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…और शरद जोशी की तरह विष्णु त्रिपाठी भी ‘नरभसा’ गये बिहार में

विश्व संवाद केंद्र द्वारा देवर्षि नारद स्मृति कार्यक्रम के तहत ‘लोकतंत्र और नागरिक कर्तव्यबोध’ विषय पर किया संबोधन

आलोक नंदन शर्मा

एक बेहतर वक्ता को जब बेहतर श्रोता मिल जाए तब वह खुद भी बहता है और अपने साथ श्रोताओं को भी बहाता है। पटना के बीआईए सभागार में ऐसा ही कुछ हुआ जब दैनिक जागरण समूह के कार्यकारी संपादक श्री विष्णु प्रकाश त्रिपाठी विश्व संवाद केंद्र द्वारा आद्य पत्रकार देवर्षि नारद स्मृति कार्यक्रम के तहत ‘लोकतंत्र और नागरिक कर्तव्यबोध’ विषय पर आयोजित एक संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के तौर पर मंच पर माइक के सामने खड़े हुए। बिहार के श्रोताओं की खासियत है कि वे सुनते बहुत ध्यान से हैं, और सुनने के बाद उस पर गहराई से सोचते भी हैं, और फिर प्रतिक्रिया भी अपने खास अंदाज में देते हैं। सभागार में बड़ी संख्या में श्रोताओं की मौजूदगी से श्री विष्णु त्रिपाठी को अहसास हो गया था कि बिहार की पावन धरती को यूं ही ज्ञान की धरती नहीं कहा जाता है।

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प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री शरद जोशी के पटना आगमन के दौरान प्लेटफार्म पर उनके ‘नरभसाने’ वाले एक प्रसंग से शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा, “आप बिहार आए और नरभसाए नहीं, ऐसा हो नहीं सकता। यहां के लोग ही कुछ ऐसे हैं। श्री शरद जोशी जब पटना के रेलवे स्टेशन पर उतरे थे तब प्लेटफार्म पर लोगों की चहलकदमी और अफरातफरी को देखकर थोड़े परेशान हो गए थे। उनकी इस मनोदशा को भांपते हुए एक कुली ने उनसे कहा था कि लगता है आप ‘नरभसा’ गए हैं। उस वक्त उन्हें यह समझ में नहीं आया था कि नरभसाना शब्द का मतलब क्या होता है। दिल्ली लौटने पर इस शब्द के बारे में पूछने पर किसी ने बताया कि यह शब्द नर्वस से बना है। उसके बाद श्री शरद जोशी ने इस पर एक आलेख भी लिखा था। उनके आलेख पर बिहार में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। प्लेटफार्म की अव्यवस्था को लेकर कुछ नकारात्मक बातें उन्होंने लिख दी थी। बाद में श्री जुगनू शारद ने भी “बिहार में अच्छे-अच्छे नरभसा जाते हैं” शीर्षक से एक आलेख लिखा था। ट्रेन पर जब मैंने सुना कि पटना आ गया है तो मैं भी नरभसा गया था। उतरते वक्त अपना चश्मा ट्रेन में ही भूल गया। खैर, बाद में वह मिल गया। बिहार में लोग

Exif_JPEG_420नरभसा क्यों जाते हैं! यह आभा लिए हुए ज्ञान की धरती है, बुद्ध और महावीर की धरती है। बिहार का अपना एक अलग मिजाज है।”

