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कांग्रेस की बौखलाहट का नतीजा है योगेंद्र यादव की बर्खास्तगी
क्या दिल्ली के आगामी विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी वाकई में कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार को गंभीर चुनौती देने की स्थिति में आ गई है? यूजीसी से योगेंद्र यादव को निकाले जाने के बाद यह सवाल दिल्ली की फिजां में तैर रहा है। योगेंद्र यादव आम आदमी पार्टी को चर्चा में बनाए रखने के लिए जी-जाने से लगे हुये हैं। इनकी हैसियत आम आदमी पार्टी में थिंक टैंक की है। अरविंद केजरीवाल के करीबी माने जाने वाले योगेंद्र यादव पिछले कुछ समय से आम आदमी पार्टी की वकालत करते हुये कांग्रेस के खिलाफ लगातार मोर्चा खोले हुये थे। यही वजह है कि जब यूजीसी के सदस्य के पद से उन्हें बर्खास्त किया गया तो पूरी दिल्ली में यह संदेश गूंज गया कि कांग्रेस अपनी मुखालफत करने वाले लोगों को ‘सरकारी मलाई’ नहीं खाने देगी। इस हकीकत को योगेंद्र यादव भी अच्छी तरह से समझ रहे हैं। तभी तो उन्होंने कहा है कि सत्ता के खिलाफ जाने पर इसकी कीमत तो आपको चुकानी ही पड़ेगी। तो क्या यह इस बात के संकेत हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की शक्ति बढ़ रही है और अब कांग्रेस हर स्तर पर आम आदमी को कुचलने की तैयारी में है?
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सत्ता का ग्रामर
सत्ता का अपना ग्रामर है। कोई भी सत्ताधारी पार्टी यह बर्दाश्त नहीं कर सकती कि सरकारी संस्थानों में उसकी नीतियों की मुखालफत करने वाले लोग फले-फूले। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता महज किताबी बातें हैं। व्यावहारिकतौर पर सत्ता के ग्रामर में इसका कोई वजूद नहीं होता और यदि कोई शख्स अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर सरकार विरोधी राजनीतिक विचारधारा को पोषित करने की कोशिश करता है तो स्वाभाविकतौर पर उसे उसकी औकात बता दी जाती है। चूंकि भारत में संविधान का बोलबाला है, इसलिए यहां हर काम संवैधानिक तरीके से करने की रवायत है। योगेंद्र यादव की बर्खास्ती पर मानव संसाधन मंत्रालय ने दलील दी है कि योगेंद्र यादव के यूजीसी सदस्य बने रहने से भविष्य में उच्च शिक्षा की इस सर्वोच्च संस्था का ‘राजनीतिकरण’ होने की आशंका है। सवाल उठता है कि देश की कौन सी सरकारी संस्था राजनीति से दूर है? जहां तक उच्च शिक्षा के राजनीतिकरण की बात है तो यह तो बहुत पहले ही हो चुकी है। चर्चा में आने के बाद कोई भी पार्टी अपने मनमाफिक विचारधारा वाले लोगों को चुन-चुनकर अहम ओहदों पर बैठाती है ताकि उसकी नीतियों और कार्यप्रणाली को सैद्धांतिक रूप से जायज ठहराने के लिए ये लोग तर्क गढ़ते रहें। कल तक योगेंद्र यादव यूजीसी के लिए मुफीद थे। आम आदमी पार्टी के अस्तित्व में आने और इसमें अहम किरदार निभाने के बाद अचानक वह सरकार की आंखों की किरकिरी बन गये। सीधी सी बात है कि वह सरकार के पक्ष में तर्क गढ़ने के लिए तैयार नहीं हैं। ऐसे में सरकार भला उन्हें कैसे बर्दाश्त करेगी? योगेंद्र यादव को नोटिस जारी करते हुये मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने कहा था कि 2011 में नियुक्ति के वक्त रही उनकी साख और विश्वसनीयता में अब काफी बदलाव आ चुका है। मतलब साफ है कि योगेंद्र यादव अब कांग्रेस सरकार के लिए विश्वसनीय नहीं रहे।
कांग्रेस की समस्या ‘आप’
असल में दिल्ली में कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी समस्या अरिवंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी साबित हो रही है। दिल्लीवासियों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम जबरदस्त मेहनत कर रही है और अब इस मेहनत का असर भी दिखने लगा है। दिल्ली के मुखतलफ स्थानों पर होने वाली उनकी सभाओं मे अच्छी-खासी भीड़ जुट रही है। एक ओर अरविंद केजरीवाल आम दिल्लीवासियों को लुभा रहे हैं तो दूसरी ओर योगेंद्र यादव आम आदमी पार्टी का बौद्धिक फेस बने हुये हैं। शैक्षणिक हलकों में उन्हें अच्छा खासा