतावादी होने का आरोप लगाया है।
पड़ोस में चल रही इस उथल-पुथल की आवाज हिंदुस्तान में नहीं सुनाई दे रही है। न तो सरकार, न प्रशासन और न ही राजनीतिक गलियारों में नेपाल की कोई चर्चा हो रही है। हर छोटे-बड़े मसले को ब्रेकिंग न्यूज बनाकर सनसनी परोसने वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया भी नेपाल में चल रहे घटनाक्रमों पर चुप्पी साधे हुए है। हैरत की बात यह है कि जून 2001 में नेपाल नरेश वीरेन्द्र विक्रम शाह के परिवार की रहस्यमय हत्या के बाद से ही भारत सरकार की नीति पूरी तरह दिशाहीन रही है। सिध्दान्तविहीन गठबंधन सरकारों के पास विदेशी निवेश के सहारे नकली विकास की अंधी दौड़ में नेपाल पर नजर डालने की फुरसत नहीं मिली। विडंबना यह है कि नेपाल के साथ भारत के पौराणिक और ऐतिहासिक संबंध रहे हैं। दोनों देशों के बीच रोटी-बेटी का संबंध है। दुखद सच्चाई यही है कि भारत ने नेपाल नीति को वहां आये उतार-चढ़ाव के अनुसार बिना किसी दूरदृष्टि के निरपेक्ष भाव से बदला है। कोई सोच नहीं। इसे कहते हैं आग लगने पर कुआं खोदने वाली नीति।
पड़ोस में लगी आग खतरनाक होती है। आर्थिक विकास की खुमारी में हम सब इस बात को जानकर भी अनजान बने हुए हैं कि हमारे दो पड़ोसी देश इस आग में अपनी रोटी सेंक रहे हैं। नेपाल के रास्ते दहशतगर्दों के साथ नकली रुपये की आमद दिनों-दिन बढ़ रही है। यह काम पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई कर रही है। वहां जबसे अस्थिरता का दौर शुरू हुआ है चीन का असर बड़ी तेजी के साथ बढ़ा है। वहां की सेना में चीन बड़ी चालाकी के साथ अपनी पैठ बढ़ा चुका है। माओवादी नेताओं के साथ वैचारिक एकता का सीधा लाभ हमारे दो पड़ोसी चीन और पाकिस्तान हमें कमजोर करने में लगा रहे हैं। नेपाल में माओवाद के उभार के बाद भारत के बारे में वहां की जनता के बीच जानबूझ कर जहर फैलाया गया। जाहिर है यह काम उन्हीं ताकतों का है जो नेपाल में हमें कमजोर करना चाहती हैं।
दरअसल नेपाल में माओवादी नेताओं ने लोकतंत्र को एक सोची समझी रणनीति के तहत स्वीकार कर रखा है। नेपाली राजशाही को लेकर उनकी जो नीति रही है, वही नीति लोकतंत्र को लेकर भी है। वे मजबूरी में अंतरराष्ट्रीय ताकतों को दिखाने के लिये लोकतंत्र का समर्थक होने का नाटक कर रहे हैं। शायद यही कारण है कि नेपाल में शासन-व्यवस्था के तौर तरीकों को लेकर माओवादी नेता आपसी नूराकुश्ती के खेल में जुटे हैं। माओवादी नेता सिर्फ और सिर्फ इसी विचार को मानते हैं कि समाज में दिख रही बदहाली के लिये मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था जिम्मेदार है। बंदूक की नली के सहारे सत्ता हासिल करने में विश्वास करने वाले माओवादी नेता लोकतंत्र को एक बैसाखी के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं। नेपाल में इनके पांव जब मजबूती के साथ जम जायेंगे तो इस बैसाखी को उतार फेंका जायेगा, इसमें कोई दो राय नहीं है। इसे समझने के लिये प्रचंड की तरफ से 3 दिसम्बर 2011 को दिया गया वह बयान ही काफी है जिसमें उन्होंने कहा था कि उनकी पार्टी ने जनविद्रोह की रणनीति को नहीं छोड़ा है और वह चुनाव या फिर विद्रोह के रास्ते पर चलकर सत्ता को अपने कब्जे में करने को तैयार हैं। जाहिर है सत्ता हासिल करने के लिये माओवादी किसी भी समय शांति प्रक्रिया को पलीता लगा सकते हैं।
ऐसे में निश्चित तौर पर यह भविष्यवाणी की जा सकती है कि 27 मई के पहले संविधान का मसौदा अगर तैयार हो गया तो भी वहां राजनीतिक और सामाजिक अस्थिरता जारी रहेगी। इस उठा-पटक का लाभ माओवादियों और भारत विरोधी ताकतों को मिलेगा। इस तरह के हालात नेपाल की लोकतंत्र समर्थक ताकतों के लिये भी एक बहुत बड़ी चुनौती हैं। इन राजनीतिक दलों को शांति बहाली की कोशिशों को सफल बनाने के लिये अपने मतभेदों को भुलाना होगा। फिलहाल यह एक कठिन काम दिख रहा है, लेकिन असंभव नहीं है। भारत सरकार इस काम में अपनी तरफ से सकारात्मक सहयोग दे सकती है, किंतु वह हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
नेपाल के हालात भारत के सामने एक ऐसे चक्रव्यूह की चुनौती पेश कर रहे हैं, जिसे भेद पाना एक कठिन काम है। नेपाल और भारत के माओवादियों का गठजोड़ किसी से नहीं छिपा है। रेड कारीडोर की जो चर्चा गाहे ब गाहे होती है, वह कोई कपोल कल्पना नहीं है। दोनों तरफ के माओवादी एक दूसरे को हर तरह से सहयोग दे रहे हैं। प्रचंड और बाबूराम भट्टराई ने भारत में ही छिपकर नेपाल में अपने आंदोलन को परवान चढ़ाया और अब ये दोनों नेता हर वो काम कर रहे हैं, जिससे कि नेपाल में भारत के हितों पर चोट पहुंचे। दोनों नेता समय-समय पर भारत के खिलाफ आग उगलते रहे हैं। इनकी नीति रही है चीन के साथ मिलकर नेपाल में भारत के असर को हर तरीके से कम किया जाय और पिछले कुछ सालों के दौरान नेपाल में जिस तरह से चीन का असर बढ़ा है वह माओवादियों की भारत विरोधी नीति की तस्दीक करता है।
नेपाल के बदलावों पर अगर भारत सरकार ने गंभीरता से ध्यान नहीं दिया तो वह दिन दूर नहीं जब भारत नेपाल की सीमा पर हमें एक भारत विरोधी और चीन समर्थक सेना का मुंह देखना पड़े। ऐसी स्थिति में पाकिस्तान से लगी नियंत्रण रेखा की तरह नेपाल की सीमा को भी बंद करना पड़ सकता है। अगर हमें इस तरह के हालात को टालना है तो नेपाल पर एक समग्र नीति तैयार करके इसे पुरअसर तरीके से लागू करना होगा, जिससे कि हम अपने हितों की रक्षा कर सकें।
(संजय राय वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं। )