अपनी बात को जारी रखते हुए उन्होंने आगे कहा,“बिहार के लोग हमेशा समग्रता में सोचते और बात करते हैं। उनसे पूछो कि आप कहां के रहने वाले हैं तो कहेंगे–बिहार के। फिर पूछना पड़ता है कि बिहार में आप कहां के रहने वाले हैं। तब जवाब में मिलेगा भागलपुर, औरंगाबाद, सीतामढ़ी इत्यादि। बिहार की यही खासियत है, सामूहिकता में यकीन करते हैं। इस कार्यक्रम में शिरकत करने के पूर्व मुझे छोटे बाबू के यहां शाम को चाय पर आमंत्रित किया गया था। चाय के दौरान एक छोटे से समूह के बीच कई विषयों पर जिस स्तर की चर्चा हुई उससे मुझे आभास हो गया कि मुख्य कार्यक्रम के दौरान किस तरह के श्रोताओं के सामने मुझे खड़ा होना है, बोलना है। एक तरह से मुझे अलर्ट किया गया था कि आप पूरी तैयारी के साथ आएं। मेरा सामना उच्च स्तर के श्रोताओं से होने वाला है।”

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महर्षि नारद को एक संवाददाता और पत्रकार के तौर पर प्रस्तुत करने की अवधारणा का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा, “महर्षि नारद को एक पत्रकार के रूप में पेश करने की अवधारणा अद्भुत है। जिस व्यक्ति या संगठन ने यह काम किया है वह बधाई का पात्र है। एक पत्रकार में तीन गुण होने चाहिए। प्रथम, चरवैति चरवैति। अर्थात वह हमेशा गतिशील रहे, चलता रहे, एक जगह पर टिके नहीं, जैसे महर्षि नारद। वह एक जगह पर कभी टिकते नहीं हैं। कभी इस लोक में, तो कभी उस लोक में, वह निरंतर विचरते ही रहते हैं। द्वितीय, एक पत्रकार जल की तरह पारदर्शी हो। जो देखे और सुने वही दुनिया को दिखाए और सुनाए। नारद का शाब्दिक अर्थ ही होता है नीर देने वाला, अर्थात जल देने वाला। जल पारदर्शी होता है। पत्रकार को भी पारदर्शी होना चाहिए। तृतीय, अध्ययनशीलता। एक पत्रकार को निरंतर अध्ययनशील होना चाहिए। इन तीनों गुणों के बाद यह जरूरी है कि पत्रकार महर्षि नारद की तरह सुर और ताल को समझे। महर्षि नारद एक मात्र देवता हैं जिनके हाथ में करताल भी है और वीणा भी। सुर और ताल दोनों को साधते हैं वह। पत्रकार को भी लिखने के दौरान अपनी लेखनी में सुर और ताल का समावेश करना चाहिए। कहां बहना है, कहां रुकना है, कहां आवेग में आना है और कहां शांत होना है, उसे अच्छी तरह से पता होना चाहिए ताकि पाठक भी उसकी लेखनी के साथ इस बहाव को महसूस करे। नारद व्यक्ति विशेष से ज्यादा एक परंपरा है, निरपेक्षभाव से संवादों को आदान-प्रदान करने की परंपरा।”

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‘लोकतंत्र और नागरिक कर्तव्यबोध’ विषय को आगे बढ़ाने से पहले उन्होंने बड़ी साफगोई से एक साथ कई सवाल उछाले, “लोकतंत्र में सिर्फ नागरिक कर्तव्यबोध की बात हमेशा क्यों की जाती है? शासकों और चुने हुए प्रतिनिधियों के कर्तव्यों की बात क्यों नहीं की जाती है? आम लोग तो चुनावी प्रक्रिया में भाग लेकर अपने प्रतिनिधि का चयन करके अपने कर्तव्य का पालन तो कर ही देते हैं। इसके बाद की जवाबदेही शासकों की है। इसलिए लोकतंत्र में शासकों के कर्तव्यबोध पर बात होनी चाहिए न कि नागरिकों के। नागरिकों के कर्तव्यबोध पर बहुत बातें हो चुकी हैं।”