समर्थन मिल रहा है और आम आदमी पार्टी के संदर्भ में दी जा रहीं उनकी दलीलों को गंभीरता से लिया जा रहा है। यही वजह है कि आम आदमी पार्टी को लेकर कांग्रेस की बेचैनी बढ़ती जा रही है। योगेंद्र यादव को टारगेट करने का मुख्य उद्देश्य सरकारी व शैक्षणिक संस्थाओं में आम आदमी पार्टी के फैलाव को रोकने के साथ-साथ योगेंद्र यादव को सबक सिखाना है। अब कांग्रेस के इस कदम का दिल्ली के इंतखाब पर क्या असर पड़ेगा, यह तो वक्त ही बताएगा फिलहाल बौद्धिक हलकों में इसे लेकर जबरदस्त प्रतिक्रिया हो रही है। योगेंद्र यादव को तत्काल यूजीसी के अपने ओहदे पर बहाल करने की मांग हो रही है। पूरी संभावना है कि यह मांग आगे चल कर अंदरखाते शैक्षणिक हलकों से जुड़े लोगों को कांग्रेस के खिलाफ पूरी तरह से लामबंद न कर दे। मीडिया में योगेंद्र यादव के दोस्तों की कमी नहीं है। उनकी सहानुभूति भी योगेंद्र यादव के साथ है। यही वजह है कि उन्हें मीडिया में भी जबरदस्त कवरेज मिल रही है और अमूमन हर मीडिया हाउस उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से शहीद के रूप में प्रस्तुत कर रहा है।
कांग्रेस की दमनकारी नीति
राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा योगेंद्र यादव की बर्खास्तगी को दिल्ली में आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर नफा और नुकसान के हिसाब से तौला जा रहा है। यूजीसी द्वारा योगेंद्र यादव की बर्खास्तगी की तकनीकी पहलू चाहे जो हो, दिल्ली में बैठे राजनीतिक विचारकों को यही लग रहा है कि कांग्रेस अपनी मुखालफत करने वाले लोगों के खिलाफ दमनकारी नीति चला रही है और इसका खामियाजा कांग्रेस को अगले इंतखाब में भुगतना पड़ सकता है। देश की राष्टÑीय राजधानी होने की वजह से दिल्ली में पढ़े लिखे और राजनीतिक रूप से जागरूक लोगों की अच्छी खासी संख्या है। बिजली और मंहगाई जैसे मुद्दों पर यह तबका कांग्रेस से पहले से ही खफा है। कई जगहों पर जनता से जुड़ी समस्याओं को उठाने के लिए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं को लगातार प्रताड़ित किया गया है। कई मौकों पर तो उन्हें पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी है। ऐसे में योगेंद्र यादव की बर्खास्तगी से कांग्रेस के खिलाफ और माहौल बनेगा। दिल्ली में एक तबका कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा से भी नाराज है। सही मायने में इस तबके की नाराजगी वर्तमान सियासी रवायत से है। यदि यह तबका ‘झाड़ू’ की तरफ झुकता है तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। अब यह बहुत कुछ आम आदमी पार्टी के नीति निर्धारकों पर निर्भर करेगा कि योगेंद्र यादव की बर्खास्तगी को वह कैसे जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए इस्तेमाल करती है।
शीला दीक्षित का खेल!
आमतौर पर कोई भी सरकार किसी खास पार्टी या विरोधी गुट के खिलाफ दमन का मार्ग तभी अपनानी है, जब उसे उससे खतरा महसूस होता है। इस लिहाज से देखा जाये तो कांग्रेस निस्संदेह दिल्ली में आम आदमी पार्टी को अपने लिए खतरा मान रही है। चूंकि योगेंद्र यादव आम आदमी पार्टी के कर्ताधर्ताओं में से एक हैं और लंबे समय से सामाजिक सरोकारों के हिमायती रहे हैं, इसलिए उन पर गाज गिरना स्वाभाविक था। वैसे इस प्रकरण में सीधे तौर पर मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का कोई हाथ नहीं है लेकिन आम लोगों के बीच यही धारणा बन रही है कि पर्दे के पीछे से शीला दीक्षित ने ही यह खेल रचा है। वैसे भी दिल्ली की मुख्यमंत्री और कांग्रेस प्रमुख सोनिया गांधी की करीबी होने की वजह से कांग्रेसी कुनबे में उनकी जबरदस्त धमक है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सक्रियता से कांग्रेस कुनबा बौखलाया हुआ है और आनन-फानन में योगेंद्र यादव की यूजीसी की सदस्यता से बर्खास्तगी इसी बौखलाहट का नतीजा है। इससे कांग्रेस को दिल्ली के आगामी इंतखाब में शायद ही कोई फायदा मिले। इसके विपरीत इस मसले से आम आदमी पार्टी को अपनी चुनावी अभियान को और धारदार बनाने में सहूलियत होगी।