कैफ़ी आजमी: तरक्की पसंद तहरीक की अहम शख्सियत का नाम
( कैफी की पुण्यतिथि 10 मई पर विशेष)
प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा।
गम किसी दिल में सही गम को मिटाना होगा ।।
“कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जायेगी”
कैफ़ी आजमी तरक्की पसंद तहरीक की अहम शख्सियत का नाम है, जिसने प्रगतिशील आन्दोलन और भारतीय जन नाट्य आन्दोलन को आगे बढाने में अपनी पूरी जिन्दगी पूर्ण आहूत कर दी। कैफ़ी एक मजबूत संगठनकर्ता के साथ-साथ उर्दू अदब के बेमिशाल इंकलाबी शायर थे। राष्ट्रीय चेतना से सम्पन्न कैफ़ी आज़मी के लिखे फिल्मों के गीत इतिहास रचते हुए दिखाई पड़ते हैं, इन्होंने इप्टा के लिए बहुत सारे नाटक और इंकलाबी गीत लिखे। कैफी को फिल्मों में कहानी, पटकथा, संवाद लेखन में भी महारत हासिल था, तभी तो उन्हें देश के विभाजन पर बनी फिल्म “गरम हवा” पर एक साथ कहानी, पटकथा, सवाद लेखन के लिए तीन — तीन फिल्म फेयर एवार्ड हासिल हुए। ‘नसीम’ फिल्म जो बाबरी मस्जिद विध्वंश को केंद्र में रखकर बनी उसमें दादा जी की भूमिका में कैफ़ी ने अकल्पनीय अभिनय भी करके अपने अभिनय का लोहा मनवा लिया |
कैफ़ी उर्दू अदब में गजल के रास्ते से प्रवेश करते है, परन्तु आगे चलकर नज्मों के माध्यम से उर्दू शायरी में पूरी उंचाई तक पहुँचते हैं।
औरत, मकान, धमाका, तेलगाना, आवार सजदे, दूसरा बनवास जैसी नज्मों को अदब की दुनिया का हर शख्स ठीक ढंग से जानता है और कैफ़ी की काबलियत का लोहा मानता है। खाना — मस्नवी के माध्यम से कैफ़ी ने उर्दू में मनस्वी की परम्परा को एक नया आयाम दिया अल्लामा इकबाल की नज्म ‘ इब्लिस की मज्लिस — ए शुरा’ जो 1936 में लिखी गयी थी के समानान्तर कैफ़ी आज़मी ने अपने वैचारिक धरातल को विस्तार देने के लिए इब्लिस की मज्लिस — ए — शुरा ( 1983 ) जैसी नज्म लिखी। नज्म के साथ – साथ कैफ़ी ने गजल कहना जारी रखा। कैफ़ी आज़मी न सिर्फ साहित्य, कला, संस्कृति के मोर्चे पर काम कर रहे थे। बल्कि साथ ही साथ सामाजिक बदलाव के लिए किसानों – मजदूरों के साथ जन संघर्षो के जितने पड़ाव आये कैफ़ी आज़मी ने उन आन्दोलनों में महत्व पूर्ण भूमिका अदा की।
पूर्वी उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले की फूलपुर तहसील से पांच — छ: किलोमीटर की दूरी पर स्थित एक छोटा सा गाँव मिजवा। मिजवा गाँव के एक प्रतिष्ठित जमीदार परिवार में उन्नीस जनवरी 1919 को सैयद फतह हुसैन रिज्वी और कनिज फातमा के चौथे बेटे के रूप में अतहर हुसैन रिज्वी का जन्म हुआ। अतहर हुसैन रिज्वी ने आगे चलकर अदब की दुनिया में कैफ़ी आजमी नाम से बेमिशाल सोहरत हासिल की।
कैफ़ी की चार बहनों की असामयिक मौत ने कैफ़ी के दिलो — दिमाग पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला।
कैफ़ी के वालिद को आने वाले समय का अहसास हो चुका था। उन्होंने अपनी जमीदारी की देख रेख करने के बजाय गाँव से बाहर निकल कर नौकरी करने का मन बना लिया। उन दिनों किसी जमींदार परिवार के किसी आदमी का नौकरी — पेशे में जाना सम्मान के खिलाफ माना जाता था। कैफ़ी के वालिद का निर्णय घर के लोगों को नागवार गुजरा। वो लखनऊ चले आये और जल्द ही उन्हें अवध के बलहरी प्रांत में तहसीलदारी की नौकरी मिल गयी। कुछ ही दिनों बाद अपने बीबी बच्चों के साथ लखनऊ में एक किराए के मकान में रहने लगे। कैफ़ी के वालिद साहब नौकरी करते हुए अपने गाँव मिजवा से सम्पर्क बनाये हुए थे और गाँव में एक मकान भी बनाया। जो उन दिनों हवेली कही जाती थी। कैफ़ी की चार बहनों की असमायिक मौत ने न केवल कैफ़ी को विचलित किया बल्कि उनके वालिद साहब का मन भी बहुत भारी