यह दौर इतिहास को लेकर कई तरह के नैरेटिव गढ़ने का दौर है, जिसकी वजह से इतिहास की समझ को लेकर अलग-अलग समूहों में वैचारिक टकराव तो हो ही रहे हैं, सियासी खेमेबंदी भी हो रही है और यह खेमेबंदी इलेक्टोरल पॉलिटिक्स को भी प्रभावित कर रही है। इसी पृष्ठभूमि में श्री विष्णु प्रकाश त्रिपाठी ने भारत, इंडिया और हिन्दोस्तान की अवधारणा की भी पड़ताल की, पुराणों और आख्यानों के हवाले से भारत को टटोला, उसे प्रतापी राजा भरत से भी जोड़ा और नाट्य शास्त्र के पितामह भरत मुनि से भी। साथ ही भगवान श्रीरामचंद्र के भाई राजा भरत से भी, जो सिंहासन पर श्रीराम के खड़ाऊं रखकर पूरी तन्मयता से जनसेवा में जुटे रहे।

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उन्होंने जोर देकर कहा,“भारत एक संस्कृति है। परिभाषित करने से ज्यादा यह अनुभव करने की चीज है। जबकि इंडिया मैकाले का उत्पाद है। एक आरोपित अवधारणा है जो भारत के लोगों को नौकरी करना सिखलाती है, भारत उद्यम से जुड़ा है। भारत के लोग नौकरी करना नहीं जानते थे। वे उद्यम करते थे। गांव अपने आप में एक पूर्ण इकाई होती थी। गांव का हर व्यक्ति उद्यम करता था, यहां तक कि राजा भी। राजा जनक खुद खेती करते थे। बलराम कंधे पर हल लेकर इसलिए चलते थे कि वे खुद खेती करते थे। हल उनके लिए फैशन की चीज नहीं थी। भगवान श्री कृष्ण पशुपालक थे, गायों को चराते थे, उद्यम करते थे। इंडिया में नौकरी की अवधारणा मैकाले ने दी। इंडिया के लोग सैलरी में यकीन करते हैं। सैलरी के लिए चार, पांच और सात तारीख का इंतजार करते हैं। इन दोनों भारत और इंडिया के बीच में हिन्दोस्तान है। यह हुण, शक और मंगोल जैसे आक्रांताओं को भी समाहित करती है। यह ईरान से होती हुई यहां पहुंची है।”

अपने संबोधन में पूरी दृढ़ता के साथ घोषणा करते हुए उन्होंने कहा, “भारत की संस्कृति नम्रता से देने वाली संस्कृति है। देने के बाद वह इसका जिक्र भी करना पसंद नहीं करती। हम गारंटी वाली संस्कृति में यकीन नहीं रखते, यह अहंकार वाली मानसिकता है।”

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कार्यक्रम के दौरान श्री विष्णु प्रकाश त्रिपाठी ने वरिष्ठ पत्रकारिता में समर्पित जीवन जीने के लिए पत्रकार श्री मणिकांत ठाकुर को देशरत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद पत्रकारिता शिखर सम्मान, 2024, श्री बीरेंद्र विश्वकर्मा को छायाचित्र के लिए बाबूराव पटेल रचनाधर्मिता सम्मान, 2024, और खोजी पत्रकारिता के लिए निधि तिवारी को केशवराम भट्ट पत्रकारिता सम्मान, 2024 प्रदान किया।

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सदियों से इंसान बेहतरी की तलाश में आगे बढ़ता जा रहा है, तमाम तंत्रों का निर्माण इस बेहतरी के लिए किया गया है। लेकिन कभी-कभी इंसान के हाथों में केंद्रित तंत्र या तो साध्य बन जाता है या व्यक्तिगत मनोइच्छा की पूर्ति का साधन। आकाशीय लोक और इसके इर्द गिर्द बुनी गई अवधाराणाओं का क्रमश: विकास का उदेश्य इंसान के कारवां को आगे बढ़ाना है। हम ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखाओं का इस्तेमाल करते हुये उन कांटों को देखने और चुनने का प्रयास करने जा रहे हैं, जो किसी न किसी रूप में इंसानियत के पग में चुभती रही है...यकीनन कुछ कांटे तो हम निकाल ही लेंगे।

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