हुआ। उन्हें इस बात कि आशंका हुई कि लडकों को आधुनिक तालीम देने के कारण हमारे घर पर यह मुसीबत आ पड़ी है। कैफ़ी के माता – पिता ने निर्णय लिया कि कैफ़ी को दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) दिलाई जाय। कैफ़ी का दाखिला लखनऊ के एक शिया मदरसा सुल्तानुल मदारिस में करा दिया गया। आयशा सिद्दीक ने एक जगह लिखा है कि “कैफ़ी साहब को उनके बुजुर्गो ने एक दीनी शिक्षा गृह में इस लिए दाखिल किया था कि वह पर फातिहा पढ़ना सिख जायेंगे। कैफ़ी साहब इस शिक्षा गृह में मजहब पर फातिहा पढ़कर निकल गये” ।
सुल्तानुल मदारिस में पढ़ते हुए कैफ़ी साहब 1933 में प्रकाशित और ब्रिटिश हुकूमत द्वारा जब्त कहानी संग्रह “अंगारे” पढ़ लिया था, जिसका सम्पादन सज्जाद जहीर ने किया था। उन्हीं दिनों मदरसे की अव्यवस्था को लेकर कैफ़ी साहब ने छात्रों की यूनियन बना कर अपनी मांगो के के साथ हडताल शुरू कर दी। डेढ़ वर्ष तक सुल्तानुल मदरीस बन्द कर दिया गया। परन्तु गेट पर हडताल व धरना चलता रहा। धरना स्थल पर कैफ़ी रोज एक नज्म सुनाते | धरना स्थल से गुजरते हुए अली अब्बास हुसैनी ने कैफ़ी की प्रतिभा को पहचान कर कैफ़ी और उनके साथियों को अपने घर आने की दावत दे डाली। वहीं पर कैफ़ी की मुलाक़ात एहतिशाम साहब से हुई जो उन दिनों सरफराज के सम्पादक थे। एहतिशाम साहब ने कैफ़ी की मुलाक़ात अली सरदार जाफरी से कराई। सुल्तानुल मदारीस से कैफ़ी साहब और उनके कुछ साथियों को निकाल दिया गया। 1932 से 1942 तक लखनऊ में रहने के बाद कैफ़ी साहब कानपुर चले गये और वह मजदूर सभा में काम करने लगे। मजदूर सभा में काम करते हुए कैफ़ी ने कम्युनिस्ट साहित्य का गम्भीरता से अध्ययन किया। 1943 में जब बम्बई में कम्युनिस्ट पार्टी का आफिस खुला तो कैफ़ी बम्बई चले गये और वही कम्यून में रहते हुए काम करने लगे सुल्तानुल मदारीस से निकाले जाने के बाद कैफ़ी ने पढ़ना बन्द नहीं किया। प्राइवेट परीक्षा में बैठते हुए उन्होंने दबीर माहिर ( फार्सी ० दबीर कामिल (फार्सी) आलिम (अरबी) आला काबिल (उर्दू) मुंशी (फार्सी) कामिल (फार्सी) की डिग्री हासिल कर ली। कैफ़ी के घर का माहौल बहुत अच्छा था। शायरी का हुनर खानदानी था। उनके तीनों बड़े भाई शाइर थे। आठ वर्ष की उम्र से ही कैफ़ी ने लिखना शुरू कर दिया। ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार कैफ़ी ने बहराइच के एक मुशायरे में गजल पढ़ी। उस मुशायरे की अध्यक्षता मानी जयासी साहब कर रहे थे। कैफ़ी की जगल मानी साहब को बहुत पसंद आई और उन्होंने काफी को बहुत दाद दी। मंच पर बैठे बुजुर्ग शायरों को कैफ़ी की प्रंशसा अच्छी नहीं लगी और फिर उनकी गजल पर प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया गया कि क्या यह उन्हीं की गजल है? कैफ़ी साहब को इम्तिहान से गुजरना पडा। मिसरा दिया गया —- “ इतना हंसो कि आँख से आँसू निकल पड़े” फिर क्या कैफ़ी साहब ने इस मिसरे पर जो गजल कही वह सारे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर हुई। लोगों का शक दूर हुआ “काश जिन्दगी में तुम मेरे हमसफर होते तो जिन्दगी इस तरह गुजर जाती जैसे फूलों पर से नीमसहर का झोका” और फिर 23 मई 1947 में कैफी आज़मी की शादी शौकत आजमी के साथ सम्पन्न हुई कैफ़ी एक बेटी मुन्नी और एक बेटा बाबा आजमी के वालिद बने। ग्यारह वर्ष तक बेटी मुन्नी बनी रही फिर अली सरदार जाफरी ने मुन्नी को शबाना आजमी नाम दिया।
कैफ़ी की पत्नी शौकत आजमी अपनी यादों का पिटारा खोलती हैं तो बोल पड़ती हैं सरदार जाफरी ने शादी के मौके पर उपहार स्वरूप एक प्रति बहुत सुन्दर जिल्द बन्दी में प्रस्तुत की अन्दर सरदार जाफरी ने लिखा था —–
मोती के लिए ( मेरा घरेलू नाम है )
जिन्दगी जेहद में है, सब्र के काबू में नहीं,
नब्जे हस्ती का लहू, कापते आँसू में नहीं,
उड़ने खुलने में है निकहत, खमे गेसू में नहीं,
जन्नत एक और है जो मर्द के पहलु में नहीं।
उसकी आजाद रविश पर भी मचलना है तुझे, उठ मेरी जान, मेरे साथ ही चलना है तुझे। ( कैफ़ी )
और दूसरे पृष्ठ पर लिखा था —
“श” के नाम
“मैं तनहा अपने फन को “आखिर — ए – शब” तक ला चुका हूँ। तुम आ जाओ तो सहर हो जाए”।
और सहर हो गयी। “श” शौकत बनकर उनकी जिन्दगी में आ गयी। शादी के बाद हम अँधेरी कम्यून के एक कमरे में आ गये। कम्यून की दुनिया मेरे लिए एक बिलकुल अलग और नई दुनिया थी। पीपल और कटहल के बड़े – बड़े पेड़ों से घिरी हुई। यह जगह बहुत ही सुन्दर थी और उससे सुन्दर वहां के लोग। खुले विचारों वाले। पारदर्शिता, मानवता से प्रेम करने वाले व्याकुल, परेशान, भूखे लोगों के लिए एक नया संसार बनाने की धुन में प्रयास रत लोग।
कामरेड ए . बी बर्धन कुछ इस तरह याद करते हैं कैफ़ी को “क्रान्ति के इस महान शायर” की गरजती आवाज लाखों लोगों को सम्मोहित कर देती थी आज खामोश हो गयी। लेकिन क्या ऐसा हुआ है? कैफ़ी आज भी उन प्रगतिशील धारा के लोगों के बीच हैं और रहेंगे। उनके शब्द और उनकी आवाज इसकी प्रतिध्वनी उस हर जगह भी गूजती रहेगी, जहां मनुष्य भाई के रूप में मनुष्य के पास पहुंचता हो, भले ही उसका मत एवं उसकी जाति कुछ हो महिला अपनी बंधन एवं दासता की बेदी को तोडती हो और अपनी गरिमा एवं समानता के लिए उठ खड़ी होती हो, मजदूर शोषकों के विरुद्ध अपने अधिकारों की रक्षा के लिए तत्पर रहते हों और शोषण से मुक्त विश्व के लिए संघर्ष करते हों। कैफ़ी की पूरी शायरी धर्म निरपेक्षता, मानवतावाद अपने हमवतनों के लिए मनुष्य, सर्वोत्कृष्ट सृष्टि के लिए अजस्र प्यार से ओतप्रोत रही है।
जावेद अख्तर साहब कैफ़ी के लिए लिखते है ——
अजीब आदमी था वो ——–
मुहब्बतों का गीत था बगावतो का राग था
कभी वो सिर्फ फूल था कभी वो सिर्फ आग था
अजीब आदमी था वो
वो मुफलिसों से कहता था
कि दिन बदल भी सकते है
वो जाबिरो से कहता था
तुम्हारे सर पे सोने के जो ताज है
कभी पिघल भी सकते है
वो बन्दिशो से कहता था
मैं तुमको तोड़ सकता हूँ
सहूलतो से कहता था
मैं तुमको छोड़ सकता हूँ
हवाओं से वो कहता था
मैं तुमको मोड़ सकता हूँ
वो ख़्वाब से ये कहता था
के तुझको सच करूंगा मैं
वो आरजू से कहता था
मैं तेरा हम सफर हूँ
तेरे साथ ही चलूँगा मैं |
तू चाहे जितनी दूर भी बना अपनी मंजिले
कभी नही थकुंगा मैं
वो जिन्दगी से कहता था
कि तुझको मैं सजाऊँगा
तू मुझसे चाँद मांग ले
मैं चाँद ले आउंगा
वो आदमी से कहता था
कि आदमी से प्यार कर
उजड़ रही ये जमी
कुछ इसका अब सिंगार कर
अजीब आदमी था वो
कैफ़ी अपनी जिन्दगी से रुखसत होते — होते ये नज्म कही थी पूरे दुनिया के मेहनतकस आवाम से ——–
” कोई तो सूद चुकाए, कोई तो जिम्मा ले
उस इन्कलाब का, जो आज तक उधार सा है।
दस मई 2002 को यह इन्कलाबी शायर इस दुनिया से रुखसत हो लिया और अपनी आवाज अपनी आग उगलती नज्मों को हमारे बीच सदा — सदा के छोड़ गया यह कहते हुए।
अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो
सुनील दत्ता — पत्रकार
आभार————— इस लेख का कुछ अंश अभिनव कदम पत्रिका से लिया गया है।
It’s a marvelous piece of article upon Kaifi Azmi, a legend of present time. In fact, people like Kaifi Azmi are jewels born rarely. He was a real hero of his time.
Mr Suneel Dutta has penned down about this hero excellently. Hats off to Kaifi saheb and Mr Dutta as well. Congratulations!